कौन से कबीर
आज जब तोताराम आया तो उसके साथ एक और सज्जन भी थे- बुज़ुर्ग,लम्बे, गोरे और अत्यंत साधारण लेकिन प्रभावशाली |
हमने पूछा- इन आदरणीय का परिचय ?
बोला- ये कबीर हैं |
हमने पूछा- कौन कबीर ? कबीर बेदी, कबीर खान या देश के सबसे बड़े बूचड़खाने 'अल कबीर' के मालिक कोई सी.ई.ओ.कबीर ?
बोला- ये इनमें से कोई नहीं हैं |ये तो संत कबीर हैं |
हमने कहा- यदि संत हैं तो वेटिकन का सर्टिफिकेट कहाँ है ? कोई भी व्यक्ति वेटिकन की मान्यता के बिना संत नहीं बन सकता |और यह प्रक्रिया इतनी लम्बी और कठिन है कि कोई ऐरा-गैरा संत बन ही नहीं सकता और जाली सर्टिफिकेट की तो कोई गुंजाइश ही नहीं |वहाँ तो चमत्कार प्रमाणित हुए बिना कोई संत बन ही नहीं सकता |
अब कबीर जी बोले- संत अपने आचरण से बनता और जनता उसे परखकर अपने हृदय में स्थान देती है |संत लोक बनाता है, कोई नाटक, गिजीज़ बुक में नाम या राजनीतिक पार्टी या सरकारें नहीं बनातीं |चमत्कार, जादू-टोना तो गलत हैं |यह संतों का काम नहीं है |हमने तो ऐसा करने वाले मुस्लिम और हिन्दू दोनों लम्पटों को लताड़ा है |संत का काम अपने आदर्श जीवन और मन-वचन-कर्म से सदाचार का सन्देश देना है |हम तो गंगा के किनारे सस्ती और मुफ्त की मोक्ष के बदले अपने कर्मों पर विश्वास करके अंत समय में मगहर चले गए, जहाँ मरने पर कहते हैं मोक्ष नहीं मिलती |
हमने पूछा- तो प्रभु, अब फिर भारत भूमि पर आपका आगमन किस हेतु हुआ है ?
बोले-हमें व्यक्तिगत रूप से तो कोई काम नहीं है लेकिन सुना है,वहाँ अपने संतत्त्व का प्रदर्शन करने और चाँदी की थाली में नेताओं के साथ तर माल जीमने वाले संतों के बीच हमारी गद्दी वाले भी पहुँच गए हैं हालाँकि हमने कोई गद्दी, मंदिर, मूर्ति का विचार कभी नहीं दिया |हम तो मेहनत की रूखी-सूखी खाने वाले रहे हैं |पत्थर की मूर्तियों से हम तो चक्की को अधिक उपयोगी समझते हैं जिससे आटा पीसा जा सकता है | इससे हमारे सिद्धांतों का उल्लंघन होता है |हम इसी का विरोध करने के लिए सिंहस्थ कुम्भ में उज्जैन जा रहे हैं |तुम्हारा यह दोस्त पकड़ लाया, कह रहा था- पैदल पहुँचना मुश्किल है, रेल का रिज़र्वेशन करवा देगा |
हमने कहा- जाइए, ख़ुशी से जाइए महाराज, लेकिन यह लोकतंत्र का ज़माना है जिसमें सभी वोट-बैंक बनाने में लगे हैं और उसके लिए बड़े-बड़े अनुदान देकर, स्मारक बनाकर उनमें में बड़े-बड़े पद सृजित करके इन मठाधीशों को बैठाने का लालच दिया जा रहा है | आपको पता होगा- पंजाब में रैदासियों/रविदासियों के वोट पटाने के लिए 'कठौती में गंगा मानने वाले' रैदास के स्मारक के लिए करोड़ों रुपएआवंटित किए गए हैं |आपकी गद्दी वालों को भी यदि रेवड़ी मिल गई होंगी तो मेले के पदाधिकारी तो दूर, आपकी गद्दी वाले ही आपको पहचानने से इनकार कर देंगे |और अब तो आपकी 'कंकर पत्थर जोड़ कर .., भेड़ न बैकुंठ जाय.., पाथर पूजे हरि मिले... जैसी रचनाएँ भी सांप्रदायिक सद्भाव के नाम पर पाठ्यक्रम में से निकाल दी गई हैं |
अब भारत में आप भी अन्य महापुरुषों की तरह आचरण की बजाय स्मारकों और सेमीनारों में सुरक्षित हैं | अब आगे आपकी मर्ज़ी जाइए उज्जैन |पत्नी से कहकर रास्ते के लिए खाने के लिए कुछ रूख-सूखा बनवा दें |आजकल देश में लोग ज़हर खाकर नहीं बल्कि बाहर का खाना खाकर अधिक मरते हैं |
बोले - तो बेटा, क्या करेंगे ऐसे आयोजन में जाकर |यहीं तेरी रूखी-सूखी खाकर, ठंडा पानी पीकर विदा हो लेंगे |
आज जब तोताराम आया तो उसके साथ एक और सज्जन भी थे- बुज़ुर्ग,लम्बे, गोरे और अत्यंत साधारण लेकिन प्रभावशाली |
हमने पूछा- इन आदरणीय का परिचय ?
बोला- ये कबीर हैं |
हमने पूछा- कौन कबीर ? कबीर बेदी, कबीर खान या देश के सबसे बड़े बूचड़खाने 'अल कबीर' के मालिक कोई सी.ई.ओ.कबीर ?
बोला- ये इनमें से कोई नहीं हैं |ये तो संत कबीर हैं |
हमने कहा- यदि संत हैं तो वेटिकन का सर्टिफिकेट कहाँ है ? कोई भी व्यक्ति वेटिकन की मान्यता के बिना संत नहीं बन सकता |और यह प्रक्रिया इतनी लम्बी और कठिन है कि कोई ऐरा-गैरा संत बन ही नहीं सकता और जाली सर्टिफिकेट की तो कोई गुंजाइश ही नहीं |वहाँ तो चमत्कार प्रमाणित हुए बिना कोई संत बन ही नहीं सकता |
अब कबीर जी बोले- संत अपने आचरण से बनता और जनता उसे परखकर अपने हृदय में स्थान देती है |संत लोक बनाता है, कोई नाटक, गिजीज़ बुक में नाम या राजनीतिक पार्टी या सरकारें नहीं बनातीं |चमत्कार, जादू-टोना तो गलत हैं |यह संतों का काम नहीं है |हमने तो ऐसा करने वाले मुस्लिम और हिन्दू दोनों लम्पटों को लताड़ा है |संत का काम अपने आदर्श जीवन और मन-वचन-कर्म से सदाचार का सन्देश देना है |हम तो गंगा के किनारे सस्ती और मुफ्त की मोक्ष के बदले अपने कर्मों पर विश्वास करके अंत समय में मगहर चले गए, जहाँ मरने पर कहते हैं मोक्ष नहीं मिलती |
हमने पूछा- तो प्रभु, अब फिर भारत भूमि पर आपका आगमन किस हेतु हुआ है ?
बोले-हमें व्यक्तिगत रूप से तो कोई काम नहीं है लेकिन सुना है,वहाँ अपने संतत्त्व का प्रदर्शन करने और चाँदी की थाली में नेताओं के साथ तर माल जीमने वाले संतों के बीच हमारी गद्दी वाले भी पहुँच गए हैं हालाँकि हमने कोई गद्दी, मंदिर, मूर्ति का विचार कभी नहीं दिया |हम तो मेहनत की रूखी-सूखी खाने वाले रहे हैं |पत्थर की मूर्तियों से हम तो चक्की को अधिक उपयोगी समझते हैं जिससे आटा पीसा जा सकता है | इससे हमारे सिद्धांतों का उल्लंघन होता है |हम इसी का विरोध करने के लिए सिंहस्थ कुम्भ में उज्जैन जा रहे हैं |तुम्हारा यह दोस्त पकड़ लाया, कह रहा था- पैदल पहुँचना मुश्किल है, रेल का रिज़र्वेशन करवा देगा |
हमने कहा- जाइए, ख़ुशी से जाइए महाराज, लेकिन यह लोकतंत्र का ज़माना है जिसमें सभी वोट-बैंक बनाने में लगे हैं और उसके लिए बड़े-बड़े अनुदान देकर, स्मारक बनाकर उनमें में बड़े-बड़े पद सृजित करके इन मठाधीशों को बैठाने का लालच दिया जा रहा है | आपको पता होगा- पंजाब में रैदासियों/रविदासियों के वोट पटाने के लिए 'कठौती में गंगा मानने वाले' रैदास के स्मारक के लिए करोड़ों रुपएआवंटित किए गए हैं |आपकी गद्दी वालों को भी यदि रेवड़ी मिल गई होंगी तो मेले के पदाधिकारी तो दूर, आपकी गद्दी वाले ही आपको पहचानने से इनकार कर देंगे |और अब तो आपकी 'कंकर पत्थर जोड़ कर .., भेड़ न बैकुंठ जाय.., पाथर पूजे हरि मिले... जैसी रचनाएँ भी सांप्रदायिक सद्भाव के नाम पर पाठ्यक्रम में से निकाल दी गई हैं |
अब भारत में आप भी अन्य महापुरुषों की तरह आचरण की बजाय स्मारकों और सेमीनारों में सुरक्षित हैं | अब आगे आपकी मर्ज़ी जाइए उज्जैन |पत्नी से कहकर रास्ते के लिए खाने के लिए कुछ रूख-सूखा बनवा दें |आजकल देश में लोग ज़हर खाकर नहीं बल्कि बाहर का खाना खाकर अधिक मरते हैं |
बोले - तो बेटा, क्या करेंगे ऐसे आयोजन में जाकर |यहीं तेरी रूखी-सूखी खाकर, ठंडा पानी पीकर विदा हो लेंगे |
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