प्रिय बराक,
आशीर्वाद और शुभकामनाएँ । हो सकता है कि चमचागीरी करनेवाले कहें कि अमरीका के राष्ट्रपति के लिए कुछ भारी-भरकम संबोधन होने चाहियें । पर पता नहीं हमें क्यों लगता है कि जब इतनी ही दूरी है तो फिर पत्र लिखने की ही क्या ज़रूरत है ? आप हमारे भूतपूर्व विद्यार्थियों या बच्चों की उम्र के हो तिस पर हम ब्राह्मण और भूतपूर्व अध्यापक । और आप जानते ही हो कि अध्यापक कभी रिटायर नहीं होता । सब को अपना चेला समझ कर पढ़ाने लगता है । हम ये भी जानते हैं कि आप सामान्य स्कूल में ही पढ़े हो जहाँ हम जैसे ही मास्टर पढ़ाते होंगे जो ऊपर से रूखे-सूखे दिखते होंगे पर अन्दर से अपनेपन से भरपूर । तथाकथित बड़े स्कूलों में तो अध्यापक बच्च्चों को पढ़ाते कम और उनसे पढ़ते अधिक हैं क्योंकि ऐसे बच्चे स्कूल में अपने नहीं, बाप के जूते पहन कर जाते हैं ।
हमने आपकी पुस्तक पढ़ी है । इसलिए नहीं कि आप राष्ट्रपति हो बल्कि इसलिए कि आप दूसरों से भिन्न राष्ट्रपति हो । आप ज़मीन से उठकर गए हो । आप में हमें मिट्टी और पसीने की गंध आती है । पुस्तक तो क्लिंटन ने भी लिखी और बिकी भी खूब पर हमने नहीं पढ़ी क्योंकि वह एक राष्ट्रपति और लम्पट-लीला के लिए कुख्यात हो चुके व्यक्ति का चोंचला था । आजकल सब जगह अपनी थोड़ी सी ख्याति या कुख्याति को भुनाने का रिवाज़ चल पड़ा है । तथाकथित बड़े लोगों को किराये पर लिखने वाले भी बहुत से मिल जाते हैं । उन्हें क्या पढ़ना । पर आपने यह पुस्तक राष्ट्रपति तो क्या, राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनने से भी पहले लिखी थी । इसलिए इस पुस्तक में एक विचारशील युवा है, एक काइयाँ राजनीतिज्ञ नहीं ।
आपने सपने देखे हैं और सपने भी टुच्चे नहीं बल्कि एक ईमानदार युवक के सपने देखे हैं । हम उन सपनों में शामिल होना चाहते हैं । आपके साथ केवल खाओ-पीओ और मौज करो वाले उपभोक्तावादी अमरीकी सपने ही नहीं, आपके रक्त में एशिया और अफ्रीका भी शामिल हैं जिनकी पुरानी, सादगी-पसंद और मेहनती संस्कृति रही है । आज अमरीका की संस्कृति में इनका छौंक लगना बहुत ज़रूरी है क्योंकि शुद्ध अमरीकी उपभोक्तावादी संस्कृति का परिणाम तो दुनिया देख ही रही है । केवल भोग, व्यक्ति ही नहीं, दुनिया को खा जाता है । अमरीका पर अणु विस्फ़ोट करने, शीत युद्ध भड़काने, इस्लामी कट्टर पंथ को हवा देने और मात्र भोग को ही जीवन का लक्ष्य बनाने वाली सोच का प्रतिनिधित्व करने का दायित्व जाता है । जानेवाले तो आपके लिए काँटे बिछा कर चले जा रहे हैं । आपकी राह आसान नहीं है । आप के नाम बराक का अर्थ है 'वरदान'। भगवान आपको इस दुनिया के लिए वरदान बनने का सौभाग्य प्रदान करे । आप में समझ भी है, शक्ति के रूप में सत्ता भी मिल गई है । अब तो बस सत्संगति और मिल जाए क्योंकि उच्च पद वालों को मीठी बकवास करने वाले बहुत मिल जाते हैं और उसी में वक्त निकल जाता है । हमने अपने भूतपूर्व युवा प्रधान मंत्री राजीव गाँधी के साथ यह होते देखा है । वे दृष्टि संपन्न थे । नई तकनीक के विकास का रास्ता खोला जिसके कारण भारत आज कम्प्यूटर के क्षेत्र में एक शक्ति बना हुआ है । राजीव गाँधी को जितना बहुमत मिला उससे वे चाहते तो संविधान बदल सकते थे पर चमचों ने ऐसा करने का वातावरण ही नहीं बनने दिया । वे चाहते तो समान नागरिक संहिता, समान शिक्षा, धारा ३७० की समाप्ति आदि दूरगामी और क्रांतिकारी काम करवा सकते थे पर लोगों ने क्या सलाह दी- 'शाह बानो केस में मुस्लिम वोट पकाने के लिए सर्वोच्च न्यायालय को थूक चटवा दो' । फिर सलाह दी कि मन्दिर का ताला खुलवा कर हिन्दू समर्थन भी बटोर लो । हुआ यह कि दुविधा में न राम मिले और न माया । जूते भी खाए और प्याज भी । बस ऐसे घटिया सलाहकारों से बचना ।
आपका शपथ-ग्रहण समारोह बड़े ताम-झाम से हो रहा है । समय तो अमरीकी अर्थव्यवस्था के लिए ख़राब ही चल रहा है । हम आपकी जगह होते तो एक भी पैसा खर्च नहीं करते । आजकल टेलिविज़न है ही सारी दुनिया उसी पर देख लेती । पता नहीं यह इच्छा आपके ही मन में जगी है या किसी की नेक सलाह है । वैसे यह सच है कि गैर-गोरे लोगों के लिए तो यह ऐतिहासिक अवसर है । उनके मन में अब तब का सबसे बड़ा समारोह करने की इच्छा हो रही होगी । ऐसे समय में अधिक सादगी ज़्यादा असर डालती है । यही पैसा उन स्कूलों को दिया जा सकता था जहाँ काले और पिछड़े बच्चे पढ़ते हैं और जिनमें पैसों की बड़ी कमी है ।
हमारे यहाँ तो छोटे-मोटे कामों में भी भारी भीड़ जुट जाती है । पर आजकल भीड़ में भगदड़ मचने की कई घटनाएँ बहुत होने लगी हैं । इस मामले में काले-गोरों का कोई दंगा न हो जाए इसका भी ध्यान रखें । अगर ऐसा नहीं हुआ तो हम समझेंगें कि आपके यहाँ लोग समझदार हो रहे हैं । गोरों के धैर्य की परीक्षा तो अब हो रही है ना । पहले जिस अमरीका ने उपभोक्तावाद का झंडा लहराया था और उसके परिणाम स्वरूप मंदी झेल रहा है, हम चाहते हैं कि वही अमरीका आपके नेतृत्व में सादगी, मेहनत और मितव्ययिता का भी उदाहरण पेश करे ।
आप लिंकन वाली बाइबल से शपथ लेंगे । आपका ध्येय वाक्य है- 'इन गोड आइ ट्रस्ट' । वैसे तो ईश्वर एक ही है, पर पता नहीं क्यों धर्म वाले इसे स्वीकार नहीं करते । ईश्वर को एक मानेंगे पर झगड़ा भी ईश्वर के ही नाम पर करेंगे । धर्म के नाम पर सेनाएँ लेकर निकलेंगे और मार-मार कर या फुसलाकर धर्म-परिवर्तन करवाएँगे । हमारे यहाँ तो गाँधीजी 'ईश्वर अल्लाह तेरे नाम' गाते थे (और सिर्फ़ गाँधीजी ही गाते थे) । पर उनको किसी धर्मवाला अपने धर्म में जगह नहीं देता । क्या धर्म के लिए कट्टर होना ज़रूरी है ? हर धर्म ने अपना नया ईश्वर बनाया और निकल पड़े पुराने धर्मों को मिटाने । आपके सामने नस्ल ही नहीं धर्म की भी समस्याएँ आ सकती हैं । हमारे यहाँ तो ध्येय वाक्य है- 'सत्यमेव जयते' । हमारे उपनिषदों में तो सत्य ही ईश्वर है और साँच बरोबर तप नहीं -कहा गया है । सत्य ही सबसे अधिक वैज्ञानिक है । पर समस्या यह है कि सत्य को मान लेने से अलग-अलग दुकानें नहीं चल सकती । हम आपको हमारे संविधान का प्राण तत्व बताते हैं -
उदारचरितानाम तु वसुधैव कुटुम्बकम् ॥
यह मेरा है, यह पराया है - यह हिसाब छोटे लोग लगाते हैं । उदार चरित्र वालों के लिए तो सारी धरती ही एक परिवार है ।
यदि आप इस वाक्य से प्रेरणा लेंगे तो आप वास्तव में अपने नाम के अनुरूप संसार के लिए वरदान सिद्ध होंगे ।
आपके नेतृत्व में यह दुनिया बेहतर बने, इसी शुभकामना के साथ,
रमेश जोशी
१८ जनवरी २००९
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Jhootha Sach
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