प्रतीकात्मक चाय
आज तोताराम पर बड़ी खुन्नस आ रही थी. हम तो उसे अपने मन की छोटी से छोटी बात भी बता देते हैं लेकिन वह 'मन की बात' करने का नाटक तो करता है लेकिन वास्तव में है बहुत घुन्ना. असली बात कभी नहीं बताता. जैसे मोदी जी आम खाने के तरीके से लेकर मोरिंगा के परांठे के गुणों जैसे रहस्यमय विषयों तक के बारे में खुली चर्चा कर लेंगे लेकिन यह किसी को नहीं बताएँगे कि नोटबंदी और लॉकडाउन कब करेंगे. गैस के दाम कब, कितने, क्यों बढायेंगे. गैस सब्सीडी क्यों बंद कर दी ?
हुआ यह कि आज तोताराम समय पर नहीं आया. चाय हमने अकेले ही पी. मन नहीं माना तो फोन किया. फोन उसके पोते बंटी ने उठाया. बोला- दादाजी तो कुम्भ-स्नान के लिए जा चुके.
अगर किसी लेखक की मौत आती है तो वह पत्रिका निकालता है. बुढ़ापा बिगड़ना होता है तो आदमी के दिमाग में प्रौढावस्था में शादी करने का आइडिया आता है. किसी छोटी पार्टी का अस्तित्व मिटने का शुभारम्भ होना होता है तो वह रामविलास पासवान या नीतीश कुमार की तरह भाजपा से गठबंधन करता है. वैसे ही आजकल अगर किसी श्रद्धालु की मौत आती है तो वह कुम्भ के मेले की ओर भागता है. कई महंतों और अंध श्रद्धालु गए तो थे पाप धोने और धो बैठे जान से हाथ. लोकतंत्र की रक्षा के लिए अपनी ओर से अंध भक्तों की जान खतरे में डालकर भी रैलियाँ करने को मज़बूर प्रधानमंत्री मोदी जी तक ने अखाड़े के महंत जी के माध्यम से कुम्भ को प्रतीकात्मक रखने की प्रार्थना कर दी. चाहते तो नोटबंदी की तरह चार घंटे के नोटिस पर आदेश दे सकते थे लेकिन बिना बात क्यों हिन्दू वोट बैंक को दुष्प्रभावित किया जाए.जैसे प्रज्ञा ठाकुर के गोडसे को देशभक्त बताकर गाँधी की हत्या को जायज़ ठहराने वाले बयान पर दिल से माफ़ न करने और अनुराग ठाकुर 'सालों को गोली मारने के बयान पर मोदी जी ने चुप रहना ही उचित समझा.
हमें तोताराम की चिंता तो हुई लेकिन क्या कर सकते थे. हमारे सीकर से अपने मृत परिजनों की भस्म हरिद्वार ले जाने वालों के लिए नियमित रूप से एक सीधी बस चलती है. सो अब तक पहुँच तो गया होगा लेकिन यदि उमा भारती द्वारा कुम्भ की विधिवत घोषणा को गलत बताने के बावजूद मेला समाप्त हो गया होगा तो बेचारे का जाना व्यर्थ हो जाएगा.
खैर, हम चाय पीकर अन्दर आकर अखबार देख ही रहे थे कि तोताराम एक छोटी की नई मटकी लिए कमरे में दाखिल हुआ और दूब से हमारे मुंह पर छींटे मारते हुए उलटे-सीधे मन्त्र बड़बड़ाने लगा- कुम्भं समर्पयामि, स्नानं समर्पयामि, कोरोना भगायामि, राष्ट्रं रक्षयामि.
हमने कहा- यह क्या पेट के लिए भगवा पहनने वाले लंठ साधुओं की तरह गलत-सलत संस्कृत बोल रहा है.
बोला- जहां चाहे विसर्ग, हलंत म, न लगा दो, हो गई संस्कृत. जहां चाहे नुक्ता लगा दो हो गई उर्दू, अरबी, फारसी. बिना बात भारत माता की जय या गोली मारो सालों को बोल दो तो गई देशभक्ति. बिना किसी प्रसंग-सन्दर्भ के 'जैश्रीराम' चिल्ला दो हो गए राम की तरह मर्यादा-पुरुष और सच्चे हिन्दू.
हमने पूछा- लेकिन तू इतनी जल्दी आ कैसे गया ? लगता है कोरोना कर्फ्यू के चक्कर में निगेटिक प्रमाणपत्र के अभाव में या मास्क न लगाने के नाम पर सौ-दो सौ रुपए झटककर तुझे भगा दिया गया है अन्यथा इस समय तो तुझे हरिद्वार में होना चाहिए था.
बोल- हरिद्वार गया ही कौन था.
हमने कहा- बंटी ने तो यही कहा था कि दादाजी कुम्भ स्नान के लिए गए हुए हैं.
बोला- क्या गलत कहा ? मैं तो इस कुम्भ के जल से प्रतीकात्मक 'कुम्भ-स्नान' करने के लिए बाथरूम गया था.
हमने कहा- स्नान तो स्नान होता है. 'प्रतीकात्मक स्नान' क्या होता है ? प्रतीकात्मकता से तो देवताओं और भोली जनता को मूर्ख बनाया जाता है. जैसे कोई चरखा चलाकर गाँधी दिखना चाहे या दाढ़ी बढाकर रबीन्द्रनाथ ठाकुर.
बोला- मोदी जी ने कल कुम्भ मेले को समाप्त करके प्रतीकात्मक कुम्भ-स्नान के बारे में जो संकेत दिया था, यह वही है.
हमने कहा- उन्होंने इस प्रतीकात्मक स्नान की कोई विधि तो नहीं बताई.
बोला- तू ब्राह्मण है, भारतीय है फिर भी प्रतीकात्मकता नहीं समझता. प्रतीकात्मकता का मतलब है करना-धरना कुछ नहीं. बस, सस्ते में नाटक करके निबटा देना. जैसे आजकल मृतात्मा के नाम से गौदान का मतलब है- एक गाय प्रतीकात्मक रूप से दस मिनट के लिए लाते हैं, परिजन गाय की पूंछ पकड़ते हैं, पंडित जी को सौ-पचास रुपए दक्षिणा के दे देते हैं. बस, हो गया गौदान. गौभक्त गौपाष्टमी को अपनी या पड़ोसी की गाय को हलवा खिला देते हैं. हो गई गौसेवा. उसके बाद गाय ३६४ दिन गलियों में धक्के खाए. चुनावी गणित के अनुसार यदि राहुल किसी दलित के घर खाना खाएं, यदि योगी जी सरकारी अधिकारियों द्वारा बिछाए गए कारपेट पर चल कर, कुछ देर के लिए उस पीड़ित के घर पर कुछ देर के लिए लगाये गए सोफों पर बैठकर उससे बात करते हुए फोटो खिंचवा लें, यदि अमित शाह वोट के लिए चुनाव के दिनों में अपने निजी स्टाफ द्वारा साथ लाया गया खाना किसी बाउल गायक के साथ बैठकर खाते हुए फोटो खिंचा लें, मोदी जी कुम्भ मेले के पांच सफाई कर्मचारियों के पैर धोते हुए दिखें, बाग्लादेश में मातुआ समुदाय के मंदिर में नामशूद्रों के गुरु की मूर्ति को पंखा झल दें, किसी मुसलमान को अपने कान के पास तक मुंह ले आने दें, किसी एम्बुलेंस दादा करीमुल हक को हग करें तो यह सब प्रतीकात्मक हीता है. कोरोना वारियर्स को समय पर वेतन और सेफ्टी किट न देकर उन पर हेलिकोप्टर से 'पुष्प-वर्षा' करना भी तो प्रतीकात्मकता ही है. मतलब फोटो खिंची, काम निकला. खेल ख़त्म, पैसा हजम.
हमने तोताराम के हाथ में कप सौंपते हुए कहा- ले चाय पी.
बोला- लेकिन यह तो खाली है. चाय कहाँ है?
हमने कहा- यह प्रतीकात्मक चाय है.
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(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी । प्रकाशित या प्रकाशनाधीन । Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication. Jhootha Sach
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