
माघ मेला -- हाड़ कँपा देने वाली ठण्ड में ब्रह्ममुहूर्त में गंगा-स्नान । चेतना पर पड़ी भौतिकता की बर्फ के विरुद्ध संकल्प का पर्व । अपने आप से निकलकर सृष्टि के विस्तार में परमेश्वर की अनुभूति का उत्सव ।
मकर संक्रांति -- प्रकृति के सुषुप्तावस्था से निकल कर जागरण की ज्योति में स्नान करने की सीमा-रेखा । निष्क्रियता से सक्रियता में गतिशील होने का बिंदु । इसी बिंदु से प्रारंभ होती है सृष्टि के सृजन-संकल्प की उत्सव-शृंखला । महाभारत-युद्ध के बाद शरशैया पर इसी पुण्य लग्न की प्रतीक्षा करते लेटे थे पितामह भीष्म ।
प्रकृति भी जैसे शीत-समाधि से निकलकर करवटें बदल कर जागने का उपक्रम करने लग जाती है । निराला इसी के स्वागत में गाते हैं- 'द्रुत झरो जगत के जीर्ण पत्र ।' नव किसलयों का मार्ग प्रशस्त करने के लिए जीर्ण पत्रों को झरना ही पड़ता है । तभी नव युग के नव विहग वृंद के नव पर नव स्वर मुखरित होंगे ।
इसी क्रम में सबसे पहले आती है शिव-रात्रि । शिव-पार्वती का प्रतीक तो है ही सृजन का प्रतीक । शिव कल्याण के देवता हैं । पता नहीं क्यों कुछ रूढ़ विचारकों ने उन्हें संहारक की भूमिका तक ही सीमित कर दिया । उनका संहार होता ही विकृतियों के ध्वंस पर नई कल्याणकारी सृष्टि का सृजन करने के लिए है । सृजन की ऊर्जा और उसको संतुलित करने का स्पष्ट विधान शिव की आराधना में मिलता है । शिव-लिंग पर जलाभिषेक उसी का प्रतीक है ।
सर्वशक्तिशाली और रुद्र होते हुए भी, शिव सर्वत्र शांत और संतुलित नज़र आते हैं । जब काम का अमंगलकारी रूप उन्हें नहीं सुहाता तो वे उसे भस्म कर देते हैं । 'मानस' में 'काम' की अति का वर्णन करते हुए तुलसी दास जी लिखते हैं-
'अबला विलोकहिं पुरुषमय, जग पुरुष सब अबलामयं ।'
यह तो मर्यादा के लिए अभिप्रेत नहीं है । काम-दहन करके शिव काम का निषेध नहीं कर रहे हैं वरन इस दुर्निवार ऊर्जा को साधने का विधान कर रहे हैं ।इसी समय में प्रकृति अंगड़ाई लेकर जाग उठाती है । नई कोंपलों में उसके नेत्र निमीलित होते हैं । पलाशवन रक्त कुसुमों से दावाग्नि-दग्ध हो उठता है । पृथ्वी सूर्य के चारों और एक परिभ्रमण पूर्ण कर एक नई इकाई में प्रविष्ट होती है । वृक्षों में उनके तनों में इसके प्रमाणस्वरूप एक नया वलय बनता है । होली आते-आते सृष्टि अपनी समस्त जीर्णता त्याग कर एक नए रूप, एक नई ऊर्जा और एक नई कामना से पूर्ण होकर सृजन के लिए तत्पर होती है ।
हमारे सभी पर्व प्रकृति के साथ-साथ चलते हैं । उन सब की चरम परिणति होली के उत्साह और उल्लास में होती है । होली स्वयं से निकल कर सब में समा जाने का उपक्रम है । कुंठाओं से मुक्त होकर इसी धरती पर वैकुंठ उतार लाने का विधान है । परिवेश और आत्मा का समस्त कूड़ा-कर्कट जलाकर एक नया अध्याय शुरु करने का अवसर है । मगर यह भी विधान है कि होलिका-दहन में संस्कारों का प्रह्लाद सुरक्षित रहे ।
जब होलिका-दहन का 'डांडा' गाड़ा जाता है तो उसके बाद कई दिनों तक गोबर के बडकुल्लों के साथ ही सारे गाँव का कूड़ा-कर्कट भी उस 'डांडे ' के चारों तरफ इकठ्ठा कर दिया जाता है । यह 'डांडा' प्रह्लाद का प्रतीक है । पूर्णिमा को तय लग्न में होलिका-दहन के तत्काल बाद प्रह्लाद के प्रतीक उस 'डांडे' को निकाल लिया जाता है । यही प्रयत्न है कि कल्मष और कुंठा की होलिका का दहन तो हो पर संस्कारों के प्रह्लाद को कोई आँच नहीं आये ।
कुछ कुंठित लोग इसे रिश्तों की शालीनता को तोड़ने का एक मौका समझते हैं । तभी होली के बाद विवेक की देवी सरस्वती की अराधना का पर्व आता है । उल्लास में हमारी मर्यादा स्खलित न हो यही विवेक है, यही संस्कृति है । इसीलिए इसी के बाद आती है 'राम-नवमी' । मर्यादा पुरुषोत्तम राम के अवतरण का दिन । 'रामायण' में जब सुग्रीव सीता द्वारा फेंके गए आभूषण राम के सामने प्रस्तुत करते हैं और उन्हें पहचानने के लिए कहते है तो लक्ष्मण कहते हैं-
नाहं जानामि केयूरे, नाहं जानामि कुण्डले ।
नूपुरे त्वाभिजानामि नित्यं चरण वंदनात् ॥
अर्थात् न मैं बाजूबन्दों को जानता हूँ और न ही कुण्डलों को । मैं तो प्रतिदिन चरण-वंदना करने के कारण भाभी के दोनों नूपुरों को ही पहचान सकता हूँ । रामचरित मानस में राम और शिव की युति यों ही नहीं है वरन मर्यादा की चरम परिणति का निर्देश करने के लिए भी है ।भारतीय चिंतन-धारा जहाँ एक तरफ विष्णु के लीला-अवतार कृष्ण को छूती है वही दूसरी और विष्णु के ही अवतार राम की मर्यादा के तट को छूती है । इन्हीं दोनों किनारों के बीच बहने वाली चिंतन और चेतना-धारा ही कल्याणकारी हो सकती है । तटों को तोड़ने के बाद तो नदी माँ कहाँ रहती है वह तो डायन हो जाती है । और विनाश का कारण बनती है । समस्त लीलाओं के बावजूद कृष्ण कहीं मर्यादा का उल्लंघन नहीं करते । यही विशेषता उन्हें अवतार और हमारा आराध्य बनाती है । राम में तो खैर मर्यादा की चरम सीमा है ही । पुष्प वाटिका में राम और सीता का मिलन, स्वतंत्रता के नाम पर चल पड़ी स्वच्छंदता के इस समय में एक दुर्लभ किन्तु अनुकरणीय उदहारण है । सप्तपदी के समय भी सीता राम के रूप को कंगन के नगों में ही निहारती है । चाणक्य कहते है कि राजा को जितेन्द्रिय होना चाहिए । 'जितेन्द्रिय' राजा का राज ही 'रामराज्य ' हो सकता वरना तो आजकल बड़े-बड़े महामहिमों की लम्पट-लीलाएँ संस्कृति को लज्जित ही करती हैं ।
सृष्टि के सृजन-संकल्प की यह उत्सव शृंखला-- शिव-रात्रि, होली, सरस्वती-पूजा और रामनवमी हमें सृजन में भी संयम, उल्लास में भी अनुशासन और विलास में भी विवेक के संस्कार देने के लिए है । सृजन से विसर्जन तक के चारों पुरुषार्थ- धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष भी संस्कारों और विवेक की प्रक्रिया से गुजरे बिना हासिल नहीं होते ।
ये पर्व, यह उत्सव-शृंखला हमें उन्हीं संस्कारों की और प्रेरित करे, यही अभीप्सित है ।
२६-२-२०१०
पोस्ट पसंद आई तो मित्र बनिए (क्लिक करें)
(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी । प्रकाशित या प्रकाशनाधीन ।
Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication.
Jhootha Sach
अच्छा संदेश!!
ReplyDeleteहोली की बहुत बहुत शुभकामनाएँ...
good
ReplyDeleteआप और आपके परिवार को होली की शुभकामनाएँ...nice
ReplyDelete