Jul 9, 2009

तोताराम के तर्क - पासिंग द पार्सल


जैसे पीनेवालों को पीने का बहाना चाहिए वैसे ही जुआ खेलनेवालों और शर्त लगानेवालों के लिए भी बहानों की कमी नहीं है । बरसात होगी या नहीं, कौनसी टीम जीतेगी, इस मैच में कितने छक्के लगेंगे, सचिन की सेंचुरी बनेगी या नहीं आदि-आदि । ये तो बड़े मोटे सट्टे हैं । दो आदमी यदि हों तो वे कहीं भी सट्टा खेल सकते हैं और कुछ नहीं तो यही कि चलो जूती उछालते हैं । सीधी पड़े तो यह भाव और उलटी पड़े तो यह । लोग तो यहाँ तक सट्टा खेलते हैं कि यह जो मक्खी उड़ रही है, जब यह बैठेगी तो कहाँ बैठेगी या बिना कहीं बैठे ही चली जायेगी ? ऐसों पर कौन प्रतिबन्ध लगा सकता है । जहाँ मनुष्य के मन में उत्सुकता, अनिश्चितता, उतावली है, अनुमान है, विकल्प है वहाँ सब जगह सट्टे की संभावनाएँ बनती हैं ।

इसी तरह खेल भी मनुष्य की मूल प्रवृत्ति है । जिनके खून में जोश है वे ताकतवाले खेल खेलते हैं । कुछ आलसी लोग ताश, चौपड़, चर-भर जैसे खेल खेलते हैं । कुछ लोग तो इतने खेल प्रेमी होते हैं कि अकेले ही दो खिलाड़ियों के पत्ते बाँट देते है और फिर ख़ुद ही बारी-बारी से रोल बदल-बदल कर खेलते रहते हैं ।

कल शाम जब घूम कर हम और तोताराम लौट रहे थे, रास्ते में एक मकान दिखाई दिया जिस पर लिखा था पार्टी कार्यालय । पार्टी का नाम कुछ धुंधला पड़ गया था इसलिए समझ में नहीं आया । मकान की खिड़की में से अन्दर नज़र गई तो देखा कि लोग एक गोल घेरे में बैठे हैं, सबके चहरे लटके हुए हैं । मातम का सा माहौल है । उनके पास एक डिब्बा है जिसे वे एक दूसरे को पकड़ा रहे हैं । संगीत बज रहा है । जैसे ही संगीत रुका तो डिब्बा नीचे गिर पड़ा । लोग एक दूसरे पर डिब्बा गिराने का दोष लगाने लगे । अंत में फाउल मानकर फिर खेल शुरू हुआ । संगीत बजने लगा । संगीत रुका । डिब्बा किसी के हाथ में नहीं । फिर नीचे गिर पड़ा । फिर फाउल । यही तमाशा चलता रहा ।

अंत में तोताराम से रहा नहीं गया और वह दरवाज़ा खोल कर अन्दर चला गया और ऊँची आवाज़ में कहने लगा - यह क्या तमाशा है ? खेलते हो तो ढंग से खेलो । जानबूझ कर पार्सल गिरा रहे हो । अरे, जिसके पास भी पार्सल रुकता है, खोलो और उसके अनुसार करो ।

पर किसी ने नहीं सुनी । बार बार पार्सल ही गिरता रहा । अंत में तोताराम को गुस्सा आगया । उसने लपक कर पार्सल ख़ुद ले लिया । सब लोगों ने राहत की साँस ली और भाग कर तोताराम को घेर लिया । जल्दी से पार्सल खोला तभी एक ठीकरा तोताराम के सिर पर आकर गिरा । सिर पर बड़ा सा गूमड़ उभर आया ।

पार्सल में लिखा था- जिसके पास भी यह पार्सल रुकेगा उसी के सिर पर हार का ठीकरा फोड़ा जाएगा ।

तोताराम फटे में टाँग फंसाने की अपनी आदत के कारण चोट खा बैठा ।

थोड़ा आगे चले होंगे कि फिर एक कार्यालय दिखाई दिया पर वहाँ मायूसी का माहौल नही था । सबके चेहरों पर जीत की खुशी चमक रही थी । तोताराम अपने गूमड़ को भूल कर फिर अन्दर झाँकने लगा पर हमने रोक लिया । कहा- न तो दरवाजे के अन्दर चलेंगे और न ही बीच में टाँग फँसायेंगे, दूर से ही समझने की कोशिश करेंगे । अन्दर झाँक कर देखा तो यहाँ भी वही पासिंग द पार्सल वाला खेल चल रहा था । उसी तरह लोग जान बूझकर पार्सल गिरा रहे थे ।

तभी अन्दर से एक पत्रकार टाइप आदमी निकला । हमने पूछा - भाई साहब , क्या यहाँ भी हार के कारणों का ठीकरा फोड़ने का चक्कर है ? उसने कहा- नहीं, यहाँ तो ये लोग यह नहीं समझ पा रहे हैं कि जीत तो गए पर जीते किस कारण से ?

१५-६-२००९

पोस्ट पसंद आई तो मित्र बनिए (क्लिक करें)




(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी । प्रकाशित या प्रकाशनाधीन ।
Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication.
Jhootha Sach

No comments:

Post a Comment