Feb 1, 2009

फ्रिज भी खाली और आंतें भी खाली : क्यों आयी यह नौबत



जापान का एक समाचार था कि छंटनी का मारा एक कर्मचारी अपने फ्लेट में मरा पाया गया । उसके फ्लेट की तलाशी ली गई तो उसके फ्रिज में कुछ भी नहीं था । इसके बाद उसका पोस्ट मार्टम किया गया तो उसकी आँतों में भी कुछ नहीं निकला । इससे इतना तो तय है कि उसकी मृत्यु भूख से हुई थी । जापान दुनिया का दूसरे नंबर का धनवान देश है । क्या ज़रा सी मंदी से ऐसी नौबत आ गई कि कि आदमी इतना निराश हो जाए कि बिना किसीको बताये चुपचाप मरने के सिवा उसके पास कोई चारा न बचे । यह अर्थव्यवस्था ही नहीं सामाजिक व्यवस्था पर भी एक क्रूर प्रश्न दागता है कि व्यक्ति समाज से भी इतना निराश हो चुका है कि किसी से अपने मरने की चर्चा करने का भी साहस नहीं कर सकता । लोगों में आपसी सम्बन्ध इतने क्षीण हो गए हैं कि वे आपस में बाँटें तक नहीं कर सकते । ऐसे में समाज और जंगल में फर्क क्या रह गया ?

भारत में भी सूचना प्राद्यौगिकी के क्षेत्र में बहुत से रोजगार समाप्त हो रहे हैं । मनोचिकित्सकों और एक्यूप्रेशर के चिकित्सकों के पास अचानक से मरीजों की संख्या बढ़ गई है । एक मनोचिकित्सक ने बताया है कि उसके पास आने वालों में अधिकतर आई.टी. क्षेत्र के लोग ज़्यादा हैं और उनमे भी युवा अधिक हैं । यह सच है कि आई.टी. क्षेत्र के लोगों को शुरू में ही इतनी अधिक तनख्वाह मिलती है कि वह उनकी परिपक्वता से अधिक होती है । उन्हें यह समझ ही नहीं आता कि वे इस पैसे का क्या सदुपयोग करें । ऐसे में उन्हें गुमराह करने लिए बाज़ार है ही । उसे जीवन का उद्देश्य बताने के लिए विज्ञापन करने वाले अभिनेता-अभिनेत्रियाँ भी हैं ही । वे बताते जायेंगें कि यह तेल लगाओ, यह साबुन लगाओ, यह मोबाईल खरीदो, यह चश्मा लगाओ । ऐसा करते-करते सारी तनख्वाह ख़तम ।


इनकी कोई सरकारी नौकरी तो है नहीं कि छंटनी की संभावना लगभग नहीं होती है । इस बाजारवादी व्यवस्था में नौकर और मालिक का कोई सम्बन्ध नहीं होता । यह कोई विवाह थोड़े ही है यह तो डेटिंग है । ख़त्म करते क्या देर लगती है । जब नौकरी छूट जाती है तो अचानक आदमी जमीन पर ही क्या, चार हाथ नीचे चला जाता है । व्यक्ति को अपनी आवश्यकताओं को सीमित रखना चाहिए क्योंकि आवश्यकताएँ धन के साथ बढ़ तो जाती हैं पर धन कम होने पर उसी हिसाब से कम नहीं हो जातीं । कहा भी गया है -
बढ़त-बढ़त सम्पति सलिल, मन सरोज बढ़ जात ।
घटत-घटत पुनि न घटे, बरु समूल कुम्हलाय ॥

यदि हम थोड़ा सा पीछे जायें तो पायेंगें कि हमारी पिछली पीढी के लोगों में एक कमाता था और पॉँच -सात खाने वाले होते थे पर उनके भी सारे कम हो जाते थे क्योंकि वे मितव्ययिता से चलते थे । सौ कमाते थे तो भी बीस-तीस बचाने की सोचते थे । इसका कारण यह भी था कि वे अपने तक ही सीमित नहीं थे । वे सबके प्रति अपनी जिम्मेदारी समझते थे । अंततः धनवान कौन है ? वह जो ज़्यादा खर्च करता है पर समय पर जिसके पास ज़हर खाने को भी पैसा नहीं मिलता या वह जो बुरे समय के लिए या भविष्य की ज़रूरतों के लिए दो पैसे बचा कर रखता है ?

और फिर याद रखना चाहिए कि- भोग न भुक्ता वयमेव भुक्ताः

जिन पदार्थों का हम उपभोग करते हैं वे हमारी शक्ति को क्षीण करते हैं । जो खाता है उसको पचाना भी तो पड़ता है । टी.वी. ले आए तो उसे देखने के लिए आँखें और समय तो आपको ही खर्च करना पड़ेगा । कान में वाकमैन का तार घुसेड़कर आप गाने तो सुन सकते हैं पर कानों की सुनने की क्षमता भी आपको ही खोनी पड़ेगी । इसीलिए डाक्टर कहते हैं कि कम खानेवाला दीर्घजीवी होता है । पैसे के साथ-साथ पैसे और समय का प्रबंधन भी आना चाहिए अन्यथा वह हमें न तो सुख प्रदान कर सकता है और न ही सार्थकता । यदि समझ हो तो कबीर की तरह थोड़े से धन में ही बहुत कुछ किया जा सकता है जैसे-
सांई इतना दीजिये जा में कुटुम समाय ।
मैं भी भूखा ना रहूं, साधू न भूखा जाय ॥


२८ जनवरी २००९

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(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी । प्रकाशित या प्रकाशनाधीन ।
Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication.
Jhootha Sach

3 comments:

  1. सारगर्भित विचार। आज आईटी ही नहीं बल्कि समूचे कॉरपोरेट की यही हालत है। हल्‍ला न मचे इसलिए अब एक साथ नहीं बल्कि एक-दो रोज निकाले जा रहे हैं। अधिक वेतन ने व्‍यक्ति को सुविधाभोगी और कर्ज लेकर घी पीने की आदतें डाल दी हैं; ऐसे में कष्‍ट कई गुना बढ़ जाता है।

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  2. समय कठिन आ रहा है, विशेषकर उनके लिए जिन्हें जल्दी ही अधिक पैसा मिलने लगा।
    घुघूती बासूती

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  3. बढिया विश्लेषण...आगे देखिये क्या होता है!!

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