Jan 31, 2009

बीमार हो रहे हैं डाक्टर


यह एक गंभीर मामला है कि मरीजों का इलाज करनेवाले डाक्टर ख़ुद ही बीमार हो रहे हैं । क्या कारण है इसका ? एक विशेषज्ञ डाक्टर बनने के लिए बारहवीं कक्षा पास करने के बाद कम से कम बारह वर्ष और पढ़ाई करनी पड़ती है मतलब कि तीस बरस से पहले वह नौकरी करने के लायक नहीं हो पाता । अब यदि वह नौकरी शुरू करते ही शादी कर लेता है तो ठीक है वरना तो नौकरी करके जमने के बाद शादी करे तो और पाँच-चार साल चाहिए । शादी करने तक आधी से ज़्यादा उमर निकल जाती है । डाक्टरी की पढ़ाई में इतना पैसा और समय लग जाता है कि उसे शेष समय में उसे बहुत से काम करने की ज़ल्दी होती है । खर्चे पैसे को वापस वसूल करने और थोड़े से समय में ही जीवन के सुख प्राप्त करने की ज़ल्दी रहती है । इसके अतिरिक्त वह अपने से कम उम्रवालों को ज़ल्दी ही अधिक पैसे की अन्य नौकरी करते देखता है तो उसे और हीन-भावना आती है । वह अधिक से अधिक काम करता है । ऐसे में अपने, परिवार और बच्चों के लिए समय ही नहीं बचता । बड़ी तनावपूर्ण और विचित्र स्थिति हो जाती है ।

अधिक काम करने के कारण विभिन्न शारीरिक तकलीफें हो जाती हैं जैसे- रात की शिफ्ट, आई.सी.यू. में काम, केंसर और मनोरोगियों को देखते रहने से स्वयं भी तनाव, चिंता और हताशा के शिकार हो जाते हैं । शल्य चिकित्सक और हड्डी-रोग विशेषज्ञ कमर-दर्द से पीड़ित हो जाते हैं । दाँतों के डाक्टर रीढ़ की हड्डी की समस्या से परेशान पाए जा रहे हैं । एक प्रसिद्ध अस्पताल के हृदयरोग-विशेषज्ञ दिन में पॉँच-छः आपरेशन करते हैं उनकी हालत यह है कि उन्हें अपने मरीजों के नाम और इलाज का इतिहास तक याद नहीं रहता । यह स्वाभाविक है पर इसका प्रभाव उसकी कार्यक्षमता पर पड़ता है जिसका परिणाम मरीज को भुगतना पड़ता है । इसकी परिणति कभी-कभी तो आत्महत्या तक में होती है । इस कारण से कई देशों में इसके लिए कोई नीति बनाने की आवश्यकता महसूस की जा रही है जिसके तहत बीमार डाक्टरों को राहत पहुँचाई जा सके ।

इस समस्या के दो पहलू हैं- एक तो यह कि डाक्टर अपनी तुलना पैसे वालों से न करें । कोई पैसे से ही श्रेष्ठ नहीं हो जाता । यदि व्यक्ति को अपने काम से आराम से रहने लायक मिल जाता है तो फिर उसे अपने शरीर और दिमाग को इतना नहीं थकाना चाहिए कि वह न तो ढंग से इलाज कर सके और न ढंग से जी सके । डाक्टर का लक्ष्य धनवान बनना नहीं है बल्कि सेवा से आत्म संतोष प्राप्त करना है । और आराम से जीने लायक धन भी मिल ही जाता है । यदि अम्बानी का समाज में महत्त्व है तो डाक्टर का उससे कम नहीं है । जीवन का उद्देश्य धन नहीं बल्कि जीवन की सार्थकता प्राप्त करना है और सेवा से अधिक सार्थकता और किस काम में मिल सकती है । यदि समाज में महानता का पैमाना धन है तो भी क्या हम अपनी जान देकर भी बिल गेट्स बन सकते हैं ? यदि नहीं, तो बेकार की दौड़ में क्यों दौड़ा जाए ।

पहले भी डाक्टर और वैद्य होते थे जो धन कमाने की बजाय मरीज़ के इलाज को अधिक महत्व देते थे । भले ही उनके पास अधिक पैसे नहीं हुए हों पर उनको अपनी सेवा से यश पर्याप्त मिला और उनके कृतज्ञ मरीजों के कारण उनके कोई काम भी नहीं रुके । आज जब बड़े-बड़े सेठ लोग अस्पताल और स्कूलों का व्यवसाय कर रहे हैं तो वे पैसा तो कमा रहे हैं पर समाज न उनका कृतज्ञ है और न स्वयं उन्हें पुण्य और सार्थकता की अनुभूति हो रही है ।

क्या चिकित्सा और शिक्षा को लाभ के गणित से मुक्त करवाकर डाक्टर और अध्यापक को भगवान की गरिमा प्रदान नहीं की जा सकती ? क्या आप इस कल्पना से पुलकित नहीं होते हैं ? मनुष्य के दिमाग में अभी भी निष्कामता और निस्वार्थता का सपना मरा नहीं है ।

इसमें कुछ तो सच होगा कि- दुःख घट जाता सुख बढ़ जाता, जब है वह बँट जाता ।

२८ जनवरी २००९

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(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी । प्रकाशित या प्रकाशनाधीन ।
Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication.
Jhootha Sach

4 comments:

  1. बिल्‍कुल सही.....काम का इतना बोझ हो ...परिणाम के लिए इंतजार हो ....तो बीमार तो पडना ही है।

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  2. बहुत बढिया पोस्ट लिखी है।

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  3. ग़लत बात है. मरीजों के चलते नहीं डॉक्टर लोग बीमार तो बहुत पहले से हैं. इसका बहुत बडा कारण वह शिक्षा व्यवस्था है, जिस्के तहत वे लोग डॉक्टर बनते हैं.

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  4. .

    बहुत बढिया पोस्ट लिखी है।

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