Feb 23, 2009

जय हो मगर किसकी


स्लम डॉग मिलेनिअर को आठ ओस्कर मिल गए । भारत फिर एक बार महाशक्ति बन गया । पहले सौंदर्य के क्षेत्र में बना था, अब फ़िल्म के क्षेत्र में बन गया । बनना भारत की नियति है । लोग बनाते हैं और हम बनते हैं । बनाने का यही तरीका है । जिसको भी बनाना होता है उसे ऐसे ही चने के झाड़ पर चढ़ाया जाता है । पहले जब यहाँ की सुंदरियों को विश्व या ब्रह्माण्ड सुन्दरी बनाया गया तो देशी ही नहीं विदेशी सौंदर्य प्रसाधनों का बाज़ार चमक गया वैसे ही अब फिल्मों का बाज़ार चमकेगा । ऐसे ही बाज़ार चमक रहें हैं । जहाँ तक खाने पीने की चीजों और दवाओं और शिक्षा की बात है हालत कहीं भी ठीक नहीं है ।

अब चलो सिनेमा में भारत की जय हो गई पर यह जय भारत की कितनी है यह सोचने की बात है । इससे पहले भी अच्छी फिल्में बनीं थीं । सत्यजित राय, महबूब खान आदि की, पर ओस्कर किसी को नहीं मिला । गाँधी पर बनी फ़िल्म को कई ओस्कर मिले और अब डेनी बोयल द्वारा बनाई गई फ़िल्म स्लम डॉग को आठ ओस्कर मिले । प्रश्न उठता है कि ये फिल्में कितनी भारतीय हैं । इन फिल्मों ने 'ओस्कर' की आधी दूरी तो इस लिए तय कर ली क्योंकि इनको बनानेवाले ब्रिटिश थे । यह तो गोरे काठ के साथ काला भारतीय लोहा तर गया । यदि यही गाना और संगीत रहमान ने किसी भारतीय निर्देशक की फ़िल्म में दिया होता तो क्या उसे ओस्कर मिला होता? कभी नहीं ।

इसके अतिरिक्त इस फ़िल्म में ब्रिटिश निर्देशक ने वही किया जो अंग्रेज़ भारत में अपने शासन काल में करते रहे थे -जातीय और सांप्रदायिक चश्मे से चीजों को देखना । उपन्यास लेखक ने अपने नायक के नाम में तीन शब्द रखे हैं वे हिंदू, मुस्लिम और ईसाई हैं मतलब कि वह यह कहना चाहता है कि यह कहानी भारत की है न कि हिन्दू या मुसलमान की, मगर निर्देशक ने उसका नाम केवल मुसलमान रखा है और उस पर हमला करनेवाले हिंदू हैं । यह एकांगी और विवादास्पद बात है । मूल लेखक भारत की स्थिति को जानता है इसीलिए उसने नायक के नाम में तीनों धर्मों के शब्द रखे हैं क्योंकि वह इसे भारत के शहरी ग़रीबों की कहानी बताना चाहता है न कि किसी मुसलमान की ।

जहाँ तक गोपाल सिंह नेपाली के गीत को सूरदास का बताने की बात है वह क्षम्य हो सकती है क्योंकि आज के भारतीय लेखकों का ज्ञान इतना ही है ।

हम तो तब भी इतने ही खुश थे जब बुश ने अपनी बिल्ली का नाम इंडिया रखा था । लेकिन वो तो अब मर गयी । सो यह तो ओस्कर है । चलो खुश हो लेते हैं वरना कोई देशभक्त हमारी ठुकाई कर देगा ।

बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना । जय हो ।

२३ फरवरी २००९

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(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी । प्रकाशित या प्रकाशनाधीन ।
Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication.
Jhootha Sach

6 comments:

  1. जोशी जी आपने मेरे दिल की बात लिख दी...आपने जो कुछ लिखा अक्षरश: सच है...ये एक विदेशी फ़िल्म है जिसमें भारत का इस्तेमाल किया गया है...

    नीरज

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  2. जोशी जी। भारत ने जब ग्रेग चेपल और गैरी कर्स्‍टन की कोचशिप में क्रिकेट के मैच जीते तब हमने जीत किसी दूसरे देश की बताई थी क्‍या? स्‍लमडॉग में निर्देशन विदेशी है लेकिन धरती अपनी है, कलाकार अपने हैं, रहमान अपने हैं, अधिकांश बच्‍चे हमारे हैं तो जीत भी हमारी है। हम जीत में हार क्‍यों ढूंढ रहे हैं।

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  3. अनुराग भाई चैपल नोकरी बजा रहा था. किसी से सीखना बुरा नहीं, अच्छा होता है. यहाँ स्लमडॉग विदेशी भाषा की विदेशी फिल्म है. कहानी भारतीय है अतः कलाकार भारतीय है, बस. यही फिल्म भारतीय निर्देशक द्वारा बनती तो न भारत में चलती न बाहर...ऑस्कर तो... :)

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  4. 'सिटी ऑफ़ जोय' भी कलकत्ते पर बनायी गयी थी, जिसके निर्माता, निर्देशक सब विदेशी थे, उसमे नायक विदेशी था, चूंकी कहानी लिखी ही वैसे गयी थी | slumdog में निर्माता, निर्देशक, पटकथा लेखक, आदि सब विदेशी | चूंकी भारतीय गरीबी अधिक बिकती है, इसलिए सब भारत में दिखाया गया, वरना अमरीकी ग़रीबों पर भी फ़िल्म बनाती है | यह फ़िल्म भारतीय इसलिए नहीं है क्योंकि इसकी रिलीज़ भी भारत में पहले हुई ही नहीं | क्या माइक्रोसॉफ्ट में २०-३०% भारतीय काम करते हैं तो वह भारतीय कम्पनी हो गयी ?

    वैसे, मुझे किसी की खुशी से कोई समस्या नहीं, बस लोग सही कारण से तो खुश हों !

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  5. कितना भारतीय, कितना भारतीय नहीं, इससे ऊपर उठकर यह सोचें कि क्या आस्कर जैसे किसी पुरस्कार को पा लेने से ही सब कुछ बदल जाता है या सारा कुछ प्राप्त कर लिया जाता है .

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