मिस्टर सार्कोजी
बधाई हो । आपने जून २००९ में कहा था- फ़्रांस में बुर्का स्वागत योग्य नहीं है । इसके बाद १३ नवम्बर २००९ को 'फ़्रांस की राष्ट्रीय पहचान' पर आयोजित एक कार्यक्रम में कहा कि फ़्रांस में सिर और बदन ढँकने वाले परिधान बुर्के के लिए कोई जगह नहीं है । फिर जनवरी २०१० के प्रथम सप्ताह में कहा कि बुर्का पहनने पर सात सौ पोंड का और बुर्का पहनने के लिए बाध्य करने वाले पर दुगुना जुर्माना लगाया जायेगा । इसके बाद संसद ने आपके इस प्रस्ताव का समर्थन भी कर दिया । मतलब कि आप एक निश्चित योजना के अनुसार बढ़ रहे हैं । वैसे अपनी किसी भी योजना को राष्ट्रहित और किसी बड़े आदर्श से जोड़ देना चाहिए । जब ज़मीन घेरनी हो तो उस पर कोई धार्मिक स्थान बनाना चाहिये । किसी दूसरे धर्म वाले से व्यक्तिगत दुश्मनी निकालनी हो तो अपने धर्म की बेइज़्ज़ती का मुद्दा बनाना चाहिए । यदि चुनाव में खड़े होना है और अपने कर्मों पर विश्वास नहीं है तो जाति के उद्धार की बात करनी चाहिए । सो आपने भी बुर्के को हटवाने के लिए फ़्रांस की पहचान को मुद्दा बनाया । फ़्रांस की पहचान की चिंता आप नही करेंगे तो क्या तोगड़िया जी करेंगे ? हमारी बात और है, हमारी राष्ट्रीय सुरक्षा की चिंता पहले बुश करते थे अब ओबामा कर रहे हैं ।
वैसे जहाँ तक सिर और पूरा शरीर ढँकने वाले कपड़े पहनने की बात है तो सारे संसार में ही औरतें और मर्द सभी सिर ढकते ही थे । आज भी पोप और नन्स का पहनावा इस का प्रमाण है । अन्य सम्प्रदायों में भी धार्मिक अधिकारी सिर ढकते ही हैं । जिसे किसी भी प्रकार काबिले-ऐतराज़ नहीं माना जाता । पर चूंकि अब देश की पहचान का सवाल आ गया तो फिर कोई समझौता नहीं न हो सकता ।
वैसे हमारे गाँधीजी तो कहा करते थे कि जब भी सांप्रदायिक चिह्न समाज में भेद-भाव फैलाने का काम करने लग जाएँ तब वे त्याज्य हो जाते हैं । वे स्वयं धर्म का कोई चिन्ह धारण नहीं करते थे । मज़े कि बात देखिये कि आज जितना सांप्रदायिक उत्पात दुनिया में कभी नहीं था और आज ही दुनिया इन तथाकथित पहचानों के चक्कर में सबसे ज्यादा है । इसका कारण कहीं से भी धार्मिक नहीं है बल्कि आर्थिक और राजनीतिक है । आज धर्म के द्वारा ही चंदा मिलता है और कहीं न कहीं सत्ता की राह भी इसी के थ्रू खुलती है । पहले तो पोप का दर्ज़ा राजा से भी बड़ा था । कट्टर देशों में आज भी राजा इन लोगों को संतुष्ट रखने में ही भलाई समझता है । इनके ठाठ और ठेकों की जाँच कोई नहीं करता । दुनिया में लाखों करोड़ डालर, पोण्ड और दीनारों का धंधा है यह । मुफ़्त का ठाठ ऐसे ही थोड़े छोड़ सकता है कोई ।
तो हमें विश्वास है कि आप फ़्रांस की पहचान को बचाने वाले इस 'वेल हटाइन ' कार्यक्रम में अवश्य सफल होंगे । 'वेल हटाइन' आप समझ ही गए होंगे । 'वेल' मतलब कि पर्दा और 'हटाइन' मतलब कि हटाना अर्थात् 'पर्दा हटाना' । अगर फ़्रांस में बुरके को ग़ैर कानूनी घोषित करना हो तो उसके लिए 'वेलेंटाइन डे' उर्फ़ 'वेल हटाइन डे' को ही चुनियेगा । हमारे अनुसार तो वेलेंटाइन डे का त्यौहार भी सभी प्रकार के 'वेल' अर्थात् 'पर्दे' हटाने का दिन है ।
हमारे यहाँ तो बेचारा नायक चिल्लाता ही रह जाता है कि- 'ये पर्दा हटा दो, ज़रा ज़लवा दिखा दो' । और नायिका है कि उससे भी ज़ोर की आवाज़ में चिल्लाती है- 'पर्दे में रहने दो, पर्दा ना उठाओ । परदा जो उठ गया तो भेद खुल जायेगा' । गाने तो दोनों अभी तक सुन रहे हैं । पर अभी तक यह दावे से नहीं कह सकते कि पर्दा उठा या नहीं । यदि परदा उठ गया तो उठने पर भेद खुला या नहीं ? यदि खुल गया तो वह कौन सा भेद था ? हमारे हिसाब से तो सबके वही दो हाथ-पैर, दो आँखें, एक नाक दो कान होते हैं । पता नहीं, नायिका कौन सा भेद छुपाना चाहती है और नायक पर्दा हटवाकर कौन सा ज़लवा देखना चाहता है ।
पर अब तो हमारे यहाँ भी लड़कियाँ छोटे से निक्कर और छोटी सी बिना बाँहों की कमीज़ में नज़र आने लगी हैं । हमारे यहाँ बुर्का और घूँघट अभी भी हैं पर बिना किसी कानून के ही धीरे-धीरे समाप्त हो रहे हैं । आपकी तरह कानून बनाने की मज़बूरी नहीं आई । आपकी फ़्रांस की पहचान की बात हम बाद में करेंगे पर अभी तो पर्दा हटाओ अभियान पर ही ध्यान केन्द्रित करें । सो आप बुर्का पहनने जैसी आपराधिक गतिविधि को रोकने के लिए कानून बनाने में ज़ल्दी करें और इस वेलेन्टाइन डे को यह कानून लागू कर ही दें । इस वेलेन्टाइन डे से बुर्का पहनने के अपराध में जो जुर्माना वसूला जाये उसे लँगोटी लगाये, सार्वजनिक रूप से चूमा-चाटी करते, फ़्रांस की पहचान को बचाए रखने वाले जोड़ों को पुरस्कार स्वरूप दे दिया जाये जिससे वे ठण्ड से बचने के लिए दारू खरीद सकें और ठण्ड लग जाने पर जुकाम की दवा का प्रबंध कर सकें क्योंकि हमारे यहाँ तो अभी ठण्ड जम कर पड़ रही है । आपके फ़्रांस में तो और भी ज्यादा ठण्ड पड़ रही होगी । ऐसे में कम कपड़े पहनने की फ्रेंच-संस्कृति को बचाना बड़े साहस का काम है ।
कुछ लोग कहते हैं कि जब से अमरीका में आतंकवाद की घटना हुई है तब से सारे गोरे देश इस्लाम से बहुत डरने लग गए हैं । इस्लाम के प्रतीकों में भी उन्हें व्यापक विनाश के हथियार नज़र आने लगे हैं । सभी गोरे देशों ने अफ्रीका और एशिया के देशों पर राज किया और वहाँ के कच्चे माल के साथ-साथ वहाँ के लोगों को भी सस्ती मज़दूरी के लिए ले आये । उस समय किसी को भी न तो उनके रीति-रिवाजों, धार्मिक-स्थानों और पहनावे से डर लगा और न ही उनके काले बुर्के से । अब हालत यह है कि डेनमार्क में मस्ज़िदों की मीनारों से भी डर लगने लगा है । जब अमरीकी काले लोगों को मज़दूरी करवाने के लिए गुलाम बना कर ले गए थे तब वे बोझा नहीं थे मगर अब 'व्हाइट मैन्स बर्डन' बन गए हैं । पर हम इस बात से सहमत नहीं हैं । आप तो फ़्रांस की संस्कृति और मूल्यों की रक्षा के लिए यह पर्दा हटवाने की कोशिश कर रहे हैं ।
कुछ लोग परदे को भी संस्कृति से जोड़ देते हैं । हमारे यहाँ तो शादी के बाद पत्नी पति तक को भी तब तक अपना मुँह नहीं दिखाती जब तक वह उसे मुँह दिखाई नहीं दे देता । अन्य औरतें भी जब नई दुल्हन का मुँह देखना चाहती हैं तो उन्हें भी मुँह-दिखाई का नेग देना पड़ता है । हालाँकि हमारे यहाँ तो पुरानी औरतों को तो ऐसा अभ्यास हो गया है कि वे घूँघट निकाल कर भी सारे काम आसानी से कर लेती हैं । आजकल कई महिलाएँ घूँघट निकाल कर सरपंची तक कर रही हैं । कई साहसी महिलाएँ तो घूँघट निकाल कर आपने ससुर तक से लड़ भी लेती हैं । इस प्रकार अपनी संस्कृति की रक्षा भी कर लेती हैं और अपने सशक्तीकरण का भी प्रमाण दे देती हैं । फिर भी आजकल कोई भी पर्दा प्रथा का समर्थन नहीं करता । शर्म तो आँखों की होती है । बेशर्म परदे में भी सभी खुराफातें कर जाती है और शर्म वाली खुले मुँह भी गलत काम नहीं करती ।
घूँघट अर्थात् पर्दे के कुछ फायदे भी हैं । झीने घूँघट में सारी कमियाँ छुप जाती हैं । पहले, दिन में तो पत्नी का मुँह देखने का अवसर ही नहीं मिलता था । रात तो अवसर मिलता था तो लगता था कि आज ही पहली बार मिल रहे हैं । ज़िंदगी भर आकर्षण बना रहता है । तभी हमारे यहाँ एक गीत है- 'थारै घूँघटिये मैं सोळा सूरज ऊग्या ए मरवण' । पहले यह सब चलता था पर अब तो एक सूरज से ही ग्लोबल वार्मिंग का खतरा हो गया है । सोलह को कौन बर्दाश्त करेगा । सौंदर्य पूरा ही एक साथ दिख जाये तो उसका आकर्षण ख़त्म हो जाता है । तभी अंग्रेजी में भी तो कहा गया है- हाफ कंसील्ड एंड हाफ रिवील्ड । कभी आधे घूँघट में से, एक आँख से झाँकती नायिका का चित्र देखा है ? आपके योरप में पूरा चेहरा ही क्या सारा शरीर ही सारे दिन दिखता रहता है । चोली और चड्डी बस इतनी सी रहती है कि कानूनी रूप से गुप्त अंग न दिखें । वैसे कोशिश यही रहती है कि सब कुछ पारदर्शी हो जाये । राजनीति और अर्थ व्यवस्था में जहाँ पारदर्शिता होनी चाहिए वहाँ तो हज़ार चोरी और जहाँ थोड़ी बहुत लाज-शर्म होनी चाहिए वहाँ कोई सीमा नहीं । हमें लगता है कि यह जो एक दो सेंटीमीटर कपड़ा बचा है वह भी ज़ल्दी ही गायब हो जायेगा । ऐसी संस्कृति की यही परिणति होनी है । तब शायद बाज़ार तन ढँकने के धंधे से कमाई करने की रणनीति बनाएगा ।
वैसे घूँघट के नुकसान भी हैं । एक फिल्म आई थी- घूँघट, जिसमें घूँघट के चक्कर में दुल्हिनें ही बदल गई थीं । यदि घूँघट या पर्दा होता तो आप कार्ला ब्रूनी का सौंदर्य और उसकी फिगर कैसे देख पाते ? और कैसे यह महा-मिलन हो पाता ? हो सकता है कि आपको अपनी पहली दोनों पत्नियों को इतनी पारदर्शिता से देखने का अवसर नहीं मिला हो । आपने उनकी फिगर का अनुमान ३६-२४-३६ का लगाया हो और निकली हो ३४-३२-३५ । अब इतना बड़ा अन्याय कैसे सहा जाये । कोई कह सकता है कि इसमें बच्चों की क्या गलती । पर बच्चों का क्या । अपना भी तो कोई जीवन होता है । पर अगर कार्ला की फिगर वह नहीं रही तो ? पर कार्ला चतुर है । वह आपको ढीला नहीं छोड़ेगी और 'सी-बीच' पर तो जाने ही नहीं देगी वरना क्या पता वहाँ और कोई माडल दिख जाये ।
फ़्रांस में इस समय केवल १९०० बुरका पहनने वाली बची हैं । वे भी धीरे-धीरे कम हो जायेंगी । पर तब तक क्या पता बुर्के में छुप कर कोई आतंकवादी पुरुष ही आ जाये तो ? वैसे असली मुद्दा बुर्का है भी नहीं, मुद्दा तो आतंकवाद है ।
बहुत हो गया । फिलहाल तो सब कुछ ठीक है । क्यों आपके नए नए वेलेंटाइन में बाधा डालें ।
अच्छा तो 'हैप्पी वेल हटाइन डे' ।
२८-१-२०१०
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(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी । प्रकाशित या प्रकाशनाधीन ।
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Jhootha Sach
Thats gr8, joshi ji ! वेल हटाइन डे':)
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