Sep 14, 2021

उछाल की रेजगारी लूटने वाली रुदालियाँ

उछाल की रेजगारी लूटने वाली रुदालियाँ  


आज सुबह तोताराम नहीं आया.

किसी के आने न आने से क्या फर्क पड़ता है ? किसके बिना दुनिया रुकती है ? लोग कहते हैं- फलाँ साहब का कोई विकल्प नहीं है. या जैसे कभी कहा जाता था- आफ्टर नेहरू हू ? और अब देखिये कि नेहरू की कमी किसी को  नहीं खल रही है बल्कि अब तो यह सिद्ध किया जा रहा है कि इस देश का सत्यानाश करने वाले नेहरू न हुए होते तो भारत अब तक विश्वगुरु, नंबर वन, सबसे ताकतवर देश और यहाँ तक कि दुनिया का बाप बन चुका होता.  

वैसे अगर तोताराम आ भी जाता तो क्या करते ? वही फेंकुओं की फालतू लफ्फाजियों का कीचड़ उलटते-पलटते. हाँ, कल जो बैरंग लिफाफे का हादसा हमारे साथ हुआ उसके बारे में ज़रूर एक खीज थी. खैर, जब तोताराम आएगा तब सही.

कोई दस बजे तोताराम हाज़िर हुआ. धुला हुआ कुरता-पायजामा गले में राष्ट्रवादियों जैसा देशभक्तीय गमछा जिसमें हरा और भगवा रंग शांति के सफ़ेद रंग को दोनों तरफ से इस प्रकार दबा रहे थे जैसे हमारे स्वतंत्रता दिवस की ख़ुशी को अटल-निधन-दिवस और विभाजन विभीषिका स्मृति दिवस ने घेर लिया है.  दोनों तरफ रोना. ऐसे में स्वाधीनता दिवस का क्या मज़ा.

तोताराम चलता हुआ ही बोला- चल, हिंदी पखवाड़े का निमंत्रण है. एक गमछा, मोमेंटो और चाय-नाश्ता पक्का.

हमने कहा- तीन साल पहले हमें चौधरी बंसीलाल विश्वविद्यालय, भिवानी में बुलाया गया था. लौटते समय एक फॉर्म भरवा लिया, बैंक खाते का नंबर ले लिया. मानदेय और यात्रा भत्ता मिलाकर पाँच हजार रुपए भिजवाने की बात थी. वे पाँच हजार आज तक नहीं आये हैं. इसलिए हम कहीं नहीं जाते.

बोला- वैसे तो आजकल लोग फ्री में वेबीनार पर पिले पड़े हैं. एक सज्जन तो ३१ अगस्त से १४ सितम्बर तक का अखंड कविता पाठ का पखवाड़ा आयोजित करके वर्ल्ड रिकार्ड बनाने पर तुले हुए हैं. हो सकता वे कल को कवियों को 'आमरण काव्य पाठ' के लिए आमंत्रित करने लग जाएँ. सुनाने के लालच में कोई कवी तो फँस सकता है लेकिन  कोई श्रोता कभी ऐसा जोखिम नहीं उठाएगा.

एक हिंदी सेवी सज्जन ने अपने फेसबुक सर्कल में सरकार की शर्मिंदगी की समस्या फ्लोट कर रखी है. उनका मानना है कि सरकारी कार्यालयों में आयोजित हिंदी पखवाड़े में एक कार्यक्रम में भाषण झाड़ने के मात्र दो हजार रुपए दिए जाते हैं. वैसे उन्हें व्यक्तिगत रूप से तो कोई ऐतराज़ नहीं है.शायद मोदी जी की तरह मन से फकीर हैं. बस, वे तो इस कम मानदेय देने के कारण भारत सरकार की होने वाली बेइज्ज़ती से दुखी हैं.

वैसे तेरा क्या रेट है ?

हमने कहा- रेट तो भांडों और रंडियों के होते हैं. फिर चाहे वह दो हजार का हो या दो लाख का. महान चीजें तो हवा, धूप, बारिश की तरह अमूल्य होती हैं. वैसे पैसा लेकर भाषण झाड़ने वाले इन वक्ताओं के पास काम की कोई चीज नहीं है. अरे, यदि हिंदी और राष्ट्रभाषा आदि की समस्या का तुम्हारे पास कोई हल है तो एक मुश्त जितने रुपए लेने हैं वे ले लिवाकर झंझट ख़त्म करो. दे दो अपना रामबाण नुस्खा लिखकर भारत सरकार को. हर साल श्राद्ध पक्ष से पहले १४ सितम्बर को आने वाले हिंदी के इस पितर-पूजन पर हिंदी की श्रेष्ठता के गुणगान और साथ ही उसकी दुर्दशा का रोना रोने यह सालाना कार्यक्रम तो ख़त्म हो. 

भारत के अतिरिक्त किसी देश में राष्ट्रभाषा के लिए ऐसी किराए की रुदालियाँ नहीं देखी-सुनी होंगी. वैसे भी पार्टियों को भाषा, संवाद और संवेदना से क्या मतलब. उन्हें तो जैसे भी हो सिंहासन चाहिए. 'समरयात्रा' कहानी में उस समय के अंग्रेजों की गुलामी की जूठन खाने वालों के लिए प्रेमचंद की नोहरी कहती है- रांड तो मांड में ही खुश. सो ये सांस्कृतिक रुदालियाँ शव यात्रा में उछाली गई रेजगारी लूटने में ही धन्य हो रही है. सरकारों के लिए भाषा और संस्कृति की सेवा का इससे सस्ता सौदा और क्या होगा ?  


  



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(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी । प्रकाशित या प्रकाशनाधीन । Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication. Jhootha Sach

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