Jan 12, 2009

शौचालय-संस्कृति में लिथड़ा साहित्य और दान


लोगों में साहित्य, विशेषकर कविता के प्रति इतनी तटस्थता हो गई है कि योरप के बुद्धिजीवियों ने एक प्रयोग किया कि शौचालय में प्रयुक्त होने वाले पोंछने के टिश्यू पेपर पर कविता छापने लगे । इस नए प्रयोग के मसीहाओं ने सोचा होगा कि शौचालय में कोई मनोरंजन के लिए नहीं आता वरन मज़बूरी में आता है और जब तक हाज़त रवाँ नहीं हो जाती अर्थात् कष्ट निवारण नहीं हो जाता या लघु या दीर्घ शंका का समाधान नहीं हो जाता तब तक बच्चू भाग कर कहाँ जाएगा ? तो इस बंधन के दौरान टिश्यू पेपर पर निगाह पड़ गई तो कुछ न कुछ पढ़ेगा ही । यदि किसी को कब्ज़ की शिकायत है तो हो सकता है कि मल के अवतरण की प्रतीक्षा में पूरा महाकाव्य ही पढ़ डाले । गाँधी जी की सभी बातें हमें अच्छी लगती हैं पर उनकी एक बात से हम कभी सहमत नहीं हुए । कहते हैं कि वे शौचालय में बैठकर पढ़ा करते थे । हमारे यहाँ तो पुस्तकें इतनी पवित्र मानी जाती हैं कि उनका अनादर पूर्वक स्पर्श भी अपराध माना गया है । पवित्र ग्रंथों की अवमानना को लेकर सांप्रदायिक दंगे तक हो जाते हैं । वैसे हमें भी याद है कि बचपन में जब पुस्तक के पैर लग जाता था तो क्षमा माँगते हुए उसे सिर से लगाते थे । मतलब कि पुस्तकें ज्ञान का स्रोत हैं और ज्ञान का सम्मान सुसंस्कृति का पहला सोपान है । पर दुर्भाग्य कि योरप ने उसी कविता को शौचालय के टिश्यू पेपर तक पहुँचा दिया । जब से मानव अधिक सभ्य हुआ तब से उसने शौचालय का ही सबसे अधिक विकास किया । अब वहाँ पुस्तकें भी रखी जाने लगीं । ज़्यादा व्यस्त लोगों के लिए हो सकता है शौचालय में मोबाइल चार्जर और इन्टरनेट कनेक्शन भी होते हों । अब शौचालय ज़ल्दी से निबटने का स्थान नहीं वरन चिंतन, मनन और अध्ययन का सुरक्षित स्थान हो गया है । पर यह तो स्वीकार करना ही पड़ेगा कि वहाँ भोजन की सोंधी-सोंधी खुशबू तो नहीं ही आती होगी । आती होगी तो गू की बदबू ही आती होगी । अब भई, हो सकता है कि तथाकथित बड़े लोगों के गू में चंदन की खुशबू आती हो । इस बारे में हम अधिकार से कुछ नहीं कह सकते क्योंकि हमें किसी बड़े आदमी के इतना पीछे पड़ने की आवश्यकता नहीं पड़ी क्योंकि हमें न तो प्रमोशन की महत्वाकांक्षा रही, न कोई अन्य असंतोष । अध्यापकी से ही शुरू हुए और अध्यापक ही सेवानिवृत्त हो गए । सूर्य की तरह, उगते और छिपते, दोनों स्थितियों में समान ।

जहाँ तक कविता के आर्थिक पक्ष का सवाल है तो लोग डेढ़ कविता लेकर सारे हिंदुस्तान में घूम-घूम कर कमा ही रहे हैं । प्रकाशक भी कविता की पुस्तकें छाप-छाप कर, अधिकारियों को मोटा कमीशन देकर सरकारी लाइब्रेरियों में घुसा ही रहे हैं । पर यहाँ यह हमारा विचारणीय विषय नहीं है । हम तो शौचालय में फल-फूल रहे साहित्य की बात कर रहे थे । वैसे रेल के डिब्बों और सार्वजनिक शौचालयों की दीवारों पर अंकित साहित्य से कोई भी जागरूक भारतीय साहित्यप्रेमी अपरिचित नहीं है । शौचालय का वास्तुकला और सौन्दर्यबोध से भी घनिष्ठ सम्बन्ध है जिस पर किसी अन्य आलेख में विचार करेंगे । अभी तो हम शौचालय से जुड़े एक अन्य उदात्त भाव की चर्चा करेंगे ।

दान, धर्म, चेरिटी मानव की उदात्तता का एक सार्वकालिक आयाम है । पिछड़ी हुई भारतीय संस्कृति में कहा गया है कि गुप्त दान सर्वश्रेष्ठ होता है । 'दातव्यं इति यद्दानं, दीयते अनुपकारिणी । देशे काले च पात्रे च, तद्दानं सात्विकं विदु ॥' (गीता)। यदि दान का प्रचार किया जाए, उस पर टेक्स रिबेट लिया जाए, कोई नाम पट्ट लगवाया जाए तो उससे मिलने वाला पुण्य और आनंद समाप्त हो जाता है । पर आज लोग पाँच रुपये के दान का प्रचार कराने के लिए पाँच सौ रुपये की नामपट्टिका लगवाते हैं और और पाँच हज़ार रुपयों का विज्ञापन अखबारों में देते हैं । दान तो दान, लोग तो धन्यवाद और बधाई का भी विज्ञापन देते हैं । ईसाई धर्म में भी कहा गया है कि यदि तुम एक हाथ से दान देते हो तो दूसरे हाथ को भी पता नहीं लगना चाहिए । दान के लिए यह भी कहा गया है कि वह अपनी मेहनत की कमाई में से दिया जाना चाहिए । भगवान बुद्ध ने एक बुढ़िया द्वारा दिए गए अधखाये अनार को सबसे बड़ा दान बताया क्योंकि वह उसका सर्वस्व था, इसके अतिरिक्त शायद उसके पास देने को कुछ था ही नहीं ।

शौचालय का सीधा सम्बन्ध है शुचिता से । तरह-तरह के शारीरिक विकारों और उत्सर्जनों से मुक्त होकर व्यक्ति स्वच्छ और शुच बनता है । मल-मूत्र त्याग, दंत-धावन, शौच के प्रमुख अंग हैं किंतु शरीर की सफाई के काम निरंतर चलते रहते हैं जैसे थूकना, नाक छींटना आदि । इस प्रकार शौचालयों का विस्तार सर्वत्र और सर्वदा है । एक अभिनेत्री हैं - स्कारलेट जोहानसन, जो एक टी.वी.प्रोग्राम देने गईं । सर्दी की ऋतु तिस पर अभिनेत्री होने के कारण पूरे कपड़े पहन नहीं सकती । तो साहब, जुकाम तो होना ही था । तो अभिनेत्री को छींक आगई । छींक के साथ कुछ तरल पदार्थ भी उत्सर्जित हुआ । यदि उस तरल पदार्थ को रोकने के लिए कपडे का रूमाल हुआ होता तो उस अमूल्य तरल पदार्थ को पर्स में रखकर घर ले जाया जा सकता था । पर चूंकि इस तरल पदार्थ को एक टिशू में संगृहीत करके फ़ेंक दिया गया । आखिर कब तक संभाले आदमी । सारे दिन ऐसे पदार्थ समय-समय पर, विभिन्न रूपों में निसृत होते ही रहते हैं । पर जैसे हीरे की कीमत कोई सच्चा जौहरी ही जानता है वैसे ही अभिनेत्रियों के थूक, नक्की आदि की कीमत कोई सच्चा भक्त ही जानता है । सो स्कारलेट जोहानसन की नाक से निकले इस तरल पदार्थ से लिथड़े कागज को एक जिज्ञासु, सत्यान्वेषी और परोपकारी व्यक्ति ने उठाकर सुरक्षित रख लिया । इसके बाद उसने इंटरनेट पर इसकी नीलामी की । नीलामी बढ़ते-बढ़ते ५५०० डालर पर छूटी । मतलब ३ लाख रुपये । इस राशि से २०-३० साहित्यकारों को पुरस्कृत किया जा सकता है । प्राइवेट स्कूल के एक मास्टर को तीन साल तक वेतन दिया जा सकता है । २०-३० ग़रीबों को स्वरोजगार के लिए मदद की जा सकती है ।

इस राशि का उपयोग किसी "फूड गेदरिंग चेरिटी यू.एस.ए. हार्वेस्ट" के लिए किया जाएगा । हमें पूरी तरह तो समझ नहीं आया की यह कौन सी चेरिटी है पर हमारा अनुमान है ईसाई धर्म में हार्वेस्टिंग का अर्थ है दूसरे धर्म वालों को ईसाई धर्म में दीक्षित करना । वैसे इसका असली अर्थ तो २६ दिसम्बर के टाइम्स आफ इंडिया के संपादक जानें या फिर 'दी एन्वेलप' नामक अखबार के संपादक जानें जिन्होंने सबसे पहले दान और परोपकार की यह महागाथा छापी । इस प्रक्रिया में सबसे महान और गुणग्राही तो हम उस व्यक्ति को मानते हैं जिसने इस अलौकिक पदार्थ को ३ लाख रुपये में खरीदा । अभिनेत्री तो खैर धन्यवाद् की पात्र है ही जिसने इतनी महत्वपूर्ण वस्तु परोपकार के लिए निःशुल्क उपलब्ध करवाई । भगवान करे अभिनेत्रियाँ खूब मल-मूत्र त्याग करें, थूकें, नाक छींटें, पादें और जिज्ञासु लोग उन्हें खोज कर सुरक्षित रखें और धनवान, ज्ञानी, परोपकारी और गुणग्राहक पुण्यात्माएं उन्हें लाखों, करोड़ों रुपयों में खरीदें जिससे चेरिटी यू.एस.ए, हार्वेस्ट जैसा कोई धार्मिक कार्य आगे बढ़े । अभिनेत्री के मल-मूत्रादि की तरह दान और धर्म की खुशबू संसार में सर्वत्र फैले । यदि इसी प्रकार शौचालयीन पदार्थों का धर्मार्थ कार्यों में योगदान बढ़ता रहा तो अभिनेत्रियों और भांडों के शौचालयों को धार्मिक स्थानों का दर्जा मिल जाएगा । अब यह मत पूछियेगा की अभिनेत्री के उस नक्की युक्त कागज़ का वह व्यक्ति क्या करेगा ? यह तो उसकी श्रद्धा और भक्ति पर निर्भर है । पश्चिम हमको मूर्ति पूजक कह कर पिछड़ा और असभ्य कहता है । अब उनके वहाँ के सभ्य समाज में व्याप्त इस मल-मूत्र और नक्की-प्रेम को क्या कहेंगे ?

९ जनवरी २००९

सन्दर्भ समाचार

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Jhootha Sach

1 comment:

  1. sir,aapne sahitya ke baare me acchi tippadi ki hai,aap isi tarah alochana aur sahitya likhte rahe,aisi meri subhkamna hai,aap kabhi mere blog par aaiye ,
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