Jan 10, 2009

सत्यं-असत्यं : शाश्वतं-नित्यं


संसार विरोधाभासों से बना है । सत्यं है तो असत्यं भी है । वैसे सत्यं मूल शब्द है । 'अ' उपसर्ग है । अगर सत्यं नहीं है तो असत्यं को अवतार लेने की ज़रूरत ही नहीं पड़ती । अगर सत्यं है तो उसका होना ही असत्यं के काम में बाधा है । यदि नियम नहीं हों तो उनको तोड़ने के प्रपंच रचने की ज़रूरत ही नहीं पड़ेगी । इसलिए कहा जा सकता है कि सत्यं के कारण ही असत्यं है । यदि आप चाहते है कि संसार में असत्यं न हो तो सबसे पहले सत्यं का खात्मा करिए । कहते हैं सत्यं तो भगवान का रूप है, उसे नष्ट करना असंभव है । तो फिर साहब असत्यं को भी झेलना ही पड़ेगा ।

समुद्र-मंथन से पहले विष निकला । विष से सब जलने लगे पर कोई उससे मुकाबला करने को तैयार नहीं । अंत में भगवान शंकर ने विषपान किया और तबसे वे नीलकंठ-शिव कहलाने लगे । शिव का मतलब है कल्याण करने वाला । ठीक भी है दूसरों का विष पीने से ही तो उनका कल्याण होगा । विष पीने से डरने वाले न तो शिव हो सकते हैं और न किसी का कल्याण कर सकते हैं । विष के बाद निकला अमृत, जिसे पीने को सब तैयार । एक असुर तो वेश बदल कर अमृत पीने के लिए देवताओं की पंक्ति में जा बैठा । पहचान लिया गया और पकड़ा गया । विष्णु ने सुदर्शन से उसका सिर काट दिया पर थोड़ा सा अमृत पी लिया था इसलिए सिर और धड़ दोनों जीवित रहे और आज भी मुखबिरी करने वाले चंद्रमा को ग्रहण के दिन कष्ट देने आ जाते हैं ।

सत्यं बोलने वाला या उसका पक्ष लेने वाला दोनों ही असत्यं के निशाने पर होते हैं । कहते है सत्यं की रक्षा भगवान करते हैं । इसके लिए सत्यवादी हरिश्चंद्र का उदाहरण दिया जाता है । घरबार, राजपाट सब गया । पत्नी, बच्चों और यहाँ तक कि ख़ुद को भी बेचना पड़ा । ड्यूटी की पाबंदी और ईमानदारी ऐसी कि श्मशान का टेक्स वसूल करने के लिए आधे कफ़न के रूप में पत्नी की साड़ी ही फड़वा ली । ये तो साहब, विश्वामित्र जी उनकी परीक्षा ले रहे थे वरना तो हो गया था सूर्यवंशी महाराज की इज्ज़त का कचरा ।

सत्यं का एक ही रूप होता है इसलिए ज़ल्दी से पहचान लिया जाता है और पकड़ा जाता है । अब अपने सत्यवादी जगद्गुरु भारत महान को ही देख लीजिये- बस ले दे उसके पास एक ही बात है कि आतंकवादी पाकिस्तानी हैं । पर पाकिस्तान के पास हज़ार बातें हैं- 'आतंकवादी का कोई देश नहीं होता, इस्लाम में आतंकवाद है ही नहीं, सच्चा मुसलमान आतंकवादी नहीं हो सकता, हो सकता है ये किस धर्म के और किस देश के लोग हैं जो भारत में आतंक फैला रहे है, हम तो ख़ुद ही आतंकवाद से परेशान हैं , इनका कोई ठौर ठिकाना मिले तो हमें भी बताना, दोनों मिल कर कार्यवाही करेंगें ।' अब कर लो क्या करोगे इनका । पकड़ लो क्या पकड़ोगे इनका । हमारा ध्येय वाक्य है 'सत्यमेव जयते' । पता नहीं कब जीतेगा, अब तक तो जूते ही खा रहा है और दुनिया तमाशा देख रही है ।

कबीर जी ने कहा है-
आधी और रूखी भली, सारी तो संताप ।
जो चाहेगा चूपड़ी, तो बहुत करेगा पाप ॥


सो साहब जो अपनी मेहनत की खाने वाले हैं वे कभी असत्य के चक्कर में नहीं पडेंगें । पर जिसे हराम की और दो-दो चाहियें वह असत्यं के सिवा और किधर जा ही नहीं सकता । पहले पाकिस्तान को तालिबान को पालने के लिए पैसा मिलाता था । अब तालिबान से लड़ने के लिए मिल रहा है । वह न तालिबान से लड़ सकता है और न ही आतंकवाद से लड़ने नाम पर मिलने वाला पैसा छोड़ना चाहता । अमरीका के लिए ऐसा घटिया काम भारत न पहले कर सकता था न अब । सो अमरीका पाकिस्तान को छोड़ भी नहीं सकता । साँप-छछूंदर की हालत हो रही है । असत्यं में लिपटा सत्यं सबको मालूम है ।

असत्यं को भी शास्त्रों में स्थान दिया गया है । शास्त्र कहते हैं कि जुए, मजाक, स्त्रियों, प्राणों पर संकट के समय असत्यं को 'अलाऊ' किया है । आज के सन्दर्भ में यह छूट राजनीति, व्यापार, विज्ञापन ने अपने आप ले ली है । कहा गया है- प्रेम और युद्ध में सब कुछ जायज़ है उसी तर्ज़ पर कहा जा सकता है कि राजनीति, व्यापार और विज्ञापन में सब कुछ नाजायज़ है । पर इस आधार पर असत्यं को सत्यं के स्थान पर नहीं बिठाना चाहिए । दूध और खटाई का साथ नहीं निभ सकता ।

सत्यं को ईमानदारी से इतना मिल रहा था कि मज़े से रह सकता था । पर ज़्यादा चूपड़ी के चक्कर में असत्यं हो गया । इतना असत्यं हुआ कि अंत में सत्यं होना ही पड़ा । हर गुब्बारे की एक सीमा होती है उसके बाद उसे फूटना ही पड़ता है । और फिर सत्यं सबके सामने आ जाता है भले ही वह ज़रा से रबर का सिकुड़ा सा टुकड़ा ही क्यों न हो । एनरोन कैसे भारत में आई थी और कैसे गई यह भी किसी से छुपा नहीं है । लेहमैन, मेरिल लिंच सभी का यही हाल हुआ । हिटलर ने सारी दुनिया को एक टाँग पर खड़ा कर दिया था पर अंत में आत्महत्या ही करनी पड़ी । पाकिस्तान का असत्यं भी सामने आ ही गया ।

मगर उद्घाटित होने से पहले वह बहुत सा नुकसान तो कर ही देता है । ऐसे उदाहरणों से अपने आप ही सत्यं की विजय का विश्वास तो होता है पर असत्यं से निरंतर लड़ने की आवश्यकता भी समाप्त नहीं हो जाती ।

( सन्दर्भ: आई.टी. कम्पनी सत्यं की फूंक निकली- ७ जनवरी २००९ )

८ जनवरी २००९

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Jhootha Sach

3 comments:

  1. बहुत ही अच्छे और मधूर लेख प्रस्तुत करते हैं आप, दिल की गहराई से बहुत बहुत धन्यवाद। खूब लिखें और लिखते रहें, हमारी शुभकामनायें आपके साथ हैं, और हम ईश्वर से आपकी सफलता के लिए प्रार्थना करते है।

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  2. सही है-अच्छा आलेख.

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  3. वेदों में कहाँ गया है की "सत्यम वद, धर्मं चर" लेकिन ये भी कहाँ है की "सत्यम ब्रोयत प्रियम ब्रूयात, न च ब्रूयात सत्यामाप्रियम" . .... अर्थात सत्य बोलो प्रिय बोलो लेकिन अप्रिय लगने वाला सत्य मत बोलो.
    वैसे भी "एकम सत्यम, विप्र बहुधा वदन्ति" . आज सत्य असत्य के बीच भेद करना बड़ी टेढी खीर है.

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