Feb 6, 2009

स्लम-डोग! मिलिनीयर से सीख, मिल जाए ओस्कर की भीख !

भारत के लोगों में एक बड़ी खराबी है कि हर बात में कुछ न कुछ खुन्नस ज़रूर निकालेंगे । कहीं न कहीं अस्मिता को ठेस लगनेवाली बात ढूँढ़ ही लेंगे । एक सज्जन ने तो कोर्ट में याचिका भी दायर कर दी कि 'स्लम डाग मिलिनीयर' फ़िल्म के कारण भारत के झुग्गी-झोंपडीवालों का अपमान हुआ है । अब पता नहीं, यह याचिका उसने प्रसिद्ध होने के लिए अपने पैसे से डाली है या फ़िल्म को चर्चित करवाने के लिए निर्माता ने डलवाई है । विवाद इतना बढ़ गया है इसके सामने सत्यम् का घोटाला और मुंबई हमलों की घटना भी फीकी पड़ गई । इसलिए इस मुद्दे पर सही मार्गदर्शन करने के लिए महान चिन्तक शाहरुख़ खान को समय निकालकर इस मूर्ख जनता को समझाना पड़ा । चिन्तक कहते हैं- लोग नकारात्मक दृष्टि से देखते हैं । वे 'स्लम डाग' को तो देखते हैं और नाराज़ होते हैं पर इसके आगे लगे हुए शब्द 'मिलेनियर' अर्थात करोड़पति शब्द को नहीं देखते । अरे जब करोड़पति बना दिया तो उसके बाद क्या चाहिए । फिर तो चाहे जूते मारो, मुँह पर थूको या कुत्ता ही क्या चाहे कुत्ते का गू कहो । कायदे से तो गीता के देश के वासियों को तो इतना स्थितप्रज्ञ होना चाहिए कि हानि-लाभ, जीवन-मरण किसी में भी कोई फ़र्क नहीं पड़ना चाहिए । शरीर तो नश्वर है और आत्मा अमर है फिर फिक्र करने की क्या ज़रूरत है ।

पैसा आने पर गधा भी बाप हो जाता है । अच्छे-अच्छे मनीषी स्तुति गाने लगते हैं, लोग स्कूलों में मुख्य-अतिथि बना कर बुलाने लग जाते हैं । भले ही पैसेवाला कुछ न दे फिर भी लोग भाग कर उसकी कार का दरवाजा खोलने में गर्व अनुभव करते हैं । अब कोई पूछने वाला हो कि भाई यह तो बताओ इन फ़िल्म वालों ने पैसे के लिए नाचा है, गाया है, कमर मटकाई है । आज भी किसी के पास देने को मुँहमाँगा पैसा हो तो बड़े से बड़ा बादशाह और महानायक आपके कुत्ते के जन्मदिन पर नाचने के लिए आ सकता है । इनमें कोई भी हरिदास नहीं है जो अकबर को कह सके कि -
'संतन को सीकरी सों का काम ।
आवत जात पनहियाँ टूटें बिसर जात हरि नाम ॥'

अर्थात् संत को फतेहपुर सीकरी में अकबर से क्या काम, आने जाने में जूते घिसते हैं और राम का नाम भी भूल जाए । लेकिन इनके लिए तो जिसमें पैसा मिले वही सकारात्मक है ।
और फ़िल्म बनाने वाले भी कौन से संत हैं वे भी पैसे के लिए (मतलब कि फ़िल्म को हिट करवाने के लिए) कुछ भी गर्हित से गर्हित कहानी की माँग के नाम पर दिखा सकते हैं । इस फ़िल्म के निर्माता, निर्देशक, पटकथा लेखक सब विदेशी हैं । मूल पुस्तक में कुछ ऐसे परिवर्तन किए हैं जिससे इसमें भारतीय नहीं बल्कि साम्प्रदायिक रंग आ गया है । जैसे मूल पुस्तक में लेखक विकास स्वरूप ने हीरो का नाम 'राम मुहम्मद थॉमस' जानबूझ कर रखा जिससे धर्मविशेष से परे एक आम भारतीय नज़र आए । फ़िल्म में इसका नाम 'जमाल मलिक' और समाज के 'अत्याचारी' सिर्फ़ हिंदू दिखाए गए हैं । वैसे इस देश में समस्याओं और मुद्दों और कहानियों की क्या कमी है पर किसी में माद्दा, योग्यता या भाव तो हो । एक से एक जिजीविषा वाले अद्भुत लोग और उनके कारनामे हैं कि दुनिया चकित हो जाए ।

अब जब मिस वर्ल्ड होने पर ही कोई सुन्दरी मानी जाती हो, आस्कर मिलने से ही कोई फ़िल्म श्रेष्ठ होती हो, गिनीज़ बुक में नाम आने पर ही कोई बात विशिष्ट होती हो, तो फिर ठीक है । गाँधी ने नोबल पुरस्कार को ध्यान में रखकर न कुछ किया और न नोबल के बिना गाँधी का महत्व कम होता है । गीता, रामायण, गोदान, कबीर के सबद को कोई क्या पुरस्कृत करेगा ? वे स्वयं पढ़नेवाले को धन्य करते हैं । छोटों को पुरस्कार बड़ा बनाते हैं और बड़े पुरस्कार को गरिमा प्रदान करते हैं । योरप-अमरीका के मुद्दे और बौद्धिकता दोनों भारत से अलग हैं । खैर! भारत में सुंदरियाँ पैदा होने से सौंदर्य-प्रसाधन का बाज़ार विकसित हुआ, अब चलो कुत्तों के दिन फिरेंगे । हमें तो अफसोस यही है कि अंग्रेज पहले भी कहा करते थे- 'डॉग्स एंड इंडियंस आर नोट अलाउड' । बस अब इतना फ़र्क पड़ गया है कि इंडिया के करोड़पति डाग्स अलाउड हो गए हैं । चलो कल औरों का भी भाग्य उदय होगा ।

एक और महत्वपूर्ण बात यह है कि शाहरुख़ खान के अनुसार वहाँ के लोग इस 'डाग' के संगीत के दीवाने हो रहे हैं । वैसे संगीत तो पहले भी था इस देश में पर क्या किया जाए कि उन्हें 'डाग' का ही संगीत समझ में आता है ।

३० जनवरी २००९

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(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी । प्रकाशित या प्रकाशनाधीन ।
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Jhootha Sach

1 comment:

  1. अच्छा लिखे है, जब कोई चीज़ हांसिल ना कर पाए तो उसकी कमियों का चिठ्ठा खोल देना चाहिए इससे कम से कसम दिल की भड़ास तो निकल ही जाए ऑस्कर के बारे में फ़िर कभी सोच लेंगे...

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