Jun 19, 2019

दीपं तले अन्धकारम्



दीपं तले अन्धकारम्

  • पहले एक संस्था हुआ करती थी- योजना आयोग अर्थात प्लानिंग कमीशन |पता नहीं, वह कैसे काम करती थी लेकिन उसके नाम में कमीशन होने के कारण किसी न किसी रूप में कमीशन की संभावना बनी रहती थी |चूँकि अब सरकारें कुछ ज्यादा ही 'नैतिक' हो गई हैं इसलिए सब काम 'नीति' के तहत ही किए जाते हैं चाहे कमीशन खाना ही क्यों न हो ? कमीशन शब्द तो 'पालिसी कमीशन' में भी आता है | सरकार इस नाम की अंग्रेजी सामने लाने में पता नहीं क्यों शरमाती है |शायद इसलिए कि पोलिसी-कमीशन में 'कमीशन' तो है ही ऊपर से 'पालिसी' में पुलिस वाली दुर्गन्ध अलग आती है |
  •  
  • इस नीति आयोग के अंतर्गत एक विभाग है जिसका पूरा नाम 'डिपार्टमेंट ऑफ इन्वेस्टमेंट ऐंड पब्लिक ऐसेट मैनेजमेंट' |इसे मोदी जी की 'भाषाई दिव्यता' में 'दीपम' कहा जाता है |कभी सरकारें योजना बद्ध तरीके से कारखाने बनवाती थी लेकिन अब यह विभाग योजनाबद्ध तरीके से सरकारी कारखानों को कमीशन खाकर निजी लोगों को बेचता है |इसमें बड़ा घपला होता है फिर चाहे वह किसी भी शासन में सरकारी कारखानों को निजी क्षेत्र को बेचने का हो |चाहे सिंदरी का कारखाना किसी अग्रवाल को बेचने का हो या फिर किसी बाल्को कारखाने को किसी स्टरलाईट को बेचने का हो |

आज जैसे ही तोताराम आया हमने पूछा- यह कैसी नीति है भाई ?

बोला- यह वैसा ही प्रश्न है जैसा 'शोले' में ए.के. हंगल पूछते हैं- इतना सन्नाटा क्यों है भाई ?

हमने कहा- हम गंभीर बात कर रहे हैं | यह सरकार की क्या नीति है कि सौ रुपए में कोई कारखाना लगवाओ और फिर उसे खुद ही बरबाद करके निजी  क्षेत्र को औने-पौने दामों में बेच दो जैसे अब पचासों कुछ बहुत महँगी लम्बी-चौड़ी ज़मीन वाले और अच्छे भले चलते कारखाने निजी क्षेत्र को बेचे जाने वाले  हैं |

बोला- पहले तो तू अपना नीति-शास्त्र देख जो कहता है- दीए तले अँधेरा होता है |सो यह सरकार का दीपम विभाग है इसलिए इसके नाम के अनुरूप ऊपर-ऊपर प्रकाश फैलता रहेगा और उसने नीचे-नीचे अँधेरे में काले कारनामे होते रहेंगे |और फिर जो काम करना ही है उसमें बिना बात अनावश्यक देर करने से क्या फायदा ?और फिर पहले भी तो सरकारी कारखाने बिकते ही रहे हैं |अभी यह हाय तौबा क्यों ?

हमने कहा- लेकिन थोड़ा-बहुत सोच-विचार तो कर लें | इतनी भी क्या जल्दी है ?

बोला- जल्दी कैसे नहीं है ? जो काम सत्तर साल में नहीं हुआ वह चार साल में करने के लिए कम से कम इतनी स्पीड तो चाहिए ही | तभी तो १९९१ से २०१४ तक उदारीकरण के पहले २३ साल में  ३.६३ लाख करोड़ के सरकारी कारखाने बेचे गए जबकि २०१४ से २०१९ तक केवल चार साल में २.१ लाख करोड़ के सरकारी कारखाने बेचने का कम तय हो चुका |

हमने कहा- अभी तो मंत्रियों का अपने-अपने मंत्रालयों में स्वागत-कार्यक्रम ही चल रहा है | यह निर्णय कब हुआ ?

बोला- वह तो फरवरी २०१९ में ही ले लिया था | वेल इन अडवांस |

हमने कहा- इस पर एक किस्सा सुन | एक चूड़ीवाला मेले में चूड़ियाँ बेचने गया | वहाँ एक पुलिस वाले ने डंडे का ठोका मारकर पूछा- इसमें क्या है ? चूड़ीवाला बोला- ऐसे ही एक बार और पूछ ले फिर कुछ ना है इसमें |
सो एक बार फिर आजाने दे पगलाए विकास को फिर कुछ भी ना बचेगा बेचने के लिए |




पोस्ट पसंद आई तो मित्र बनिए (क्लिक करें)


(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी । प्रकाशित या प्रकाशनाधीन । Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication. Jhootha Sach

No comments:

Post a Comment