Feb 1, 2009

मतलब की ममता - गाय का भी नाम होना चाहिए !


भारत, जिसने अध्यात्म, चिंतन और मानवीय संबंधों और संवेदनाओं के क्षेत्र में लंबे अध्ययन के बाद बहुत से सूक्ष्म सत्य ज्ञात किए हैं और जो जगह-जगह हमारे ग्रंथों में बिखरे पड़े हैं, आज उन्हीं के बारे में पश्चिम में हुए छोटे-छोटे अध्ययन और तथाकथित सर्वे के समाचार अंग्रेजी के अखबारों में छपने पर उनको पढ़कर हम आश्चर्य-चकित हो जाते हैं । यदि हम अपने साहित्य और प्राचीन ग्रंथों को थोड़ा सा भी पलटें तो पायेंगें कि ये वे ही बातें हैं जिन्हें हमने पिछड़ापन और अंधविश्वास मानकर हिकारत से भुला दिया था ।

अभी टाइम्स आफ इंडिया में एक सर्वे का समाचार छपा था कि यदि गायों को उनके नाम से पुकारा जाए, उनको परिवार के एक सदस्य के रूप में माना जाए, उनसे बातें की जाए तो वे अधिक दूध देती हैं । अब वह व्यक्ति जो गाय को केवल दूध के लिए ही पालता है, उसको खाना खिलाते समय खाने और उससे मिलने वाले दूध की कीमत का गणित सोचता रहता है तो उस व्यक्ति का गाय के प्रति सम्बन्ध बनाने या उसको प्रेम करने का भाव भी शुद्ध नहीं होगा और इसीलिए फलदायी भी नहीं होगा । आज गाय पालनेवाला गाय को तब तक ही रखता है जब तक उससे लाभ मिलता है । उसके बाद गाय को कसाई को बेचने में उसको कोई कष्ट नहीं होता । तो ऐसे में इन सूक्ष्म भावों का कोई अर्थ नहीं है । आज मुर्गी पालन, सूअर पालन आदि को फार्मिंग का नाम दिया गया है । मतलब कि वे पेड़-पौधों की खेती की तरह की ही कोई खेती हैं । विज्ञान के हिसाब से दोनों ही जीवित हैं पर क्या एक फल या सब्जी की तरह सहज भाव से हम एक सूअर या मुर्गी को काट सकते हैं ? क्या उनका बहता खून और उनका तड़पना हमें सामान्य रहने देता है ? यहाँ मैं एक सामान्य आदमी की बात कर रहा हूँ । किसी पक्के कसाई की नहीं । आज योरप और अमरीका में बाज़ार से डिब्बाबंद माँस लाकर खानेवालों को जानवरों की पीड़ा का अनुमान नहीं हो सकता । वे अन्य सामान्य सब्जी या अनाजों की तरह उन्हें खाते हैं । उन लोगों को बूचडखानों में कटते जानवरों की पीड़ा और दुर्दशा को देखने का अवसर मिले तो अधिकतर लोग माँस खाना छोड़ देंगे (इस लिंक पर कसाईखाने की सच्चाई है, देखनेवाले सावधान रहें !) । बाज़ार ने खेत और रसोई के बीच इतनी दूरी पैदा करदी है कि उसे 'मैड काऊ' का माँस खिलाया जा सकता है, दूध में सरलता से मेलेनिन पिलाया जा सकता है ।

भारत में तो पशु-पक्षी ही नहीं बल्कि पेड़-पौधों के प्रति भी संवेदनाएँ थीं । भारत के ही एक वैज्ञानिक जगदीश चंद्र बसु ने अपने प्रयोगों द्वारा सिद्ध किया कि पेड़-पौधों में भी जीवन ही नहीं बल्कि अन्य विकसित जीवों की तरह संवेदनाएँ होती हैं । उनसे भी हजारों साल पहले से ही बैठी गाय को अकारण उसकी मर्जी के खिलाफ उठाना या हरे पेड़ को काटना भी इस देश में पाप माना जाता था । शाम के बाद तुलसी के पत्ते नहीं तोड़े जाते । मानते हैं कि रात को तुलसी सो रही होती है । रविवार को भी तुलसी के पत्ते नहीं तोड़े जाते । हो सकता है कि उसको एक दिन का विश्राम देने का भाव हो । शाम को तुलसी के नीचे दिया जलाने का विधान है । मन्दिर जाने पर तुलसी और पीपल में तथा रास्ते में पड़ने वाले पेड़ों में भी पानी डालने को पुण्य का काम समझा जाता है । समस्त सृष्टि- पशु-पक्षी, पेड़-पौधे आदि सब मानव का परिवार होता था । पुराने लोगों को मनुष्य ही नहीं बल्कि पशु-पक्षियों और पेड़-पौधों से भी बातें करते सुनना आज के साठ-पैंसठ बरस के, ग्रामीण पृष्ठ भूमि वाले लोगों के लिए नई बात नहीं है । राजस्थान के जोधपुर जिले में बिश्नोई समाज की सौ डेढ़ सौ वर्ष पुरानी एक घटना है । वहाँ एक पेड़ पाया जाता है - खेजड़ी । यह उनके लिए एक बहु उपयोगी पेड़ है । वे उसे सूख जाने के बाद ही काटते हैं । राजा ने अपने महल के लिए लकड़ी की ज़रूरत होने पर नौकरों को खेज़डी काटने के लिए भेज दिया । गाँव वालों ने विरोध किया । वे खेजड़ी के पेड़ों से लिपट गए । और राजा के कारिंदे इतने निर्दय कि उन्होंने सैकड़ों लोगों को काट डाला । पर लोगों ने खेजड़ी को नहीं काटने दिया । इस भाव से ही हम मानवेतर, जीवित जगत से सच्चे रूपमें जुड़ सकते हैं । तभी हमारी सृष्टि वास्तव में सम्पूर्ण होगी अन्यथा तो उसे सिकोड़ते-सिकोड़ते तो हम केवल अपने तक सीमित करते ही जा रहे हैं और दुखी और अकेले होते जा रहे हैं ।

आज तथाकथित विकसित देश मोटापे की समस्या से जूझ रहे हैं । वे माँस के बिना भोजन की कल्पना ही नहीं कर सकते । उनके हिसाब से माँस के अलावा प्रोटीन कहाँ से मिल सकता है ? जब कि करोड़ों लोग दालों से प्रोटीन प्राप्त कर रहे हैं । जितना अनाज सूअरों को खिला कर फिर उन सूअरों को खाया जाता है उतने अन्न में तो उससे चार गुना लोगों का पेट भर सकता है और वे अन्न खाने के कारण मोटापे से भी बचे रहेंगे । लोगों का तो भला हो जाएगा पर माँस के बाज़ार का क्या होगा ? और बाज़ार इतना मूर्ख नहीं है कि उपभोक्ता को ऐसा सच समझने दे ।

क्या हमने भारत की इतनी पुरानी सभ्यता और संस्कृति से कुछ भी न सीखने की कसम खा ली है ? दुनिया योरप और अमरीका से भी बहुत पुरानी है । अपनी परम्परा को समझे बिना उसे छोड़ना और बिना सोचे समझे दूसरों की नक़ल करने प्रवृत्ति पर अपनी पुस्तक 'कर्ज़े के ठाठ "से एक कुण्डलिया छंद प्रस्तुत है -
सड़कों पर लगने लगी मल्टीनेशनल सेल ।
यह घर फूँकू खेल है जी चाहे तो खेल ।
जी चाहे तो खेल, याद रखना पर बन्दे ।
बंद तेरे उद्योग, चलेंगे उनके धंधे ।
कह जोशीकविराय दाल अच्छी है घर की ।
क्या गारंटी सड़ी न हो मुर्गी बाहर की ।


यह तो वही हुआ कि 'उल्टे बाँस बरेली को' अर्थात् 'नानी के आगे ननिहाल की बातें'

२९ जनवरी २००९

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Jhootha Sach

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