Jan 24, 2010
तोताराम के तर्क और कहाँ है महँगाई ?
छब्बीस जनवरी को ठीक आठ बजे जनपथ पथ पर राष्ट्रपति झंडा फहराते हैं और परेड की सलामी लेते हैं । आज तोताराम थोड़ा ज़ल्दी आ गया था सो दोनों चाय पीते हुए टी.वी. देख रहे थे कि तभी ठीक आठ बजे दरवाज़े पर दस्तक हुई । जैसे ही हम दोनों ने दरवाज़ा खोला तो एक भव्य आकृति को देखा । हमने ऐसी शोभा, वैभव और ऐसी रूप-माधुरी कभी नहीं देखी थी । बेहोश होते-होते बचे । 'तब तक होश सलामत जब तक जलता तूर नहीं है' । वही हालत हो गई जो शबरी की भगवान राम को देखकर हो गई थी । शबरी को तो पता था कि राम आयेंगे सो रास्ता बुहार रही थी, उनके लिए मीठे-मीठे बेर इकट्ठे करके रख रही थी । पर हमें तो यह भी पता नहीं कि मन को मोहनेवाला यह कौन है ?
क्या करें, कहाँ बिठाएँ । अब समझ में आया कि विदुर की पत्नी ने जब भगवान कृष्ण को केले के छिलके खिला दिए थे तब उसकी क्या मनःस्थिति हो रही होगी । हमारी मनःस्थिति का आनंद लेते हुए उस छलिये ने मुस्कराकर कहा- हे राष्ट्र निर्माता! श्री रमेश जोशी तुम क्यों इतने विह्वल हो रहे हो ? हम भी तुम में से ही एक हैं । आओ, धूप में पड़ी इस चारपाई पर ही बैठते हैं, हम तीनों । इतने प्यार से आजतक हमें किसी ने भी नहीं पुकारा था । हालाँकि सरकार पाँच सितम्बर को अध्यापक दिवस को कुछ इसी तरह की बात किया करती थी पर अब तो उसने वह झूठा-सच्चा प्यार दिखाना भी बंद कर दिया है । लगा, यही वह क्षण है जब आदमी को मर जाने का मन करता है । ऐसे ही किसी क्षण में नायिका कहती है - 'तेरी बाँहों में मर जाएँ हम' ।
जब थोड़ा सा साँस आया, मन की भावाकुलता कुछ कम हुई तो हमने साहस करके कहा- हे देव, आपका परिचय जानने की अभिलाषा है । वे बोले- हम लोकतंत्र हैं । वैसे तो हम भगवान बुद्ध के समय में भी लिच्छवी और वैशाली में थे पर अब आधुनिक काल में भारत में हम पिछले साठ साल से हैं । हमें विश्वास ही नहीं हुआ कि साठ साल की उम्र में भी कोई इतना सुन्दर और जवान हो सकता है । हमारी हड्डियाँ तो चालीस साल की उम्र में ही हरि कीर्तन करने लग गई थीं ।चेहरे पर झुर्रियाँ पड़ने लग गई थीं । हम दोनों ने खाट से उठकर उन्हें प्रणाम किया । हम दोनों कितने भाग्यशाली हैं कि अपने घर में साक्षात् लोकतंत्र के दर्शन कर रहे हैं । हमने कहा- भगवान, आपके पधारने का कारण बताएँ और आदेश करें कि हम आपकी क्या सेवा कर सकते हैं ?
वे थोड़ा-सा हँसकर बोले- कुछ विशेष नहीं । हमने सुना था कि कुछ दिन पहले आप अपने घर के आगे महँगाई का पुतला जला रहे थे और तोताराम जी महँगाई के खिलाफ़ जुलूस में भाग लेने के लिए गए थे ।
हम दोनों में काटो तो खून नहीं । इन्हें कैसे पता लग गया । हकलाते से बोले- नहीं हुज़ूर, वो तो ठण्ड लग रही थी सो कुछ पोलीथिन इकट्ठी करके वैसे ही जला ली थी । और यह तोताराम किसी के कहने पर वैसे ही चला गया था । वरना हम किसी पार्टी पोलिटिक्स में भाग ही नहीं लेते । जो भी पेंशन सरकार देती है उसी में संतोष करके जो कुछ मिलता है उसे आपका प्रसाद समझ कर ग्रहण करके सो जाते हैं । वे बोले- हमें आप पर पूरा भरोसा है । वैसे सभी को लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है । फिर भी थोड़ा समझ कर चलना चाहिए । पहले भी जब हमने 'गुड-फील' करवाया था तो लोगों ने रोनी सूरत ही बनाये रखी । और अब जब भारत-निर्माण कर रहे हैं तो लोग हैं कि बिना बात के चूँ-चूँ करते रहते हैं । पर आप तो राष्ट्र-निर्माता हैं सो अच्छी तरह से समझ सकते हैं कि राष्ट्र निर्माण कितना मुश्किल काम है । इधर से निर्माण करो तो उधर से धँसक जाता है । पता नहीं यह राष्ट्र कैसा है । हमने अमरीका, ब्रिटेन, फ़्रांस जाने किस-किस का निर्माण कर दिया पर यह पता नहीं कैसा राष्ट्र है कि पकड़ में ही नहीं आता ।
हम चाहते हैं कि आपके मन में महँगाई को लेकर जो गलत धारणा बन गई है उसको दूर करें । सो आप दोनों हमारे साथ चलें । हम आपको दिखाएँगे कि महँगाई कहीं है ही नहीं । लोग बिना बात देश और लोकतंत्र को बदनाम करने के लिए अफवाहें फैला रहे हैं । हम दोनों का इस ठण्ड में जाने का मन तो बिल्कुल भी नहीं था पर उनकी आँखों में देखा तो लगा कि यदि हमने ज़रा भी चूँ-चपड़ की तो यह हमें उसी तरह घसीट कर ले जायेगा जैसे फिल्मों में डाकू किसी को घोड़े के पीछे बाँध कर ले जाते हैं । हम चुपचाप उसके पीछे चल पड़े । अब हम उस पर मुग्ध नहीं थे बल्कि डरे हुए थे ।
सबसे पहले वह दारू की एक दुकान के आगे रुका जहाँ ड्राई-डे के बावज़ूद शराब बिक रही थी । दुकान का दरवाज़ा पूरा नहीं खुला था । बस एक फुट गुणा एक फुट की एक छोटी सी खिड़की खुली थी जिसमें से बेचने वाले की शक्ल भी नहीं दिखती थी । बस लोग पैसे अंदर घुसाते और वह बोतल बाहर कर देता । कोई भी न मोल-भाव कर रहा था और न ही छुट्टे पैसों की झिक-झिक । बहुत शांत भाव से क्रय-विक्रय हो रहा था । एक दम अनुशासन और सद्भाव का वातावरण था ।
फिर थोड़ा आगे चले और एक बहुत बड़ी दुकान में घुस गए । लोकतंत्र ने बताया कि इसे मॉल कहते हैं । यहाँ भी कोई मोल-भाव नहीं करता । लोग छोटी-छोटी सी पहिये लगी टोकरियों में सामान डाल रहे थे और दरवाज़े के पास लगे बिजली के तराजू पर सामान रखते जाते थे । वहाँ खड़ा कर्मचारी बटन दबाता और सामान फटाफट तुल जाता और एक रत्ती के वज़न का भी हिसाब लग कर बिल आ जाता । लोग एक कार्ड सा कुछ मशीन में घुसाते और भुगतान भी हो जाता । दुकान का नौकर सामान को उठाकर गाड़ी में रखता और काम खत्म । कितना सरल है सामान खरीदना और बेचना । कहीं महँगाई जैसी समस्या का नाम ही नहीं । सभी मुस्कराते हुए और तनावमुक्त ।
इसी दुकान में एक स्थान पर सिनेमा दिखाया जा रहा था । कोई एक सौ रुपये का टिकट था । लोग टिकट के साथ कुछ खाने के लिए भी अपने हाथों में लिए थे और हँसते-बतियाते हुए अंदर जा रहे थे । हमें भी उन्हें देखकर भूख लग आई थी । पर न तो जेब में इतने पैसे थे और न ही लोकतंत्र के सामने बोलने की हिम्मत हो रही थी । बोलने की सोचते ही उसकी ठहरी हुई दृष्टि का ख्याल आ जाता था ।
हमने डरते-डरते कहा- हुज़ूर, अब हमें विश्वास हो गया है कि कहीं महँगाई नहीं है और जो लोग ऐसी बातें करते हैं वे अज्ञानी या दुष्ट हैं । अब हम कभी भी ऐसी गलत बात नहीं करेंगे ।
लोकतंत्र जी बोले- आप जैसे समझदार नागरिकों के बल पर ही तो लोकतंत्र सफल है । वैसे आप जानते हैं कि लोकतंत्र में सभी को अपने विचार व्यक्त करने की स्वतंत्रता है ।
हम दोनों ऐसे भागे कि बस घर आकर ही दम लिया । पत्नी ने पूछा- ऐसे घबराये हुए क्यों हो तुम दोनों ? दम क्यों फूल रहा है ? हमने कहा- कुछ नहीं बस, कार्यक्रम में मिठाई बँटी थी । लोगों ने आग्रह करके कुछ ज़्यादा ही दे दी । हम दोनों ने सारी वहीं खाली । बस चाय की तलब लगी थी सो ज़ल्दी-ज़ल्दी चल कर आ रहे हैं । अब चाय पिला दो तो मिठाई नीचे उतरे और सामान्य हों ।
पत्नी ने कहा- बात तो कुछ और ही है । बताओ या न बताओ यह तुम्हारी मर्जी ।
अब उसे क्या बताते कि लोकतंत्र से मुलाकात करके आ रहे हैं ।
२३-१-२०१०
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(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी । प्रकाशित या प्रकाशनाधीन ।
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Jhootha Sach
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