Feb 11, 2009
दम हो तो ले ले!
सरकार ने सूचना का अधिकार दे दिया है । बड़ी खुशी की बात मानी जा रही है । लोकतंत्र और पारदर्शिता का भविष्य उज्ज्वल दिखाई दे रहा है । पर हमारे अनुसार तो सूचना का अधिकार इस देश में हमेशा से ही रहा है । राजा, नवाब, अँगरेज़ बहादुर, ठाकुर, ठिकानेदार, ज़मींदार, जागीरदार किसी को भी बुलाकर कुछ भी सूचना प्राप्त करने का अधिकार रखते थे । कुछ पारदर्शिता-प्रेमी मौखिक सूचना से संतुष्ट न होने पर कपड़े उतरवाने का अधिकार भी रखते थे जिसकी एक झलक कभी-कभी जातीय पंचायतों और पुलिस के कुछ निजी फैसलों में दिखाई दे जाती है । सांस्कृतिक लोग यह काम किसी कमज़ोर महिला को 'चुडैल' घोषित करके भी कर लेते हैं । फिल्मवाले और वित्त मंत्रालयवाले भी यह काम अपनी-अपनी शैली में कर ही रहे हैं ।
गाँव में बुजुर्ग लोग होते थे जो अपनी लाठी पर ठुड्डी टिकाकर रास्ते में खड़े हो जाते थे और किसी से भी पूछ सकते थे- कहाँ से आए हो, कौन जात हो, बाप का नाम क्या है, किसके यहाँ जा रहे हो ? पत्नी को पति की एक-एक साँस की सूचना प्राप्त करने का अधिकार हमेशा से रहा है । सो सूचना का अधिकार कोई नई बात नहीं है । पर इतना कहा जा सकता है कि पहलेवाला अधिकार पचास प्रतिशत ही था क्योंकि सूचना देनेवाला पलट कर सूचना माँग नहीं सकता था ।
अब जो सूचना का अधिकार मिला है उसमें नया क्या है जिसके लिए इतना अपने मुँह मियाँ मिट्ठू बना जा रहा है । हो सकता है कि आजतक जो सूचना देने के लिए अभिशप्त था, वह सूचना माँग भी सके । हमें तो खैर सदा ही सूचना मिलती रही है । किसी भी आफिस में जाते थे, बाबू से पूछते थे कि फलाँ सज्जन कहाँ हैं तो तत्काल सूचना मिल जाती थी कि चाय पीने गए हैं । चाय पीने में कितना समय लगेगा ? पता नहीं । यदि साहब के बारे में पूछते तो तत्काल उत्तर मिलता- मीटिंग में गए हैं । मीटिंग कब तक चलेगी ? पता नहीं । ईश्वर जानें । पर अब इस अधिकार से हमारी हिम्मत बढ़ गयी है । सोचते हैं कि हम अब कोई भी सूचना प्राप्त कर सकेंगे । किसी भी दफ्तर में जायेंगे तो बाबू तत्काल हड़बड़ाकर सीट से उठ खड़ा होगा जैसे पुलिस को देख कर निरपराध और आयकर वाले को देखकर ईमानदार करदाता । बिना चूँ-चपड़ किए सारे प्रश्नों के उत्तर दे देगा ।
हम तो इससे आगे भी उत्तर पाने की सोच रहे हैं । अब हम लालू जी से पूछ सकेंगे कि जो मुर्गी एक दिन में आठ सौ रुपये का दाना खाती है उसके एक अंडे की कीमत क्या है ? ऐसे अण्डों को किसने खरीदा ? जिस स्कूटर पर बैठकर भैंस हरियाणा से पटना गई वह स्कूटर कितने हार्सपावर का था ? राबड़ी देवी से पूछ सकेंगे कि जिस भैंस का दूध बेचकर आप बच्चों को मेयो कालेज में पढ़वा रही हैं वह भैंस किस नस्ल की है और कितना दूध देती है ? सीताराम केसरी तो खैर राम को प्यारे हो गए वरना उन से भी पूछते कि चौदह सौ रुपये में दो कुत्तों के खाने और स्वयं के कपड़ों की धुलाई का खर्चा कैसे चलता था ? खाना तो नेता लोग खैर खाते ही नहीं सो क्या पूछना । अमरीका से पूछ सकेंगे कि वह कोकाकोला और पेप्सी में कितना कीटनाशक मिलाता है ? मुशर्रफ़ से पूछ सकेंगे कि लादेन कहाँ है ? गठबंधन की सरकारें चलानेवालों से पूछ सकेंगे कि एम.एल.ए. और एम.पी. का असली रेट क्या है ? हालाँकि अपने कोई लिवाली नहीं है ।
अमिताभ बच्चन से पूछ सकेंगे कि नवरत्न तेल से पहले वे अपना तनाव कैसे दूर करते थे ? सचिन से पूछ सकेंगे कि 'बूस्ट' के आविष्कार से पहले वह शक्ति कैसे प्राप्त करता था ?
अब सूचना के अधिकार से सम्बंधित दो किस्से सुनिए । एक पुलिसवाले ने मेले में एक दुकानदार की गठरी पर डंडा गड़ाते हुए पूछा- इसमें क्या है ? दुकानदार बोला- हवलदार साहब ऐसे ही एक बार और पूछ लीजिये फिर कुछ भी नहीं है इसमें । गठरी में चूडियाँ थीं । दूसरा किस्सा है १९८५ में दिल्ली में आतंकवाद के दिनों में पंजाब से आने वाली एक वैन को रोककर पुलिसवाले ने पूछताछ की, तभी पीछे मरीज़ बनकर लेटी मूर्ति ने उसके हाथ में बंदूक की नली थमा दी । सिपाही को सूचना मिल गई और वह संतुष्ट हो गया और बोला- ठीक है जाओ ।
सूचना का अधिकार लेने और देने वाले की शक्ति पर निर्भर करता है । हो सकता है कि हम जिससे सूचना माँगें वह कह दे कि जिसने सूचना का अधिकार दिया है उसीसे ले-ले सूचना । तब क्या करेंगे ?
(जब मई २००५ में सूचना का अधिकार स्वीकृत हुआ था तब जो शंका ज़ाहिर की गई थी वह अब सत्य हो रही है जब नेता,जज आदि अपनी दाढ़ी के तिनके छुपाने के लिए इस अधिकार की हत्या करने पर तुले हुए हैं ।)
९ फ़रवरी २००९
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(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी । प्रकाशित या प्रकाशनाधीन ।
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Jhootha Sach
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