Feb 27, 2010

होली और संस्कारों का प्रह्लाद



माघ मेला -- हाड़ कँपा देने वाली ठण्ड में ब्रह्ममुहूर्त में गंगा-स्नान । चेतना पर पड़ी भौतिकता की बर्फ के विरुद्ध संकल्प का पर्व । अपने आप से निकलकर सृष्टि के विस्तार में परमेश्वर की अनुभूति का उत्सव ।

मकर संक्रांति -- प्रकृति के सुषुप्तावस्था से निकल कर जागरण की ज्योति में स्नान करने की सीमा-रेखा । निष्क्रियता से सक्रियता में गतिशील होने का बिंदु । इसी बिंदु से प्रारंभ होती है सृष्टि के सृजन-संकल्प की उत्सव-शृंखला । महाभारत-युद्ध के बाद शरशैया पर इसी पुण्य लग्न की प्रतीक्षा करते लेटे थे पितामह भीष्म ।

प्रकृति भी जैसे शीत-समाधि से निकलकर करवटें बदल कर जागने का उपक्रम करने लग जाती है । निराला इसी के स्वागत में गाते हैं- 'द्रुत झरो जगत के जीर्ण पत्र ।' नव किसलयों का मार्ग प्रशस्त करने के लिए जीर्ण पत्रों को झरना ही पड़ता है । तभी नव युग के नव विहग वृंद के नव पर नव स्वर मुखरित होंगे ।

इसी क्रम में सबसे पहले आती है शिव-रात्रि । शिव-पार्वती का प्रतीक तो है ही सृजन का प्रतीक । शिव कल्याण के देवता हैं । पता नहीं क्यों कुछ रूढ़ विचारकों ने उन्हें संहारक की भूमिका तक ही सीमित कर दिया । उनका संहार होता ही विकृतियों के ध्वंस पर नई कल्याणकारी सृष्टि का सृजन करने के लिए है । सृजन की ऊर्जा और उसको संतुलित करने का स्पष्ट विधान शिव की आराधना में मिलता है । शिव-लिंग पर जलाभिषेक उसी का प्रतीक है ।

सर्वशक्तिशाली और रुद्र होते हुए भी, शिव सर्वत्र शांत और संतुलित नज़र आते हैं । जब काम का अमंगलकारी रूप उन्हें नहीं सुहाता तो वे उसे भस्म कर देते हैं । 'मानस' में 'काम' की अति का वर्णन करते हुए तुलसी दास जी लिखते हैं-
'अबला विलोकहिं पुरुषमय, जग पुरुष सब अबलामयं ।'
यह तो मर्यादा के लिए अभिप्रेत नहीं है । काम-दहन करके शिव काम का निषेध नहीं कर रहे हैं वरन इस दुर्निवार ऊर्जा को साधने का विधान कर रहे हैं ।

इसी समय में प्रकृति अंगड़ाई लेकर जाग उठाती है । नई कोंपलों में उसके नेत्र निमीलित होते हैं । पलाशवन रक्त कुसुमों से दावाग्नि-दग्ध हो उठता है । पृथ्वी सूर्य के चारों और एक परिभ्रमण पूर्ण कर एक नई इकाई में प्रविष्ट होती है । वृक्षों में उनके तनों में इसके प्रमाणस्वरूप एक नया वलय बनता है । होली आते-आते सृष्टि अपनी समस्त जीर्णता त्याग कर एक नए रूप, एक नई ऊर्जा और एक नई कामना से पूर्ण होकर सृजन के लिए तत्पर होती है ।

हमारे सभी पर्व प्रकृति के साथ-साथ चलते हैं । उन सब की चरम परिणति होली के उत्साह और उल्लास में होती है । होली स्वयं से निकल कर सब में समा जाने का उपक्रम है । कुंठाओं से मुक्त होकर इसी धरती पर वैकुंठ उतार लाने का विधान है । परिवेश और आत्मा का समस्त कूड़ा-कर्कट जलाकर एक नया अध्याय शुरु करने का अवसर है । मगर यह भी विधान है कि होलिका-दहन में संस्कारों का प्रह्लाद सुरक्षित रहे ।

जब होलिका-दहन का 'डांडा' गाड़ा जाता है तो उसके बाद कई दिनों तक गोबर के बडकुल्लों के साथ ही सारे गाँव का कूड़ा-कर्कट भी उस 'डांडे ' के चारों तरफ इकठ्ठा कर दिया जाता है । यह 'डांडा' प्रह्लाद का प्रतीक है । पूर्णिमा को तय लग्न में होलिका-दहन के तत्काल बाद प्रह्लाद के प्रतीक उस 'डांडे' को निकाल लिया जाता है । यही प्रयत्न है कि कल्मष और कुंठा की होलिका का दहन तो हो पर संस्कारों के प्रह्लाद को कोई आँच नहीं आये ।

कुछ कुंठित लोग इसे रिश्तों की शालीनता को तोड़ने का एक मौका समझते हैं । तभी होली के बाद विवेक की देवी सरस्वती की अराधना का पर्व आता है । उल्लास में हमारी मर्यादा स्खलित न हो यही विवेक है, यही संस्कृति है । इसीलिए इसी के बाद आती है 'राम-नवमी' । मर्यादा पुरुषोत्तम राम के अवतरण का दिन । 'रामायण' में जब सुग्रीव सीता द्वारा फेंके गए आभूषण राम के सामने प्रस्तुत करते हैं और उन्हें पहचानने के लिए कहते है तो लक्ष्मण कहते हैं-
नाहं जानामि केयूरे, नाहं जानामि कुण्डले ।
नूपुरे त्वाभिजानामि नित्यं चरण वंदनात् ॥
अर्थात् न मैं बाजूबन्दों को जानता हूँ और न ही कुण्डलों को । मैं तो प्रतिदिन चरण-वंदना करने के कारण भाभी के दोनों नूपुरों को ही पहचान सकता हूँ । रामचरित मानस में राम और शिव की युति यों ही नहीं है वरन मर्यादा की चरम परिणति का निर्देश करने के लिए भी है ।

भारतीय चिंतन-धारा जहाँ एक तरफ विष्णु के लीला-अवतार कृष्ण को छूती है वही दूसरी और विष्णु के ही अवतार राम की मर्यादा के तट को छूती है । इन्हीं दोनों किनारों के बीच बहने वाली चिंतन और चेतना-धारा ही कल्याणकारी हो सकती है । तटों को तोड़ने के बाद तो नदी माँ कहाँ रहती है वह तो डायन हो जाती है । और विनाश का कारण बनती है । समस्त लीलाओं के बावजूद कृष्ण कहीं मर्यादा का उल्लंघन नहीं करते । यही विशेषता उन्हें अवतार और हमारा आराध्य बनाती है । राम में तो खैर मर्यादा की चरम सीमा है ही । पुष्प वाटिका में राम और सीता का मिलन, स्वतंत्रता के नाम पर चल पड़ी स्वच्छंदता के इस समय में एक दुर्लभ किन्तु अनुकरणीय उदहारण है । सप्तपदी के समय भी सीता राम के रूप को कंगन के नगों में ही निहारती है । चाणक्य कहते है कि राजा को जितेन्द्रिय होना चाहिए । 'जितेन्द्रिय' राजा का राज ही 'रामराज्य ' हो सकता वरना तो आजकल बड़े-बड़े महामहिमों की लम्पट-लीलाएँ संस्कृति को लज्जित ही करती हैं ।

सृष्टि के सृजन-संकल्प की यह उत्सव शृंखला-- शिव-रात्रि, होली, सरस्वती-पूजा और रामनवमी हमें सृजन में भी संयम, उल्लास में भी अनुशासन और विलास में भी विवेक के संस्कार देने के लिए है । सृजन से विसर्जन तक के चारों पुरुषार्थ- धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष भी संस्कारों और विवेक की प्रक्रिया से गुजरे बिना हासिल नहीं होते ।

ये पर्व, यह उत्सव-शृंखला हमें उन्हीं संस्कारों की और प्रेरित करे, यही अभीप्सित है ।

२६-२-२०१०

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(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी । प्रकाशित या प्रकाशनाधीन ।
Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication.
Jhootha Sach

3 comments:

  1. अच्छा संदेश!!

    होली की बहुत बहुत शुभकामनाएँ...

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  2. आप और आपके परिवार को होली की शुभकामनाएँ...nice

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