
इंदिरा जी नूई जी,
हम आपके फस्ट और लास्ट नाम दोनों के बाद 'जी' लगा रहे हैं क्योंकि अगर फस्ट नाम ही लिखें और उसके बाद जी लगा दें तो वह इंदिरा गांधी का भ्रम देने लग जायेगा । वैसे 'जी' का क्या है । भगवान ने जी तो सब को एक ही दिया है पर पता नहीं क्यों कुछ तथाकथित महात्मा अपने नाम से पहले श्री-श्री एक सौ आठ लगाते हैं जब इससे भी संतोष नहीं हुआ तो श्री-श्री एक हज़ार आठ हो गए । पता नहीं यह 'जी' की दौड़ कहाँ तक पहुँचेगी । हमें तो अपना एक जी ही बचाना मुश्किल हो रहा है ।
खैर, तो आपको नए वर्ष की शुभकामनाएँ । वैसे हमारे शुभकामनाएँ दिए बिना भी आपका तो हर वर्ष ही क्या, हर दिन, हर मिनट शुभ ही शुभ है । होना भी चाहिए, दुनिया की सबसे ज्यादा ठंडा बेचने वाली कम्पनी की आप सर्वेसर्वा हैं । जैसा कि अखबारों से पता चला है कि आपकी एक दिन की तनख्वाह कोई आठ लाख रुपये है । वैसे हमारी गणित बहुत कमजोर है यदि दो चार हज़ार इधर उधर हो जाएँ तो क्या फरक पड़ता है । हम कौनसे इनकम टेक्स वाले हैं ।
आपके एक दिन की तनख्वाह आठ लाख रुपये है । भगवान करे आठ लाख क्या, आठ करोड़ हो जाये । जब आप कम्पनी को फ़ायदा करवाए ही जा रही हैं तो कम्पनी को क्या फ़रक पड़ता है । दुधारू गाय को महँगा बंटा खिलाने में क्या घाटा है अगर दस का बंटा खिलाने पर वह एक हज़ार का दूध देती हो । हम तो यही सोचते हैं कि आप इतने पैसे का हिसाब कैसे लगाती होंगीं । हमसे तो अपने कुछ हज़ार मासिक का हिसाब ही नहीं लगा । हमेशा सौ-पचास रुपये इनकम टेक्स के अधिक ही जमा करवा देते थे और आप जानती हैं कि सरकार के पास गया रूपया लौटता थोड़े ही है, सरकार भले ही एक पैसा कम जमा हो जाये तो भारी ब्याज समेत पेट में से निकाल लेती है ।
खैर, तो हम आपकी तनख्वाह की बात कर रहे थे । आम आदमी के लिए यही सबसे बड़ा सुख और मनोरंजन है कि बड़ों की बातें करके खुश हो जाता है । अमिताभ बच्चन एक फिल्म का क्या लेते हैं, मुकेश अम्बानी के दस हज़ार करोड़ के बँगले में ईंटें सोने की लगेंगी या चाँदी की, शिल्पा शेट्टी का घाघरा कितने का बना होगा, धोनी का एक रन कितने का बैठता है आदि-आदि । कल्पना का आनंद असीमित है । सच, जितना आनंद भोगने में है उससे ज्यादा आनंद उसकी कल्पना और चर्चा में है और यह आनंद हमीं क्या अधिकतर संसार ले रहा है । यही तो बादशाह के महल का वह दीया है जिसकी गरमी से यह माघ-पूस की रात कट रही है ।
तो आपकी एक दिन की तनख्वाह फिलहाल आठ लाख रुपये है । हमें चालीस साल की मास्टरी के रिटायरमेंट के बाद चार लाख रुपये मिले थे । हमें रातों नींद नहीं आती थी कि इतने रुपये का क्या करेंगे । हमने इतने रुपये एक साथ कभी देखे ही नहीं थे । ये तो खैर बैंक में जमा हो गए वरना हमें नक़द दे दिए जाते तो हम से तो गिने भी नहीं जाते । हमें आपकी इतनी तनख्वाह से कोई ईर्ष्या नहीं हैं । जब आप पेप्सी वालों की एक रुपये की सामग्री दस रुपये में बिकवा रही हैं तो उसके बाप का क्या जाता है आपको साल के बावन करोड़ रुपये देने में । हम तो कहते हैं कि वे आपको कम दे रहे हैं ।

लोग कहते हैं कि इन ठंडों में कीड़े मारने की दवाएँ मिली होती हैं । भारत ही नहीं अमरीका के भी कई वैज्ञानिक और विचारक इन ठंडों से बचने को कहते हैं । अमरीका के कई स्कूलों में कैंटीनों में तो कोकाकोला रखा ही नहीं जाता । रामदेव जी तो इसे टॉयलेट क्लीनर कहते हैं । कर्नाटक के तो एक किसान ने अपने खेत में कोका कोला को कीटनाशक के रूप में प्रयोग किया और इसे प्रभावकारी और किफ़ायती भी पाया । पर हमें तो इन ठंडों की एक बात सबसे अच्छी लगती है, जैसे- 'जो चाहो हो जाये, एन्जॉय कोकाकोला' और पेप्सी- 'ज़ोर का झटका, धीरे से लगे ।' सारी समस्या झटकों की ही तो है । सच, यदि पेप्सी नहीं होती तो भारत के लिए इतने झटकों को झेलना कैसे संभव होता । अब देखिये न, मेल्ट डाउन और रिसेशन में सारा अमरीका हिल गया पर भारत का कुछ नहीं बिगड़ा । दाल तीस से एक सौ हो गई पर कहीं एक पत्ता भी हिला क्या । संसद और मुम्बई में हमले हो गए पर हम इन झटकों को झेल गए कि नहीं ।
हम पर न तो स्वदेशी का भूत सवार है और न ही किसी महात्मा के उपदेश का असर । हम तो परंपरागत कंजूस भारतीय हैं । हम स्वास्थ्य की परवाह किये बिना पी ही क्या, पेप्सी से कपड़े धो सकते हैं, नहा सकते हैं पर समस्या है तो बस पैसे की । पैसे की इस कमी और कंजूसी को हम, स्वदेशी और अन्य आदर्शों की बातों से, छिपाते हैं । पेप्सी की एक बोतल की कीमत सुनकर हम तो यह हिसाब लगाते है कि दस या बारह रुपये में आधा लीटर दूध लाकर उसे जमा कर थोड़ा सा घी निकाल कर, बची हुई छाछ से कढ़ी बना कर, दाल का विकल्प तलाश कर महँगाई से लड़ सकते हैं और दो पैसे बचा सकते हैं । हम पेप्सी या कोकाकोला अपने पैसे से नहीं खरीदते पर यदि मुफ़्त में मिले तो हमें पीने से कोई ऐतराज नहीं है ।
हुआ यूँ कि एक बार हम अपने पोते के साथ कहीं घूमने गए । पोते ने काफ़ी आग्रह किया तो हमने उसे पेप्सी दिला दी । बच्चा पूरी पेप्सी पी नहीं पाया ।आधी बची पेप्सी समेत जब वह बोतल दुकानदार को लौटाने लगा तो हमसे यह नुकसान सहा न गया । हमें कोई प्यास नहीं थी । पर चूँकि पैसे लगे थे सो हमने वह पेप्सी पी ही ली ।

हमारा तो अब भारत सरकार से यही निवेदन है कि कनाडा से जानवरों के खाने की दाल मँगाकर लोगों को खिला कर देश की इज्जत का कचरा करने की क्या ज़रूरत है ? और, जब-तब पेप्सी की बोतल पिलवा दिया करो, ऐसी डकार आयेगी कि बस । अब जब बाज़ार और व्यापार दोनों मुक्त हो गए हैं तो झटकों से देश को कौन बचा सकता है । यही बहुत है कि ज़ोर का झटका धीरे से लगे ।
इस सन्दर्भ में हम टैगोर की एक पंक्ति का हिंदी अनुवाद लिख रहे हैं-
टालें अनेक विपदा यह माँगता नहीं मैं
दृढ़ शक्ति भर दो मुझमें, सहना मुझे सिखा दो ।
१-१-२०१०
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(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी । प्रकाशित या प्रकाशनाधीन ।
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Jhootha Sach
ati uttam
ReplyDeleteapaki post buhat pasan aai.
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