Jul 19, 2022

2022-07-16 दूर के ढोल

2022-07-16 


दूर के ढोल 



तोताराम ने कहा- मास्टर, किसी की प्रशंसा में भले ही अतिशयोक्ति कर दो क्योंकि हमारे मनीषियों ने कहा है-

वचने  किं दरिद्रता. लेकिन निंदा करने या कोई कमी उद्घाटित करने से पहले दस बार सोचना चाहिए. 


हमने कहा- बिलकुल सही बात है. हम कोई सत्ताधारी नेता थोड़े हैं जो बिना सोचे-समझे हर उसको जो उनकी पार्टी में नहीं है या उनसे सहमत नहीं या उनकी जै-जैकार नहीं करता है उसकी हर बात में गलती निकालें, उसकी निंदा करें. उसे तो उसे, उसकी पार्टी और मर खप चुके उसके परिवार वालों तक को मुंह भर-भरकर गालियां दें.


ऐसे निंदक नेताओं की देखादेखी तो आजकल के युवा भी, जिन्हें चारों दिशाओं तक का पता नहीं, नेहरू-गाँधी को गाली निकाल देते हैं. 


बोला- लेकिन ‘निंदक’ तो अच्छे होते हैं. कबीर ने तो कहा भी है कि निंदक को प्रधानमंत्री आवास योजना में मकान  देकर अपने निकट ही बसा लेना चाहिए. 


हमने कहा- कबीर जी की बात और थी. वे भले आदमी थे. अभिमानी नहीं थे.वे किसी की समीक्षा या समालोचना करने वाले को ही ‘निंदक’ कहते थे. गाँधी की तरह दूसरों और खुद से समझकर अपनी गलतियां निकालते-निकालते संत बन गए. ये संत नहीं; बहुत कुंठित, टुच्चे और छोटे लोग हैं. ये अपने पास चमचों के अलावा किसी और को नहीं रखते. और उन चमचों के लिए चार शब्दों को संसदीय माना जाता है- वाह, जय, धन्य और अद्भुत. इनके यहां कबीर वाले ‘निंदकों’ को ‘देशद्रोही’ कहा जाता है.    


फिर भी हमने बिना सोचे समझे किसकी निंदा कर दी. हम तो पॉलिटिक्स में भी नहीं हैं. हमें किसी की निंदा करके कौनसी अपनी इमेज बनाकर पद्मश्री या राज्यसभा की सदस्यता कबाड़नी है. .

 

बोला- हमने किसी शिल्पकार या नया अशोक स्तम्भ बनाने वाले कलाकार का मत जाने बिना ही उसमें मीन-मेख निकालना शुरू कर दिया. 


राष्ट्रीय चिह्न बनाने वाले कलाकार सुनील देवरे और रोमिइल मोसेज ने एनडीटीवी से कहा है कि इसके डिज़ाइन में कुछ भी बदलाव नहीं किया गया है.

 

देवरे ने कहा, ''हमने पूरे विवाद को देखा. शेर का किरदार एक जैसा ही है. संभव है कि कुछ अंतर हो. लोग अपनी-अपनी व्याख्या कर सकते हैं. यह एक बड़ी मूर्ति है और नीचे से देखने में अलग लग सकती है. संसद की नई इमारत की छत पर अशोक स्तंभ को 100 मीटर की दूरी से देखा जा सकता है. दूरी से देखने पर कुछ अंतर दिख सकता है.''


मूर्तिकार लक्ष्मण व्यास ने कहा है- मूल अशोक स्तम्भ ७ फीट का का है  और यह २१ फीट का इसलिए शेर आक्रामक दिखाई देते हैं. 


हमने कहा- मतलब कि किसी चीज को बड़ा या छोटा कर देने से या उसे दूर या निकट से देखने पर उसमें कोई अंतर आ जाता है.









बोला- हो सकता है. तभी तो कहा गया है- दूर के ढोल सुहावने, संस्कृत में भी कहा गया है- दूरतः पर्वताः रम्याः। 


जब जागरण और राष्ट्र गौरव के नाम पर ढोल किसी के घर के सामने बजने लगे तब पता चलता है. दूर-दूर से कभी कभार कान में पड़  जाए उसकी बात और है. इसी तरह कभी कभी बेयर ग्रिल के साथ पूरी व्यवस्था और तामझाम के साथ पिकनिक की जाए उसकी  बात और है और जब इलाज़ के लिए रोगी को खाट पर लिटाकर दस किलोमीटर ले जाना पड़े तब की बात और है. किसी उद्योगपति को विकास के नाम पर आदिवासियों के जीवन के आधार जंगल बेच देना और बात है और आदिवासियों के जीवन की कठिनाइयों और ईमानदारी को जीना और बात है. 


हमने कहा- अशोक स्तम्भ के निर्माण से संबंधित इन लोगों के अनुसार तो आकार में बड़े होने से ये शेर हिंस्र और क्रूर नज़र आने लगे हैं. 


बोला- घटिया लोगों की बात और है. वे थोड़े से पद और सम्मान से ही बात-बात में पायजामे से बाहर होने लगते हैं. कोई उनका फोटो भी कूड़े में फेंक दे तो वे उसे राष्ट्र का अपमान बताने लग जाते हैं.किसी सफाई कर्मचारी को नौकरी से निकाल देते हैं.  खुद को खुदा समझने लगते हैं. तभी रहीम जी ने कहा है- 


जो रहीम ओछो बढ़े तो अति ही इतरात  

प्यादे से फ़र्ज़ी भयो टेढ़ो-टेढ़ो जात। 


हमने कहा- संस्कृत में भी इस बात को अन्य दृष्टि से कहा गया है 


उदये सविता रक्तो रक्तश्चास्तमये तथा।

सम्पत्तौ च विपत्तौ च महतामेकरूपता।।

जिस प्रकार सूर्य उदय एवं अस्त होते समय रक्त वर्ण होता है, वैसे ही महापुरुष संपत्ति एवं विपत्ति में एक समान रहते हैं।इसलिए यदि आकार और स्थान बदलने से यह शिल्प अपना स्वरुप भिन्न-भिन्न दिखाता है तो या तो वह अपूर्ण है या कोई छल. 

 

बोला- और क्या ? गाँधी जी गोडसे की तरह अपने महत्त्व के लिए किसी पार्टी विशेष के सत्ता आने या न आने का इंतज़ार नहीं करते. हर हालत में गोडसे गोडसे और गाँधी गाँधी रहेंगे। किसी माननीय के ‘गोडसे देश भक्त थे, हैं और रहेंगे’, कहने से दुनिया को कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। चीनी किसी भी रूप-आकर में मीठी ही रहेगी और ज़हर किसी भी प्रसाद में लपेट कर दिए जाने पर भी ज़हर ही रहेगा. 

हमने कहा- तोताराम, हमें इस प्रसंग में एक कहानी याद आती है. किसी गुफा के द्वार पर एक शेर बैठा था. उसके पास एक पेड़ पर एक हंस आकर बैठ गया. हंस ने देखा कि दूर से एक ब्राह्मण चलता हुआ इधर ही आ रहा है. ब्राह्मण को  बचाने के लिए हंस ने शेर से कहा- आपने इतने लोगों को मारा है. यदि किसी गुरु से ज्ञान प्राप्त कर लो तो शायद आपके  पाप कुछ काम हो जाएँ. शेर ने कहा- लेकिन मुझे शिष्य बनाने के लिए कौन ब्राह्मण यहां आएगा ?

हंस ने कहा- एक ब्राह्मण इधर ही आ रहा है. तुम उसे खाना मत. उसे अपना गुरु बना लेना. 

शेर ने उसे नहीं खाया। अपना गुरु बना लिया और मारे गए मनुष्यों की वस्तुएं उसे दक्षिणा में दे दीं. भविष्य में मनुष्य को न खाने की शपथ भी ली. 

कुछ समय बाद दक्षिणा के लालच में ब्राह्मण फिर शेर की गुफा की तरफ चला आया. संयोग से उस दिन पेड़ पर एक कौआ बैठा था. ब्राह्मण को आता देखकर कौव्वे ने शेर से कहा- महाराज, आज तो एक मोटा-ताज़ा मनुष्य खुद ही इधर आ रहा है. आते ही झपट दबोच लें.  फिर तो मज़ा- ही मज़ा. 

शेर ने कहा- लेकिन मैंने तो अपने गुरु से मनुष्यों को न खाने की शपथ ले रखी है. 

कौव्वे ने कहा- राजा और शेर ऐसी-वैसी शपथों में नहीं बँधते। चुनाव जीतने के लिए जुमले फेंकना और बात है. 

जैसे ही वह व्यक्ति गुफा के निकट पहुंचा तो शेर ने देखा, यह तो मेरे गुरु हैं. 

शेर ने कहा- पंडित जी, फ़टाफ़ट निकल लें. शेर किसी का शिष्य और यजमान नहीं होता. आज मैं हंस की संगति में नहीं हूँ. आज उसकी जगह कौव्वा बैठा है. इसने मेरा दिमाग खराब कर दिया है. पंडित गिरता-पड़ता अपने घर की और भाग लिया।

 

तोताराम ने कहा- लगता है, वह शेर अभी तक पूरी तरह से संस्कारित नहीं हुआ था नहीं तो......... अब इन शेरों की भी एक बार प्राणप्रतिष्ठा हो जाने दे उसके बाद देखना.  




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(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी । प्रकाशित या प्रकाशनाधीन । Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication. Jhootha Sach

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