Jul 10, 2009
तोताराम के तर्क - मास्टर की
गाँव के बीच में बरगद का एक पेड़ था जिसके नीचे गर्मियों में बैठे गाँव के बुज़ुर्ग दुनिया जहान की बातें किया करते थे । पालतू पशु भी दोपहर में इसी के नीचे बैठे सुस्ताया करते थे । पास के कुँए से लोग पानी भरा करते थे । वहीं दो चार घड़े रखे रहते-सार्वजनिक प्याऊ के रूप में । कुएँ की खेळ में जानवर पानी पी लिया करते ।
समय बदला । कुएँ बेकार हो गए । अगर कभी नल में पानी आता तो जितना लोग भरते उतना ही टोंटी न होने के कारण रास्ते में फैल कर कीचड़ फैलाता जिसमें मक्खी मच्छर संरक्षण पाते । पशु गलियों में धक्के खाने लगे । कुए की खेळ में कचरा और पोलीथिन भर गए । कुएँ के चबूतरे पर आवारा लोगों की चंडाल चौकडी दारू के पाउच पीने लगी । बरगद पर राजनीति के प्रेत लटक गए ।
शाम को तोताराम इसी रास्ते से स्कूल से घर लौटते थे । जब भी धुंधलके में इधर से गुजरते तो आवाज़ आती-मास्टर की चाहिए । तोताराम परेशान । किससे पूछे, किसको बताये । मन ही मन चिंतित । रात को अच्छी तरह नींद नहीं आती । अब तो बरगद के पास से निकलते हुए डर लगाने लगा । वाक्य अधूरा । मास्टर की.... क्या ? सोचकर थक जाते । मास्टर की क्या चाहिए ? मास्टर की जान चाहिए, मास्टर की खोपड़ी चाहिए, मास्टर की नौकरी चाहिए । क्या चाहिए मास्टर की ?
एक दिन देश, समाज की सेवा करनेवाले एक महाप्राण से पूछा तो बोले -मास्टर जी, यह 'की' हिन्दी का कारक चिह्न नहीं है जिसके आगे की संज्ञा आप ढूँढ़ रहे हैं । यह 'की' अंग्रेज़ी संज्ञा है 'चाबी' वाली । बरगद से आवाज़ लगाने वाली वह पुण्यात्मा किसी चाबी के बारे में पूछ रही है । सो उसे चाबी देकर पीछा छुड़ाओ ।
मास्टर तोताराम घर आकर सोचने लगे । उनके पास न साइकल, न स्कूटर, न गोदरेज की अलमारी, न कार, न सूटकेस , न ट्रंक । कोई चाबी नहीं । दो ड्रेसें हैं जिनमें से एक अलगनी पर या खूँटी पर और दूसरी इस नश्वर शरीर पर । घर में मात्र दो पुराने ताले पड़े थे जंग लगे जिनकी कभी साल छः महीने में ज़रूरत पड़ती थी तो घर के मेन पर लटका जाते थे । सो एक दिन -एक छेदवाली और एक चपटी दोनों चाबियाँ चुपचाप तालों समेत बरगद के पेड़ के नीचे रख आए जिन्हें कबाड़ी उठा ले गया । आवाज़ का आना फिर भी चालू रहा । मास्टर तोताराम परेशान ।
अब उन्होंने समस्या सुलझाने के लिए किसी पत्रिका के मनो-विश्लेषक को पत्र लिखा । वह विशेषज्ञ थोड़ा जनरल नालेज भी रखता था । उसने उत्तर दिया - हमारे पास आपकी बीमारी का कोई इलाज नहीं है । हाँ, 'मास्टर की' एक ऐसी चाबी को कहते हैं जिससे सभी ताले खुल जाते हैं । मास्टर तोताराम फिर चिंतित । तोताराम के पास जो दो ताले और चाबी थे उनका यह हाल कि कभी-कभी वे ताले अपनी चाबी से ख़ुद तोताराम से भी नहीं खुलते थे । फिर उन चाबियों से किसी और के ताले खुलने का तो प्रश्न ही नहीं था ।
एक दिन मास्टर तोताराम को अचानक याद आया कि उन्होंने कभी एक फ़िल्म देखी थी जिसमें हीरो एक चाबी रखता था जिससे घुमा फिरा कर वह सारे ताले खोल लेता था । तोताराम को हँसी आगई । ऐसी चाबी तो अलादीन के चिराग से भी ज़्यादा बड़ी चीज होती है । कोई भी ताला खोल लो । पर किसी और का ताला खोलना तो चोरी है । तोताराम ने घबरा कर यह विचार छोड़ दिया ।
एक दिन गाँव में बड़ी चहल-पहल थी । चुनाव आगए थे । मंच बना बरगद के पेड़ के नीचे । नेता जी कह रहे थे- हमें 'मास्टर की' चाहिए । जब 'मास्टर की' हमारे पास होगी तो कोई भी पार्टी हमारे बिना सरकार नहीं बना सकेगी । हम चाहेंगें तो किसी भी सरकार को कभी भी गिरा सकेंगे । मास्टर को लगा वही बरगद के पेड़ वाला प्रेत प्रकट हो गया है । अब उसे विश्वास हो गया कि 'मास्टर की' उसके पास नहीं है । वह निश्चिंत हो गया । बरगद के पेड़ के पास से गुज़रने पर वह आवाज़ अब भी आती पर तोताराम को डर नहीं लगता । उसे लोकतंत्र के सार तत्व का पता चल गया था ।
एक दिन जब तोताराम स्कूल से घर लौट रहा था तो अचानक ठोकर लगी । ठोकर खाकर उठते समय उसे अपनी छेद वाली चाबी मिल गयी । पर अब समस्या यह थी कि ताला कोई उठा ले गया था । अब मास्टर बिना ताले की चाबी लेकर घूम रहा है । उसे तो ताला नहीं मिल रहा है पर लगता है लोकतंत्र के प्रेतों को जरूर 'मास्टर की' मिल गई है ।
अब उसे ख़ुद से ज़्यादा लोकतंत्र की चिंता सता रही है ।
१०-५-२००९
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(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी । प्रकाशित या प्रकाशनाधीन ।
Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication.
Jhootha Sach
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