मोदी जी ने अच्छा नहीं किया
कोरोना काल के बाद से हमारा घर से बाहर निकलना सीमित हो गया है । महिने में एक बार पेंशन लाने के लिए और तीन महिने में एक बार त्रैमासिक ब्याज वाले एफ डी का ब्याज निकलवाने और कभी कभी बुक पोस्ट से कोई किताब भेजने के लिए मंडी वाले पोस्ट ऑफिस जाते हैं । इसके अलावा सुबह शाम अपनी ‘पेट’ कूरो को घुमाने के सिवाय कोल्हू के बैल की तरह ‘घर ही कोस पचास’ है ।
एक कवि मित्र ने अपनी पुस्तक भिजवाई तो हम भी उन्हें अपनी नई किताब भेजने के लिए पोस्ट ऑफिस गए । जैसे ही पैकेट पोस्ट मास्टर जी को दिया तो बोले- गुरु जी, अब यह सेवा बंद हो गई है ।
हमने कहा- ऐसा कैसे हो सकता है ? न कोई सूचना, न संसद में विचार विमर्श । सरकार ने इस देश को शिक्षित, जागरूक, विचारवान, लोकतान्त्रिक बनाने के लिए एक साथ ही बहुत से उपक्रम किए जिसमें ज्ञान, शिक्षा, जिज्ञासा, अध्ययन आदि की प्रवृत्ति को विकसित करने के लिए पुस्तक-पत्रिका, अखबार प्रकाशन, पुस्तकालय आदि को सरल, सस्ता बनाने के लिए सस्ता कागज, सस्ती डाक दरें आदि का प्रावधान किया था । पुस्तकालयों को केन्द्रीय खरीद के तहत निःशुल्क पुस्तकें भिजवाने की व्यवस्था की थी। पुस्तकों, पत्रिकाओं, अखबारों आदि के कारण जनता में जागृति आनी शुरू हुई थी । अब अचानक ऐसा कौनसा घाटा आ गया जो यह मुर्दे को बाल उखाड़कर हल्का किया जा रहा है ? किसी एक मूर्ति, स्मारक, कॉरीडोर के बजट में पुस्तक भेजने की यह सस्ती सुविधा वर्षों जारी रखी जा सकती है ।
अगल बगल के लोग हमारे इस भाषण से असहज होने लगे और मास्टर जी भी । । बोले- गुरुजी, हम क्या करें, हम तो नौकर हैं । जो हुक्म होगा करेंगे ।
चले आए अपना सा मुँह लेकर ।
आज जैसे ही तोताराम आया, हमने सारी झुँझलाहट उसी पर उतार दी, कहा- तोताराम, तुम्हारे मोदी जी ने अच्छा नहीं किया ।
बोला- पहली बात तो मोदी जी जो कुछ करते हैं वह अच्छा ही होता है । वे बुरा कर ही नहीं सकते । और अगर तुझे उनका कोई काम, कोई बात अच्छी नहीं लगी तो मैं क्या कर सकता हूँ । तू तो ऐसे कह रहा है जैसे मोदी जी सब काम मुझसे पूछकर करते हैं या वे मेरे शिष्य रहे हैं जो मेरा कहना मान लेंगे । वे किसी और ही मिट्टी के बने हुए हैं । किस मिट्टी के बने हुए हैं यह खुद उन्हें भी पता नहीं । लेकिन इतना तय है वे किसी की सुनते नहीं । जो करना होता है वही करते हैं । और किसी भी काम के लिए खेद, पश्चाताप और पुनर्विचार भी नहीं करते । लोग थक गए कह-कहकर लेकिन मणिपुर नहीं जाना तो नहीं ही गए । उन्होंने जो सेवा करना चाही वो जबरदस्ती कर दी जैसे कोरोना का टीका और जो वापिस लेना चाही वह सेवा सुविधा वापिस ले ली जैसे रेल किराये में सब्सीडी, बिना बताए, बिना पूछे चुपचाप । फिर भी हुआ क्या ?बात तो बता ।
हमने कहा- कल बुक पोस्ट से कुछ पुस्तकें भेजने पोस्ट ऑफिस गए थे तो पता चला मोदी जी ने बुकपोस्ट वाली सुविधा बंद कर दी । अरे, पढ़ने-पढ़ाने वाले लोगों के लिए पुस्तकें भेजने-मँगाने का एक सस्ता साधन था । अब कूरियर वाले दस गुना पैसा माँगेंगे । लगता है यह मोदी जी का नया नारा है- न पढ़ूँगा, न पढ़ने दूँगा ।
बोला- ठीक ही किया । क्या करेगा ज्यादा पढ़कर । आजकल पीएचडी और एमबीए नरेगा में काम कर रहे हैं । चपरासी की एक नौकरी के लिए पाँच सौ ग्रेजुएट आ जाते हैं । और उसका भी पेपर लीक हो जाता है और भर्ती केंसिल । इसीलिए मोदी जी ने कहा है- हार्वर्ड में कुछ नहीं रखा । हार्डवर्क करो । कहते हैं- मैं ज्यादा पढ़ा लिखा नहीं हूँ, फाइल को ऐसे ही ऊपर से नीचे पढ़ लेता हूँ ।
भाग भागकर चाय बेचने और 35 वर्ष भीख मांगने का कठिन काम किया तो आज प्रधानमंत्री और विश्वगुरु बने हुए हैं । अगर ज्यादा पढ़ जाते तो राष्ट्रभक्त की बजाय अर्बन नक्सल बनते देर नहीं लगती । इसीलिए तो आजकल पुस्तकालय में कौन जाता है । बच्चे कोर्स की किताबें तक नहीं खरीदते । गाइड खरीदते हैं या कोचिंग सेंटर वाले फ़ोटोस्टेट नोट्स दे देते हैं । ज्यादा ही ज्ञान चाहिए तो मोदी जी की मन की बात सुन लिया कर । महिने की एक खुराक काफी है । लोक-परलोक सुधारने के सब नुस्खे होते हैं उसमें ।
हमने कहा- लेकिन उससे नौकरी तो नहीं मिलती ।
बोला- नौकरी की जरूरत क्या है ? गौरक्षक बन जा । पशु व्यापारियों से हफ्ता वसूली कर, किसी का भी सिर फोड़ दे, टाँग तोड़ दे, गोली मार दे, कोई पूछने वाला नहीं बल्कि हो सकता है किसी राष्ट्रवादी संस्था का जिला, गाँव, मोहल्ला अध्यक्ष बन जाएगा । मन लगाकर काम करेगा तो एमएलए, एमपी भी बन जाएगा ।
अगर तुझे डिग्री का ज्यादा ही शौक है तो वैसे ही कोई भी एनटायर डिग्री दिलवा देते हैं । सुना है गुजरात में 70-70 हजार में डॉक्टर की डिग्री बिकती है ।
हमने कहा- तो फिर धेला भी खर्च करने की क्या जरूरत है, वैसे ही डॉ लिखने लगते हैं । कोई पूछेगा तो कह देंगे, यह डाकू का शॉर्ट फॉर्म है ।
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