Jul 8, 2009

तोताराम के तर्क - फिर बसंती की इज्ज़त का सवाल


८ मई २००९ की दोपहर, भयंकर गरमी, लू चल रही है, पारा पैंतालीस के पार, कूलर भी प्रभावहीन, तिस पर बुढ़ापा । बुढ़ापे में न सर्दी सहन हो न गरमी । अपनी जान लिए पड़े थे कि तोताराम ने दरवाजा भड़भड़ाया- 'मास्टर ज़ल्दी से उठ, वोट डालने चलना है । बसंती की इज्ज़त का सवाल है । सुन नहीं रहा, दाँता रामगढ़ (जिला सीकर) से उठी गुहार अब तक वातावरण में गूँज रही है ।'

सबसे पहले 'शोले' में रामगढ़ में गब्बर सिंह के हाथों बसंती की इज्ज़त खतरे में पड़ी थी पर तब मौके पर 'बीरू' पहुँच गए थे । सो इज्ज़त बच गई और बात आई-गई भी हो गई थी । तब मीडिया भी इतना सक्रिय नही था ।

अब समय बदल गया है । अब जब गत दिसम्बर में डीग-भरतपुर में दूसरी बार बसंती की इज्ज़त खतरे में पड़ी तो दूसरे ही दिन अख़बार में चीत्कार सुनाई पड़ गई ।

तोताराम हमारे साथ बैठा चाय पी रहा था । जैसे विष्णु भगवान ग्राह-ग्रसित गजराज की करुण पुकार सुन कर नंगे पाँव दौड़ पड़े थे वैसे ही तोताराम ने चाय बीच में ही छोड़ दी । कुर्ते-पायजामें में ही डिपो की तरफ़ दौड़ पडा और डीग की बस में बैठ गया । वहाँ जाकर ठण्ड खा गया सो अब तक खाँस रहा है ।

वहाँ बसंती की इज्ज़त बचने के चक्कर में बोगस वोट डालते पकड़ा गया । अधिकारी ने उसकी उम्र और स्वास्थ्य को देखते हुए डाँट कर भगा दिया वरना कैद भी हो सकती थी । जैसे अनुशासनहीनता के लिए किसी को पार्टी से छः साल के लिए निकाल दिया जाता है वैसे ही तोताराम को छः साल के लिए मताधिकार से वंचित कर दिया गया । यह बात और है कि ज़रूरत पड़ने पर अगले दिन ही ऐसे अनुशासनहीन सिपाही की घर वापसी भी हो सकती है ।

हम तो घुटने के दर्द का बहाना बना कर डीग जाना टाल गए । डीग में बसंती की इज्ज़त बच गई मतलब कि दिगंबर सिंह जीत गए । वैसे जो दिगंबर हो जाए उसे कौन बेइज़्ज़त कर सकता है ? और ऊपर से सिंह, किसकी हिम्मत हो सकती है ।

हमने कहा -'तोताराम, अगर चालीस साल पहले यह पुकार आती तो साहस किया जा सकता था । अब तो यह काम नए-नए मतदाता बने युवा को किसी कैटरीना कैफ के लिए करने दे । अब तो बसंती की भी षष्ठी-पूर्ति हो चुकी है और अपन भी वरिष्ठ नागरिक बन चुके हैं ।'

पर तोताराम ने बचने का कोई रास्ता नहीं छोड़ा। ऑटो लेकर आया था । हमें ऑटो में धकेल कर मतदान केन्द्र की तरफ़ चल पडा । जैसी कि संभावना थी, हमें लू लग गई । सो नीम्बू पानी पी रहे हैं और सिर पर भीगा गमछा लपेटे पड़े हैं । बैचैनी में पता नहीं कौनसा बटन दब गया । अब आगे बसंती जाने और उसकी इज्ज़त ।


हमने कहा - 'तोताराम, आगे से किसी 'बसंती की इज्ज़त', 'किसी चूनड़ी की लाज', या किसी 'पसीने के क़र्ज़' के नाम पर हमें ब्लेकमेल मत करना । सबके अपने-अपने स्वार्थ हैं । काम निकलने के बाद कोई हाल-चाल पूछने भी नहीं आता । घोड़ा खाए घोड़े के धणी को । ढेरी में सारे बैंगन काने हैं । उलटा-पुलटी करने से कोई फायदा नहीं । और इज्ज़त बार-बार राजस्थान में ही क्यों खतरे में पड़ती है ? यदि राजस्थान में इतना ही खतरा है तो इतना बड़ा देश पड़ा है कहीं और लगायें मज़मा । ऐसे लोकतंत्र के लिए शहीद होने से तो अच्छा है किसी ट्रक के नीचे आ जाएँ । कम से कम कलेक्टर दस हज़ार का पैकेज तो तत्काल घोषित कर देगा । यहाँ न कोई जनकनन्दिनी है और न अपन जटायु । पहले भी कई बीरू राजस्थान में आकर, टंकी पर चढ़ कर उल्लू बना कर चले गए ।'

तोताराम ने कान पकड़ कर तौबा की । तब तक पत्नी शिकंजी ले आई ।

९-५-२००९

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(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी । प्रकाशित या प्रकाशनाधीन ।
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Jhootha Sach

1 comment:

  1. जोशी जी आपने तो दुखती रग पर अंगुली रख दी। इसे हमारे यहां कहते हैं घाव में घोबा। कई वीरू आए और गए बसंती अपनी इज्‍जत लिए खड़ी थी और खड़ी है।

    चलो अब तीस साल तो कोई नहीं आएगा रिजर्व सीट पर।

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