Feb 12, 2009

समलैंगिकता: मनोसामाजिक विकृति और शिशु का भविष्य


कोई भी परिवर्तन या नया करना मानव के जिज्ञासु दिमाग की शाश्वत फितरत है किंतु मात्र नए के लिए नया उसी तरह निरर्थक और ऊलज़लूल है जैसे कि कला के लिए कला । अंततः समाज और व्यक्ति अपने विचारों और कार्यों में औचित्य और सार्थक उपयोगिता तलाशता है यदि वह नहीं मिलती है तो न तो व्यक्ति को उससे संतुष्टि मिलती है और न ही उसे समाज में स्वीकृति मिलती है । ऐसे कार्य और विचार समय के कूड़ेदान में पहुँच जाते हैं ।

आज पूँजीवाद और बाज़ार अपने लाभ के लिए व्यक्ति के देह सुख के लिए मानवाधिकारों के नाम पर सभी प्रकार की स्वच्छंदताओं का समर्थन करता है किंतु ये व्यक्ति को कुंठा के एक अंधेरे में धकेल देतीं हैं जहाँ उसे व्यर्थता के अहसास के अतिरिक्त कुछ नहीं मिलता । सहज, उचित और विवेकसम्मत मूल्य, मान्यताएँ और जीवन पद्धति ही मनुष्य को सहजता और सार्थकता प्रदान कर सकते हैं ।

पश्चिम की दुनिया में आजकल सार्थक और समाज सापेक्ष जीवन के अभाव में कुछ लोगों में यौन विकृतियाँ आ रही हैं । मानवाधिकारों के नाम पर सरकारें इन पर प्रतिबन्ध न लगाकर इन लोगों को स्वतंत्रता का एक छलावा दिखाकर अपना उल्लू सीधा करती रहती हैं । समाज ने स्त्री-पुरूष के विवाह के रूप में संतानोत्पत्ति और परिवार की अवधारण का जो विधान बनाया है, जीवन की सहज सार्थकता का जो मार्ग दिखाया है वही उचित है । विवाह न करना किसी व्यक्ति विशेष का, किसी महान उद्देश्य के लिए किया गया व्रत तो हो सकता है किंतु यह कोई सामान्य स्थिति नहीं । ऐसे ब्रह्मचारी व्यक्ति को समाज में मिलने वाले आदर के कारण कुछ लोग ब्रह्मचर्य का व्रत लेने का निर्णय तो ले लेते हैं पर ऐसे लोग न तो उसका पालन ही कर पाते हैं और न ही सामान्य रह पाते हैं । उनके जीवन में विकृतियाँ पनपती रहती हैं । जो प्रायः उजागर होती रहती हैं । इसी प्रकार परिवार की जिम्मेदारियों से बचने के लिए व्यक्तिगत कुंठा या विकृति के चलते या मीडिया द्वारा चर्चित कर दिए गए कुछ यौन विकृतों की तर्ज पर कुछ महिलाएँ या पुरूष समलैंगिक विवाह तक कर बैठते हैं और अंततः उनकी परिणति कुंठा और आत्मग्लानि में होती है । समलैंगिकता किशोरावस्था के प्रारम्भ में स्वाभाविक उत्तेजना के तहत कुछ समय व लोगों में संभव हो सकती है पर वह भी स्वाभाविक नहीं है । इसीलिए वह पुराने या आधुनिक किसी भी समय में मान्य नहीं हो सकी । भारतीय कानून में इसे दंडनीय अपराध माना गया है हालाँकि ऐसे अपराधों के लिए किसी को कठोर दंड मिलता नहीं सुना गया पर यह तो सच है कि यह कृत्य किसी प्रकार भी शोभनीय या गर्व का विषय तो नहीं ही माना गया । ऐसा व्यक्ति न तो ख़ुद को ही सार्थक अनुभव करता है और न ही समाज । यह लज्जा और संकोच ही व्यक्ति को इस अनुचित कृत्य से बचाते हैं । आज रामदोस और उनके जैसे कुछ तथाकथित विशिष्ट व्यक्ति एक मुहिम चला कर लज्जा के इस झीने से परदे को भी हटाकर यौन विकृतियों को मंचासीन करवाने के लिए प्रयत्नशील नज़र आ रहे हैं । यह दुर्भाग्य की बात है ।

पश्चिम के कुछ देशों ने समलैंगिकता को स्वीकृति प्रदान कर दी है इसलिए समलैंगिकों का साहस इस हद तक बढ़ गया है कि वे किराये की कोख लेकर संतान भी चाहने लगे हैं । भारत में किराये की कोख और डाक्टर सस्ते हैं इसलिए यहाँ यह उद्योग बढ़ रहा है । अभी १८ नवम्बर के एक अंग्रेजी अखबार में इज़राइल के दो समलैंगिक पुरुषों योनातन और ओमर घेर का किराये की भारतीय कोख से जन्मे अपने शिशु के साथ फोटो छपा है । हम इसी सम्बन्ध में यहाँ विचार करना चाहते हैं ।

"Yonatan, who heads Israel's largest gay rights organisation, feels it's time India changed Section 377, all the more because India is so "diverse and pluralistic and shouldn't outcast'' 10% of its population.

Yonathan (30) and Omer (31) have been together for the past seven years and recently decided to start a family. "Israel doesn't allow same-sex couples to adopt or have a surrogate mother. So we started scouting and found that only India and US offer surrogacy to same-sex couples,'' said Yonatan."

अब एक ३० साल का विकृतबुद्धि प्राणी जिसकी ख़ुद की सरकार समलैंगिक जोड़े को बच्चा गोद लेने या 'सरोगेट मदर' नहीं करने देती, वह इस हजारों वर्ष पुरानी संस्कृति को आधुनिकता के पाठ पढ़ाएगा ।

स्त्री के डिम्बाणु और पुरूष के शुक्राणु से संतान की उत्पत्ति होती है । माँ गर्भ धारण करती है । उत्पति के बाद संतान को माता-पिता के अनुसार समाज में एक परिचय मिलता है । मानव सृष्टि और समाज और मानव की परम्परा आगे बढ़ती है । परिवार में प्यार, वात्सल्य के बीच बालक का बचपन बीतता है, उसे संस्कार, जीवन दृष्टि और जीवन मूल्य मिलते हैं । मानव संबंधों की एक श्रृंखला बनती है । शिशु, माता-पिता व परिवार के सदस्यों के कर्तव्य का दायरा बढ़ता है । किंतु समलैंगिकों में यदि दोनों स्त्री हैं तो उन्हें किसी पराये शुक्राणु की आवश्यकता होगी । तथा दोनों पुरूष हों तो एक पराये डिम्बाणु और कोख की आवश्यकता होगी । दोनों स्त्रियों में से तो एक स्त्री गर्भ धारण कर सकती है और संतान को स्वाभाविक जन्म दे सकती है पर क्या दूसरी महिला अपने को पिता मान सकेगी? यदि दोनों पुरूष हैं तो जिसने शुक्राणु दिया है वह तो अपने को पिता मान सकता पर क्या दूसरा अपने को माता मान पायेगा? क्या शिशु को माँ का दूध और वात्सल्य मिल सकेगा? दोनों ही स्थितियों में शिशु को माता या पिता के प्यार से वंचित होना पड़ेगा । ऐसा होना शिशु के शारीरिक और मानसिक विकास को तो प्रभावित करेगा ही, साथ ही बड़ा होने पर क्या वह स्वयं को पराये सहयोग से जन्मी संतान के रूप में जाना जाना पसंद करेगा?

यदि समलैंगिक यौन विकृति के तहत साथ रहते हैं तो भी उन्हें किसी अन्य जीव को बिना उसके अधिकारों की परवाह किए, अपनी इस विकृत दुनिया में शामिल करने का अधिकार नहीं हैं । आने वाला शिशु कोई निर्जीव खिलौना नहीं होता जिसे मनोरंजन के लिए खरीद लिया जाए । और फिर यह जीवित प्राणी तो मनुष्य है जिसे हमारे मनोभावों, संस्कारों,समाज की परम्पराओं के बीच रहकर उनसे सामंजस्य बैठा कर जीना होता है । पशु भी केवल भोजन से संतुष्ट नहीं हो सकता । उसे भी अपना पारिवारिक जीवन और मालिक का प्यार चाहिए । यदि पशु पालकों के लिए भी कानून नियम निर्धारण करता है, कटने के लिए ले जाए जा रहे पशुओं के अधिकारों की भी बात सोचता है तो समलैंगिकों की संतानों के बारे में इस विकृति को स्वीकृति देने से पहले कानून, मनोविज्ञान और समाज को सब प्रकार से विचार करना चाहिए ।

इसके साथ ही यह सोच कर भी हँसी आती है और शर्म भी कि विश्व में हमारी सोच और महिलाओं की अस्मिता की क्या छवि बनेगी कि भारत में सस्ते साँचे मिलते हैं जहाँ कोई भी अपना मोम या प्लास्टिक लाकर मन चाहे खिलौने बनवा कर ले जा सकता है । क्या यही परिणति होने वाली है पुराने जगद्गुरु और नई साईबर महाशक्ति की?

२४ नवम्बर २००८

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Jhootha Sach

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