Jan 25, 2010

अन्न-ब्रह्म


सोनिया जी,
आपने भी राष्ट्रपति और प्रधान मंत्री की तरह देश को सुख, समृद्धि के लिए शुभकामनाएँ दी होंगीं । भगवान करे, आपकी शुभकामनाएँ फलित हों । फिलहाल तो हालत ख़राब है । पेंशन से काम नहीं चल रहा है । महँगाई बहुत बढ़ गई है । दाल और दूध में पानी की मात्रा बढ़ाकर महँगाई पर काबू पाने की कोशिश कर रहे हैं । वैसे हमारा सड़सठ साल का अनुभव तो यही बताता है कि यह ऐसी महामारी है जिसका कोई इलाज़ नहीं निकला है । फिर भी आपकी शुभकामनाओं के सफल होने का इंतजार एक वर्ष तो करना है ही । इसके बाद सोचेंगे कि इस धराधाम पर रहें कि संथारा (जैनियों का उपवास करके प्राणत्याग करना) करके ऊपर चले जाएँ । वैसे तो हम हास्य व्यंग लिखते हैं पर आपको सही बता रहे हैं कि आपसे हम कोई मजाक नहीं कर रहे हैं क्योंकि आप भी गंभीर बातें ही करती हैं । कभी मजाक नहीं करतीं ।

अर्थशास्त्री कहते हैं कि महँगाई एक ग्लोबल फिनोमिना है । हमें सभी ग्लोबल फिनोमिना से बड़ा डर लगता है । पहले अडवानी जी कहा करते थे कि भ्रष्टाचार एक ग्लोबल फिनोमिना है, आजकल लोग कहते हैं कि आतंकवाद एक ग्लोबल फिनोमिना है । कल को लोग कहने लग जायेंगे कि चोरी-डाका, छेड़छाड़, मिलावट, घूसखोरी आदि भी ग्लोबल फिनोमिना है । आखिर इन ग्लोबल फिनोमिनों से कब पीछा छूटेगा ? संसार त्याग भी तो एक ग्लोबल, नेचुरल फिनोमिना है तो लोगों को आत्महत्या के लिए भी सरकार को सुविधा जुटानी चाहिए । पर हो सकता है कि कल को सरकारी कर्मचारी आत्महत्या की परमीशन देने में भी रिश्वत माँगने लग जायेंगे ।

टेक्स बढ़ाने, पेट्रोल के दाम बढ़ाने, पोस्टल रेट बढ़ाने, रेल के टिकट के पैसे बढ़ाने के काम तो आधी रात से सोते-सोते ही हो जाते हैं और अगली सुबह से लागू भी हो जाते हैं । पिछले वर्ष घोषणा की गई थी कि जिन अभिभावकों की वार्षिक आय साढ़े चार लाख वार्षिक से कम हैं उनके बच्चों को व्यावसायिक कालेजों में पढ़ने के लिए छात्रवृत्ति दी जायेगी और उस पर ब्याज लगाना तब शुरु होगा जब बच्चा कमाने लग जायेगा । हमने तो इसी भरोसे बेटी को दाँतों की डाक्टरी में प्रवेश दिलवा दिया और अब पाँच महीने बीत गए हैं और बैंकों के पास कोई आदेश ही नहीं आये हैं । इस भले काम में इतनी देर क्यों हो रही है । क्या देरी इन्हीं कामों के लिए है ?

खैर, क्षमा कीजिएगा । बात कहाँ से कहाँ पहुँच गई । पत्र तो हमने कुछ और ही बात बताने के लिए लिखना शुरु किया था । सो अब उसी बात पर आते हैं । भारतीय शास्त्रों में अन्न को ब्रह्म कहा गया है । आप सोच रही होंगी कि ब्रह्म तो बहुत ऊँची चीज है । इसे अन्न जैसी छोटी चीज से क्यों जोड़ा जा रहा है । वास्तव में अन्न का महत्व भूखे को ही समझ में आता है । भरे पेट वाला तो अन्न से खेलता है । एक कवि हुए हैं धूमिल । उन्होंने लिखा है -
'एक आदमी रोटी बनाता है,
दूसरा आदमी रोटी खाता है,
और तीसरा आदमी रोटी से खेलता है ।
यह तीसरा आदमी कौन है ?
इस बारे में मेरे देश की संसद मौन है ।'

हम चाहते हैं कि आप इन तीनों के बारे में सोचें और जो करणीय हो वह करें । भूख बहुत बुरी चीज होती है । हद से ज्यादा गुजर जाने पर यह, लोकतंत्र से संविधान तक, कुछ भी खा जाती है । ब्रह्म से साक्षात्कार के बाद ही जीवन का असली आनंद शुरु होता है । तभी ऋषियों ने अन्न को ब्रह्म कहा है । भूख का इलाज़ यही 'अन्न-ब्रह्म' है । रोटी इसी 'अन्न-ब्रह्म' का मानव निर्मित भौतिक विग्रह है । इसी लिए कृषि को सर्वश्रेष्ठ पेशा कहा गया है । किसान इसीलिए अन्नदाता का दर्ज़ा पाता है । यूँ तो अन्न धरती से उपजता है, वर्षा उसमें रस भरती है, सूरज भगवान उसको पालते हैं पर उस में किसान का पसीना भी मिला होता है । किसान ही सारे जग का पालनहार है । सारे दिन में मात्र दो बार नाम लेने पर भी किसान को भगवान ने अपना सबसे बड़ा भक्त माना ।

हमारे पिताजी कभी जूठा नहीं छोड़ते थे । हमारे नानाजी खाना खाने के बाद थाली को धोकर पी लेते थे । हो सकता है कि आज के धनवान इसे कंजूसी मानें और वित्त मंत्री विकास में बाधक मानें । पर पूर्वज इस अन्न का महत्व समझते थे । बचपन में हम पढ़ा करते थे कि अमरीका में अन्न के भाव गिर जाने के डर से अन्न को जला दिया जाता है या उसे समुद्र में डुबो दिया जाता है । कितना बड़ा पाप है ? क्या भगवान ने, धरती ने, किसान ने अन्न इस लिए उपजाया था कि उसे व्यापार के चक्कर में जला दिया जाये । अन्न की सार्थकता तो इसमें है कि कोई भूखा उसे खाए, तृप्त हो, उसकी जान की रक्षा हो ।

दक्षिण भारत में एक संत हुए हैं- तिरुवल्लुवर । जात से जुलाहे थे । अपनी मेहनत की खाते थे । इसलिए मेहनत का मूल्य भी समझते थे । रोज कपड़ा बनाते और बाज़ार में बेचकर उससे मिले पैसे से अपना जीवनयापन करते थे । एक बार वे बाज़ार में कपड़ा बेचने गए । किसी राजा का बिगड़ा हुआ सपूत आया और उसने कपड़े का भाव पूछा । फिर कहा आधा फाड़ दो । इसके बाद कहा- इतना नहीं चाहिए । इसका आधा दे दो । इस तरह करते-करते उसने सारे कपड़े को फड़वा दिया । संत शांत भाव से फाड़ते रहे । अंत में उसने कहा - 'मुझे कपड़ा पसंद नहीं आया । चलो, तुम इसके पैसे ले लो ।' संत ने पैसे लेने से माना कर दिया और कहा- 'मैंने यह कपड़ा इसलिए बनाया था कि कोई इसे पहने । अपना तन ढके, सर्दी, गरमी से बचे । जब इसका कोई उपयोग ही नहीं हुआ तो पैसे का क्या करूँ ।'

बिगड़ा रईसज़ादा चला गया पर रात भर सो न सका । दूसरे दिन आकर संत के चरणों में गिर गया । कहानी का मतलब आपको समझ आ गया होगा । बस समझिये कि हमने भी यह कहानी आपको यह बताने के लिए कही है कि अन्न भी किसान इसीलिए उगाता है कि आदमी की भूख मिटे । आप सोच रही होंगी कि यह कहानी हमने किसी और को क्यों नहीं बताई । बात यह है कि और किसी को इन बातों के लिए फुर्सत ही नहीं है और न ही उनमें कुछ करने की शक्ति । और हो सकता है कि वे अपने निजी स्वार्थों के चलते कुछ करना ही न चाहें ।

बात यह है कि ११ दिसंबर २००९ को हमने एक समाचार पढ़ा है कि महाराष्ट्र में ज्वार, बाजरे और मक्का से बीयर बनाने की कुछ फेक्टरियों को लाइसेंस दिए गए हैं जहाँ के कृषि मंत्री शरद पवार है । लाइसेंस पाने वालों में सभी पार्टियों के जनसेवक और उनके रिश्तेदार हैं- विलासराव देशमुख, गोपीनाथ मुंडे, गोविन्द राव आदिक, लातूर के विधायक अमित और धीरज देशमुख, बी.जे.पी. विधायक पंकज पालवे, विमल मूंदड़ा । मज़े की बात यह भी है कि इन्हें सब्सिडी भी दी गई है- प्रति बोतल दस रुपये ।

क्या देश में इतना अनाज हो गया कि लोगों से खाया नहीं जा रहा है, किसानों का अनाज बिक नहीं रहा है या देश में अन्न की अब कोई ज़रूरत नहीं रह गई है । अब भी देश में करोड़ों लोग भूख और कुपोषण से पीड़ित हैं । यह मोटा अनाज गरीब के लिए पोषण की बहुत सी ज़रूरतें पूरी करता है । वैज्ञानिक मानते हैं कि मोटा अनाज गेहूँ और चावल से ज्यादा पौष्टिक होता है । अमरीका में मक्का से डीजल बनाया जाता है पर हम उन्हें कुछ नहीं कह सकते पर हमें अपने यहाँ तो यह सोचना है कि मानव की ज़िंदगी और भूख से ज्यादा ज़रूरी बीयर और डीजल हैं क्या ? आप क्या सोचती हैं ? हमें पूरा विश्वास है कि आप इतनी निर्दय और हृदयहीन नहीं हो सकतीं कि भारत में अन्न से बीयर बनाए जाने के इस मानवद्रोही और राष्ट्रद्रोही कदम का समर्थन करें । हमें तो लगता है कि आपको किसी ने इसके बारे में खबर भी नहीं दी होगी ।

आपने बहुत से अवसरों पर समझदारी के कदम उठाये हैं और गलत दिशा में जाती राजनीति को रोका है । अब भी कुछ कीजिए । सच कहते हैं कि हमसे तो इस समाचार को पढ़ने के बाद ढंग से रोटी भी नहीं खाई जा रही है । सच, इसके बाद तो हम अपनी महँगाई का रोना भी भूल गए हैं ।

हाँ मजाक में कहें तो- किसी भी तरह से महँगाई से उत्पन्न निराशा ख़त्म नहीं हो रही है । हो सकता है कि बीयर के नशे में आदमी कुछ देर के लिए उसे भूल जाये । पर नशा उतरने के बाद ?

१०-१-१०

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(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी । प्रकाशित या प्रकाशनाधीन ।
Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication.
Jhootha Sach

1 comment:

  1. joshi ji ,aapki paati shaayad hi janpath vaalon ke haath aaye,phir bhi likhte rahiye kabhi to yah paati rang dikhayegi !

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