Jan 31, 2009
फोटो लगाओ : फोटो उतारो
राजस्थान की मुख्य मंत्री वसुंधरा राजे के भूतपूर्व होते ही सरकार द्वारा स्कूलों में वितरित किए जानेवाले बस्तों पर से उनका फ़ोटो हटाने की कार्यवाही चालू हो गई है । फ़ोटो हटाने में थोड़ा समय तो लगेगा ही । तब तक बच्चे बस्ते का इंतजार करेंगे । पहले फ़ोटो छपवाने का खर्चा और अब फ़ोटो हटवाने का खर्चा । इसे कहते हैं अँधा न्योतो और दो बुलवाओ ।
सरकार की तरफ़ से जो भी कम होता है वह किसी व्यक्ति की तरफ से नहीं होता है इसलिए उसमें व्यक्ति शामिल नहीं होना चाहिए और न ही उसका फ़ोटो । पर हर नेता और हर सरकार जनता के ही पैसे से जनता को भीख देने का नाटक करते हैं और श्रेय ख़ुद लेना चाहते हैं । यदि सरकार की तरफ़ से कोई सहायता दी जा रही तो उस पर क्या इतना ही लिखना पर्याप्त नहीं है कि 'सरकार द्वारा भेंट' । इससे पहले अशोक गहलोत ने अपने कार्यकाल में एक नारा दिया था- 'पानी बचाओ, बिजली बचाओ, सबको पढ़ाओ' । इसमें क्या बुराई थी ? बस इतना ही था कि नीचे अशोक गहलोत का नाम था । सो २००४ के विधान सभा के चुनाव से पहले उन सब लिखे हुए नारों को मिटवाया गया । देखा जाए तो नारों और बस्तों पर फोटो में कानूनी कम और प्रभाव का फर्क ज़्यादा है ।
चुनाव से पहले सत्ता में होनेवाले सभी दल फटाफट शिलान्यास करके बड़े-बड़े बोर्ड लगवाते हैं । अखबारों में अपने फ़ोटो वाले विज्ञापन देते हैं । यह स्पष्ट रूप से सरकारी खर्चे से अपना प्रचार है । पता नहीं क्यों चुनाव आयोग का ध्यान इस तरफ़ नहीं जाता ? हो सकता है इसमें कोई कानूनी बारीकी और कोई पतली गली हो । चुनावों में हार के बाद कहा जाता है कि हम इसलिए हारे क्योंकि हम अपनी उपलब्धियों को जनता तक नहीं पहुँचा पाए । इनसे कोई पूछनेवाला हो कि भाई, यह कैसे हो सकता है कि आपने किसी को खाना खिलाया हो और उसको पता न लगा हो, जीभ पर चीनी रखी हो और उसको स्वाद न आया हो । कागजों में काम करके पैसा हज़म करनेवाली जनसेवा में ही ऐसा होता है ।
कोई मंत्री किसी कारखाने का शिलान्यास करता है तो उसके लिए सारे अख़बारों में लाखों रुपये के विज्ञापन देने का क्या अर्थ है ? जब अख़बार में अगले दिन समाचार आयेगा तो अपनेआप पता लग जाएगा या जब लोगों को काम मिलेगा, बढ़िया और सस्ता माल उपलब्ध होगा तो क्या पता नहीं लगेगा ? और तिस पर विज्ञापन में नेताओं के बड़े-बड़े फोटो, जैसे कि ये त्यागी पुरूष अपने पैसे से जनता की भलाई के लिए कारखाना लगा रहे हैं । अरे नाम ही देना है तो लगाने में कुछ नया, बढ़िया और किफायती काम कर दिखाने वाले इंजीनीयर का दीजिये ।
यदि पुराने समय को याद करें तो भारत में इतने कारखाने स्वतंत्रता प्राप्ति के तत्काल बाद बने पर ऐसे नाटक नहीं होते थे । नेहरूजी ने कई बार शिलान्यास मजदूर से भी करवाया था । एक बार जब उन्हें शिलान्यास के समय चाँदी की करणी दी गई तो उन्होंने अधिकारियों को डाँट दिया कि क्या मजदूर चाँदी के फावड़े से काम करेंगे ? पिलानी (राजस्थान ) में बिट्स में जब सरस्वती मन्दिर का उद्घाटन हुआ तो श्री घनश्याम दास बिरला ने कारीगरों को भी मंच पर सम्मानित किया ।
आज जिस तरह से बिना कुछ किए ही नेता लोग केवल सम्मान चाहते हैं उसका कारण वह कुंठा है जो कुछ काम न करने से पैदा होती हैं वरना काम करने वाले को विश्वास होता है कि उसने काम किया है तो उसका फल उसे ज़रूर प्राप्त होगा और सच्चा कर्मवीर तो काम करने में जो आनंद प्राप्त होता है उसी को अपना फल और पुरस्कार मान कर संतुष्ट हो जाता है । नेता लोग ज़रा-ज़रा सी बात पर रैली करते हैं लाखों करोड़ों रुपये खर्च करते हैं । बड़े-बड़े आयोजन किए जाते हैं जिनमें केवल भाषण ही होते हैं और भाषण भी केवल बकवास । ऐसे महान संदेशों या भाषणों को रेडियो या अखबार के द्वारा भी तो पहुँचाया जा सकता है । पैसे और समय की बचत होगी । पर पैसा अपनी जेब से लगे तब न दर्द हो । माल-ऐ-मुफ्त, दिल-ऐ-बेरहम ।
क्या ऐसा नहीं हो सकता कि विज्ञापन हो तो उसमें न तो किसी का फोटो हो और न नाम, बस पद की ही सूचना दे दी जाए कि प्रधान मंत्री उद्घाटन करेंगे या मुख्य मंत्री शिलान्यास करेंगी । वैसे क्या किसी नेता के द्वारा उद्घाटन या शिलान्यास न करने पर काम नहीं होगा या ज़ल्दी हो जाएगा ? क्या सूर्योदय या बरसात का उद्घाटन- समापन-समारोह होता है ? क्या आत्मप्रशंसा या अमरत्व की झूठी लालसा के बिना कुछ नहीं किया जा सकता ?
२७ जनवरी २००९
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(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी । प्रकाशित या प्रकाशनाधीन ।
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Jhootha Sach
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apne sach kaha ye kuchh na kar sakne ki kuntha hi hai kya karen ye hamari kamjori ka laabh uyhana khoob jaante hai bahut mahatavpooran vishay par likhne ke liye sadhuvaad
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