Jan 15, 2009
घर आई गंगा
पिछले छः महिने से बंगलोर में हूँ । गंगा के राष्ट्रीय नदी बनने पर लिखा था 'स्मृतियों में बहती गंगा' । सीकर (राजस्थान) से बेटे का फोन आया कि हृषिकेश से शीशी चढ़ाने वाला आया है । उसे क्या देना है ?
शीशी- मतलब गंगाजल से भरा एक पात्र जिसे शीशी चढ़ाने वाला हथेली पर रखकर गंगा के कुछ मंत्र बोलता है । हम लोग संभवतः पहाड़ से आकर राजस्थान में बसे हैं । राजस्थान में आने के बाद हो सकता पहाड़ पर जाना कम हो गया होगा । इस दूरी या कमी को पहाड़ से गंगाजल की शीशी लाने वाले ये लोग पूरी करते रहे हों । जब पहाड़ पर ठण्ड अधिक पड़ने लगती है तब ये लोग नीचे मैदानों में पहाड़ से बिछुडे लोगों तक शीशी के माध्यम से गंगा पहुँचाते रहे हैं । बचपन से इनको देखता रहा हूँ । नौकरी के सिलसिले में भारत के विभिन्न भागों में घूमते फिरने के कारण बच्चों का इनसे परिचय नहीं हुआ ।
कल मकर संक्रांति थी । वैसे ही गंगा और संगम स्नान के बारे में सोच रहा था । आज अचानक बेटे का फोन मिला तो अजीब सा अनुभव हुआ । क्या कोई टेलेपेथी है ? बेटे से उसके बारे में पूछा । बेटा बस इतना ही बता पाया कि पहले इसके पिता और उससे पहले इसके दादाजी आया करते थे । हो सकता है इस परिवार की चौथी पीढ़ी को भी मैं आते देखूँ । हृषिकेश से राजस्थान तक की यात्रा और वह भी इस ठण्ड में । कितने घरों में जा पाता होगा । कितना मिल जाता होगा इसे इस काम से ? फिर ख़ुद की सोच पर ही ग्लानि हुई । क्या यह मात्र पैसे के लिए आता है । मात्र पैसे के लिए इतनी अनिश्चित आमदनी वाला कार्य कोई करता है ? नहीं, इसके पीछे उसके मन में भी कुछ मानसिक, आध्यात्मिक और सांस्कृतिक लगाव है । ऐसे काम केवल पैसों के बल पर हो ही नहीं सकते । अजंता की गुफाएँ बनने वाले मात्र मज़दूर या कारीगर नहीं थे । वे कहीं न कहीं भगवान बुद्ध के भक्त भी थे । पैसे से ही यदि देश को जोड़ने का काम हो सकता तो सरकारें बड़ी-बड़ी योजनायें बनाती है पर उसकी बात तो किसी तक भी नहीं पहुँचती ।
सोचता हूँ कब तक चलेगा यह सब । बाज़ार कब तक बचा रहने देगा,कष्ट उठाकर भी किसी अलाभकारी पर आत्मिक काम को । यदि किसी दिन बाज़ार ने ले लिया यह सांस्कृतिक काम तो पहले पैसा जमा करवाएगा उसके बाद शीशी हाथ पर रखेगा । हो सकता है समय-समय पर दाम भी बढ़ा दे । क्या पता शीशी हृषिकेश से न लाकर यही कहीं नल का पानी ही हाथ पर रखकर चलता बने । अब भगवान के दर्शन भी तो इंटरनेट पर करवाए जाने लगे हैं तो यह शीशी भी पता नहीं कितने दिन चलेगी ।
मैनें बेटे से कहा था कि वह जितना माँगे उतना दे देना । शाम को बेटे का फोन आया । मैनें पूछा-उसने कितना कहा तो बेटे ने बताया कि उसने कुछ भी नहीं कहा । केवल इतना बोला कि आप जो कुछ ठीक समझें दे दें । मुझे लगा-उसके मन के पहाड़ की ऊँचाई शायद अब भी हम सबसे ज़्यादा है ।
ऐसे कामों को पैसों से नापा भी नहीं जा सकता । अब भी शायद कुछ अमूल्य बचा हुआ है ।
१५ जनवरी २००९
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(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी । प्रकाशित या प्रकाशनाधीन ।
Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication.
Jhootha Sach
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बहुत अच्छा लेख। बधाई
ReplyDeleteआँखें तर हो गयी पढ़ कर
ReplyDeleteबहुत बढिया सर जी!
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