Feb 10, 2010

ज़रदारी - सामान सौ बरस का, पल की खबर नहीं

ज़रदारी जी,
क्या बताएँ । नए बरस की क्या तो शुभकामनाएँ दें और किस तरह विश करें । 'आदाब' तो कहने की ज़रूरत ही नहीं क्योंकि 'दबाने' की तो आप हमेशा से ही सोचते रहे हैं । इसमें आपकी की ज्यादा गलती नहीं क्योंकि आपको परंपरा से ही यह सिद्धांत मिला है । वैसे यह सिद्धांत कोई विशेष लाभकारी नहीं रहा पर नया सोचने की क्षमता सभी में नहीं होती । ज़्यादातर लोग लीक पर ही चलते हैं । पर जो कहा गया है उस पर भी विचार कर लें-
लीक-लीक गाड़ी चले लीकन चले कपूत ।
इतने लीक न चालसी सायर, सिंह, सपूत ॥

सभी न सायर होते हैं, न सिंह और न सपूत ।

आपकी और हमारी भाषा में कोई खास फरक नहीं है और न ही संस्कृति में । इसलिए आशा है कि समझ तो लेंगे पर आचरण तो किसी का अच्छा भाग्य होता है तो करता है । हमें तो लगता है कि आपकी हालत दुर्योधन जैसी है । वह कहता है - 'जानामि धर्मं न च मे प्रवृत्ति, जानामि अधर्मं न च मे निवृत्ति ।'
धर्म को जानता हूँ पर उसमें मन नहीं लगता और अधर्म को भी जानता हूँ पर उससे मेरा छुटकारा नहीं ।

इस देश के (हम अविभाजित भरत की बात कर रहे हैं ) लगभग सभी संत कहते आये हैं - 'सामान सौ बरस का, पल की खबर नहीं ।' यह बात सिकंदर को भी समझ में आई पर बड़ी देर से । मरते समय उसने कहा था कि उसके हाथ उसके ज़नाज़े से बाहर निकाल कर ले जाया जाये जिससे लोग समझ लें कि विश्व विजेता सिकंदर अपने साथ कुछ नहीं ले जा रहा है ।

अब आप भारत के साथ हज़ार साल तक युद्ध लड़ने की बात कर रहे हैं (७ जनवरी २०१०)। आपने अपने ससुर साहब ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो का भी उल्लेख किया । यदि आप नहीं करते तो हम करते । अल्लाह उन्हें जन्नत बक्शे । उनके समय शुरु हुए युद्ध का क्या परिणाम हुआ और उसके बाद उन्हें आपने ही बिरादर राष्ट्रपति से क्या-क्या न सहना पड़ा, उसकी चर्चा करके क्यों पुराने घावों को कुरेदा जाये । फिर भी आदमी चाहे तो भूतकाल से कुछ शिक्षा तो ले ही सकता है । इतिहास इसीलिए पढ़ाया जाता है । कुछ लोग ठोकर खाकर समझ जाते हैं, कुछ दूसरे को ठोकर खाते देखकर समझ जाते हैं और कुछ इतने दृढ़निश्चयी होते हैं कि बार-बार ठोकर खाकर उसी 'बोरवेल' में जा गिरते हैं ।

इतिहास में बड़े-बड़े लड़ाके हुए हैं जिन्होंने लाखों की सेना सजाकर कूच किया और दुनिया को रौंद डाला । न खुद चैन से जिए और न औरों को जीने दिया । चंगेज़ खान, तैमूरलंग, मोहम्मद गौरी, मोहम्मद गज़नवी, बाबर, तातार, शक, हूण आदि-आदि । इनमें से अधिकतर को यह देश बहुत अच्छी तरह से जानता है क्योंकि इसीने सबसे ज्यादा भोग है । पर उसी इलाके से ख्वाजा साहब भी तो आये थे जिनकी मज़ार पर आकर सभी लोग सज़दा करते है- क्या हिन्दू और क्या मुसलमान । इसी इलाके में गुरु नानक हुए हैं जिनका सबसे प्रिय शिष्य था मरदाना । कबीर के बारे में अभी तक यह तय नहीं हुआ है कि वे हिन्दू थे या मुसलमान पर इतना तय है कि सभी उनके शिष्य थे और सभी उन्हें गुनगुनाते हैं । आपने इनके बारे में पढ़ा भी है या नहीं । हम पक्के तौर पर कह सकते हैं कि यदि पढ़ा है तो भी गुना तो बिलकुल ही नहीं ।

वैसे आपको पढ़ने-गुनने की ज़रूरत भी क्या है । जागीरदार परिवार से हैं । न खाने की कमी रही, न पीने की । जब कोई कमी ही न लगे तो बिना बात दिमाग खपाने की क्या ज़रूरत । ये तो कबीर जैसे ही होते हैं जो जागते हैं और रोते हैं (शायद आप जैसे खाते-सोते लोगों के लिए) । युद्ध लड़ने की बात वही कर सकता है जिसे वास्तव में युद्ध में जाना, मरना या घायल नहीं होना पड़ता है । साधारण लोगों को तो आपने पेट के लिए कोई रोज़गार चाहिए । घर पर भूखे मरने से तो अच्छा है कि सेना में जाकर रोटी खाते हुए मरें । युद्ध में कोई किसी को मारना नहीं चाहता पर जब सामने से कोई बंदूक लेकर आ जाता है तो अपनी जान बचाने के लिए डर के मारे गोली चलानी ही पड़ती है । दोनों तरफ के ही वीरों का यही हाल है । सच है, अगर आदमी को बिना लड़े कोई रोज़गार मिल जाए तो आदमी युद्ध में कभी नहीं जाये । तभी तो आपने कभी नेताओं और सेठों के बच्चों को सेना में भर्ती होते देखा है ? वे तो सेना में सप्लाई का ठेका लेते हैं, हथियारों की खरीद में कमीशन खाते हैं । लोग तो पैसे के लिए अस्पताल की दवाओं में ही पैसा खा जाते हैं फिर हथियारों का काम तो करोड़ों का होता है । यदि दस प्रतिशत भी खाएँ तो सात पुश्तों का इंतज़ाम हो जाता है । खाए बिना स्विस बैंक में खाते कैसे खुलते हैं ।

तो आप भारत से हज़ार साल तक युद्ध लड़ना चाहते हैं । इसमें आपने स्पष्ट भी कर दिया है कि भुट्टो का मतलब भी वास्तविक युद्ध ही था कोई वार्ता-शार्ता न समझ ले । लड़ने के लिए हथियार ही तो चाहियें सो अमरीका और चीन देने के लिए तैयार हैं ही । पहले भी देते रहे हैं, अब भी देंगे । वैसे हथियारों की क्या कमी है । आतंकवाद से लड़ने के नाम पर आ तो रहे हैं और रूस से लड़ने के लिए आये हुए हथियार भी अब तक कहाँ ख़त्म हुए हैं । हमारा तो इतना ही कहना है कि हथियारों का कमीशन ही इकठ्ठा करते रहेंगे या कभी शांति से बैठ कर उस कमीशन का उपभोग भी करेंगे । जीवन अनंत नहीं है । आप तो हज़ार बरस की बात करते हैं पर खबर तो पल भर की भी नहीं है । बेनजीर ने भी कब सोचा था कि चुनाव वे जितायेंगी, लाटरी आपके नाम की निकाल आयेगी । यदि बेनजीर होती तो आपको यह पद कभी नहीं मिलता ।

हमें तो जीवन का ज्यादा विश्वास नहीं है । हम तो सोने से पहले भगवान को सारा हिसाब देकर सोते हैं । क्या पता अगले दिन उठें या नहीं । आप पता नहीं, कोई अमर फल खाकर आये हैं क्या जो हज़ार साल लड़ने की सोचते हैं । वैसे हिटलर, अमरीका कोई भी तो इतना लम्बा युद्ध नहीं लड़ सका । फ़्रांस और इंग्लैंड भी कभी हज़ार साल का युद्ध लड़ने की बात करते थे पर अब देखिये दाँत काटी रोटी है । यदि लड़ते रहते, जो कि संभव नहीं है, तो शायद दोनों में से कोई भी आज नहीं होता ।

हम तो कहते हैं कि युद्ध में घायल होने वालों, मरने वालों और उनके परिवारों के बारे में सोचिये, पाकिस्तान के आर्थिक दृष्टि से पिछड़े, गरीब, और बेकार, अशिक्षित लोगों के बारे में सोचिये । पर इस रास्ते में एक ही ख़तरा है कि कहीं अशोक बन गए तो ? फिर तो चैन की नींद गायब हो जायेगी और प्रजा के भले की सोचते-सोचते ही रात कट जायेगी ।

पर उसमें जो मज़ा है उसे व्यक्ति भगवान की कृपा से ही जान सकता है और प्राप्त कर सकता है ।

८-१-१०

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(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी । प्रकाशित या प्रकाशनाधीन ।
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Jhootha Sach

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