Jun 20, 2022

भाई साहब, बज गया


भाई साहब, बज गया 


हमारे अनुमान से कुछ पहले ही दरवाजे पर तोताराम का गर्वपूर्ण, हर्ष विगलित और आनंद से गदगद स्वर गूंजने लगा- भाई साहब, बधाई हो, बज गया. 

दरवाजा खोलने के लिए चलते हुए ही हमने उत्तर दिया- तुझे अब सुना है ? यह तो पिछले पांच-सात बरसों से बजता ही आ रहा है. अब तो इसकी तुमुल ध्वनि ने यह हाल कर दिया है कि इसके अलावा और कुछ सुनाई ही नहीं दे रहा है. 

दरवाजे के अन्दर घुसते हुए तोताराम ने कहा- मैं पिछले सात-आठ साल से विश्व में भारत के जयघोष के बारे में बात नहीं कर रहा हूँ. वह तो कोई नई बात रह ही नहीं गई है. दुनिया चमत्कृत है भारत की सर्वतोमुखी प्रतिभा से. पिछले दिनों तो जिस शान से जापान के क्वाड सम्मेलन में मोदी जी के रूप में भारत ने विश्व गुरु बनकर सबकी अगुआई की उसके बाद तो कोई संदेह रह ही नहीं जाता. 

हमने कहा- कोरोना और सरकार की नीतियों के कारण अर्थव्यवस्था, रोजगार, शिक्षा, चिकित्सा और सप्म्प्रदायिक सद्भाव का बाजा भी बज ही रहा है. 

बोला- कभी कुछ अच्छा भी देख लिया कर. हर समय नकारात्मक समाचारों पर ही निगाह गड़ाए रहता है. 

हमने पूछा- तो बताता क्यों नहीं कि आज किसका बाजा बजने का शुभ समाचार लाया है ?

बोला- बाजा नहीं, डंका बज गया. 

हमने कहा- बजने का क्या है, बजते ही रहते हैं. किसी कमजोर और भले आदमी के सिर पर जूता बजता रहता है,  अधिकतर मेहनत-मजदूरी करने वालों के बारह बजे हुए हैं. गैस का सिलेंडर हजार से ऊपर हो गया. आटा तीस-पैंतीस और दूध पचास रुपए. सरकार का खजाना और जी एस टी की वसूली बढ़ रही है, मंदिरों और मूर्तियों का बजट बढ़ रहा है. रैलियाँ और शोभायात्राएं भव्य होती जा रही हैं.  सरकारों का अभिमान और मनमानी ठोस हो रहे हैं और जनता की हालत पतली. 

बोला- मेरा इन सामान्य बातों से कोई लेना देना नहीं है. मैं तो शुद्ध सांस्कृतिक और गौरववर्द्धक समाचार लाया हूँ. आज दुनिया में हिंदी का डंका बज गया है. 

हमने कहा- अब हिंदी का डंका दुनिया में ही बजेगा. देश में तो हिंदी का बैंड बज रहा है. कोई औकात ही नहीं रह गई है. उत्तर प्रदेश में दसवीं बारहवीं में सबसे ज्यादा बच्चे हिंदी में ही फेल हो रहे हैं. अंग्रेजी और मैथ्स से भी ज्यादा.

वैसे हिंदी के इस डंके का समाचार हमें कल ही मिल गया था. हमारे एक मित्र न्यूयार्क में रहते हैं. उनका घर संयुक्त राष्ट्र संघ के कार्यालय से बहुत दूर नहीं है. जैसे ही भारतीय राजदूत ने अंग्रेजी में यह सूचना दी- 'अब संयक्त राष्ट्र संघ में सभी सूचनाएं अनुवाद के माध्यम से हिंदी में भी उपलब्ध होंगी' तो उन्होंने वीडियो बनाकर हमें भेज दिया. 

बोला- तो तूने मुझे सूचना क्यों नहीं दी ?

हमने कहा- हमें तो इसमें कोई बहुत बड़ी उपलब्धि लगी नहीं जो तुझे रात को ही सूचना देते. 

बोला- यह क्या कोई छोटी उपलब्धि है. जो साठ साल में नहीं हुआ वह आठ साल में कर दिखाया. यदि तू कहे तो कल ही 'साठ साल बनाम आठ साल : एक उपलब्धि यात्रा' का आयोजन कर लिया जाए.

हमने कहा- ये नाटक उनके लिए छोड़ दे जिन्हें गर्व, आस्था और अस्मिता क धंधा करना है. हम तो तुझे हिंदी के इस डंके का सच बताना चाहते हैं. संयुक्त राष्ट्रसंघ का सब काम मूल रूप से इंग्लिश और फ्रेंच में होता है. जिन देशों जैसे रूस, चीन, स्पेन, जर्मनी, अरब आदि देशों ने अनुवाद का सारा खर्चा देकर अपनी-अपनी भाषाओं को 'संयुक्त राष्ट्रसंघ की अनुवाद के लिए मान्य भाषाओं की सूची' में डलवा रखा है. दक्षिण कोरिया ने भी शायद ऐसा ही कुछ किया था. अब भारत ने भी कुछ ले-देकर हिंदी को इस सूची में डलवाया है. इसके साथ ही उर्दू और बांग्ला को भी यह दर्ज़ा दिया गया है. यदि कोई पैसा खर्च करने वाला हो तो अपनी शेखावाटी की बोली तक को संयुक्त राष्ट्रसंघ में घुसाया जा सकता है.

बोला- इस उपलब्धि का मजाक उड़ाकर  क्या होगा. प्रतीकात्मकता का भी महत्त्व होता है. आज सूची में शामिल  हुई है, कल को लोग सीखने भी लगेंगे.

हमने कहा- जो भाषा काम की होगी उसे तो आदमी लाख पापड़ बेल कर भी सीखेगा. इसके बाद जो सहजता और प्रेम से पेश आती है उस भाषा को भी आपका प्यार मिलने लग जाता है. पहले प्रेमपूर्वक अपने देश के लोगों को तो उनकी मातृभाषा और फिर हिंदी से जोड़ो. 

आज भी मैकॉले को दोष देकर नहीं बचा जा सकता. आज भी क्यों बिना किसी सरकार और संस्थान के प्रयत्नों और प्रेरणा के लोग गाँव-गाँव में अंग्रेजी सीखने के लिए पिले पड़े हैं. 

समस्या का कारण जानो तो फिर निराकरण भी हो जाएगा.  


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(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी । प्रकाशित या प्रकाशनाधीन । Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication. Jhootha Sach

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