Feb 18, 2010

बुरे फँसे,थरूर जी


थरूर जी,

हमारी ओर से नए साल की बधाई और हार्दिक संवेदनाएँ । आप जब भी कुछ बोलते हैं या अपने ट्विट्टर पर टर्राते हैं तो लोग कुछ न कुछ बहाना बना कर आपकी टाँग खींचने लग जाते हैं । पहले 'केटल क्लास' क्या कह दिया, लोग पायजामें से बाहर हो गए जैसे किसी महाराजा को मवाली कह दिया हो । इस देश के अधिकतर लोग मवेशी नहीं हैं तो और क्या हैं ।

अमरीका में दो तरह की मक्का होती है । एक आदमियों के खाने की और दूसरी जानवरों के खाने की । अपने यहाँ तो एक ही प्रकार की मक्का होती है जिसे आदमी और जानवर समान भाव से खाते हैं । यहाँ पता नहीं, आदमी का स्तर गिर गया है या जानवरों का स्तर ऊँचा हो गया है पर यह तय है कि दोनों एक ही लेवल पर आ गए हैं । कनाडा में भी दो तरह की मटर होती हैं- एक जानवरों के खाने की और एक मनुष्यों के खाने की । उस मटर की दाल की शक्ल कुछ-कुछ तूअर दाल जैसी होती है । सरकार तूअर दाल के लिए हाय-हाय मचाने वाले भारतीयों के लिए वही जानवरों के खाने वाली कनाडा की सस्ती मटर मँगा रही है । अब इसे क्या कहेंगे ? जब आप यहाँ के ग़रीबों को केटल की उपमा दें तो हल्ला और जब सरकार इनको खिलाने के लिए जानवरों वाली दाल मँगाए तो कुछ नहीं । आपने तो उपमा अलंकार का प्रयोग किया था पर सरकार ने तो यहाँ के मनुष्यों को ओफिसियली जानवर स्वीकार कर लिया है और उनके लिए बाकायदा जानवरों के खाने वाली दाल मँगाई जा रही है । आपने तो अमरीका में रहते हुए आदमियों के खाने वाली मक्का ही खाई होगी । हमें तो बिलकुल भी अच्छी नहीं लगी । मीठी-मीठी सी, पिलपिली सी, लिजलिजी सी ।

ईसाई धर्म में तो मनुष्यों को भगवान की भेड़ें ही माना गया है । इन्हीं भेड़ों की ऊन उतारने के लिए तरह-तरह के धार्मिक सज्जन सारी दुनिया में घूम रहे हैं । लोग अपने नाम के आगे 'सिंह' लगाते है । कोई उनसे पूछे - सिंह का अर्थ क्या मनुष्य होता है ? सोरव गांगुली और मंसूर अली खान (सैफ अली खान के पिताश्री ) को लोग 'टाइगर' कहते हैं पर वे साहित्य और अंग्रेजी समझते हैं इसलिए नाराज़ नहीं हुए । हम भी भाषा के अध्यापक रहे हैं, भले ही अंग्रेजी के न सही । भाषा के मामले में इस देश में बड़ी समस्याएँ आती हैं । लोग भाषा नहीं समझते और साहित्यिक भाषा तो बिल्कुल भी नहीं । और साहित्यिक अंग्रेजी तो बिल्कुल-बिल्कुल भी नहीं । और आप लाचार हैं अपने लेखक होने और अंग्रेजीदाँ होने से । तो भुगतो भाई ।

अभी पिछले दिनों आपने नेहरू जी के बारे में कुछ क्या कह दिया, लोगों ने बिना सोचे-समझे बवाल खड़ा कर दिया । अब नेहरू जी होते तो आपकी अंग्रेजी समझते । अंग्रेजी को सही न समझने वाले लोग किस तरह से परेशानी खड़ी कर देते हैं, इसके लिए हम आपको कुछ लोककथाएँ सुनायेंगे जिससे आपको भारत के अंग्रेजी के लोकानुभावों का पता चलेगा । उससे आपको अंग्रेजी और लोक के सम्बन्ध का ज्ञान होगा जायेगा जो आपके आगे काम आएगा- ट्विटर पर टर्राने में ।

पर पहले हम हिन्दी से जुड़ा एक अनुभव बताना चाहेंगे । उन दिनों हम दिल्ली में थे । बहस तो आजकल गाँवों तक में होने लगी है सो दिल्ल्ली तो राजधानी है । स्टाफ रूम में बात हिन्दी ज्ञान की चल रही थी । भाग लेने वालों में एक उत्तर प्रदेश के सज्जन भी थे । हमने कहा- भाई, उत्तर प्रदेश का तो कुत्ता भी हिन्दी जानता है । वे सज्जन हम पर चढ़ दौड़े- आप उत्तर प्रदेश वालों को कुत्ता कहते हैं । हम में काटो तो खून नहीं । हमने तो अपने हिसाब से उत्तर प्रदेश के हिन्दी ज्ञान की प्रशंसा की थी और तिस पर सुनने को यह मिला । अब आप अनुमान लगा लीजिये कि भारत में अंग्रेजी की टाँग तोड़ने वालों को किस तरह की समस्याओं का सामना करना पड़ता होगा ।

किसी गाँव में एक लड़का रहता था । वह अपने गाँव का सबसे ज्यादा अंग्रेजी पढ़ा हुआ बालक था-छठी पास । वह जब गाँव के लोगों से अंग्रेजी में बातें करता तो लोग कुछ नहीं समझते । लड़का बहुत परेशान रहता । एक बार उस गाँव में एक अंग्रेज भटकता हुआ आ गया और लोगों से अंग्रेजी में कुछ कहने लगा । लोग कुछ नहीं समझे । तब उन्हें उस लड़के की याद आई । लड़के को बुला कर लाये और कहा - अब इस अंग्रेज से बात कर । लड़के ने भिड़ते ही गाय पर दस वाक्य उस अंग्रेज को सुना दिए । अंग्रेज पहले तो हक्का बक्का रह गया फिर अंग्रेजी में और कुछ बोला । लडके ने स्कूल में याद की हुई 'बीमारी के कारण तीन दिन की छुट्टी की अप्लीकेशन' फटाफट सुना दी । अब तो अंग्रेज को गुस्सा आ गया । उसने लडके को एक झांपड़ रसीद कर दिया । लोगों ने मजाक उड़ाते हुए कहा- 'देख लिया ना । बहुत अंग्रेजी झाड़ता था ।' लड़के कहा- उसने अंग्रेजी में कमी के कारण झांपड़ नहीं मारा । वह तो कह रहा था- मूर्ख, इतनी अच्छी अंग्रेजी जानते हुई भी तू यहाँ इन जाहिलों में क्यूँ पड़ा है । चल मेरे साथ इंगलैंड । पर मुझे गाँव से बहुत प्रेम है सो में गाँव छोड़ कर जाना नहीं चाहता ।

इसी तरह अंग्रेजी की एक और लघु कथा है- एक सियार किसी शहर में जाकर नब्बे घंटे में अंग्रेजी बोलने का प्रमाण-पत्र ले आया और अपनी पत्नी पर रौब ज़माने लगा- 'अब मैं अंग्रेजी जान गया हूँ । दूसरे देशों का तो पता नहीं, पर भारत में मुझे कोई ऐसे-वैसे टरका नहीं सकता । यह देख प्रमाण-पत्र मतलब कि पट्टा ।' तभी शहर की तरफ से कुछ कुत्ते दौड़ते हुए आये । सियार सिर पर पैर रख कर भागा । पत्नी ने कहा- 'ए जी, आप भाग क्यों रहे हैं । इनको अपना पट्टा दिखाते क्यों नहीं ।' सियार ने दौड़ते हुए कहा- 'ये तो अनपढ़ लोग हैं । अंग्रेजी क्या समझेंगे । इनके मुँह लगने से कोई फायदा नहीं । भागने में ही सार है ।' सो भाई साहब, ये भारत है । इसलिए यहाँ दूसरी ही अंग्रेजी चलती है ।

हमारे हिसाब से तो आप संयुक्त राष्ट्र संघ में ही मज़े में थे । आराम से अच्छी तनख्वाह पेलते और किताबें लिखते और ट्विटर पर टरटराते । संसद रहते हुए किताबें और वह भी अंग्रेजी में लिखकर तो अडवानी जी और जसवंत सिंह तक चक्कर में पड़ गए । हमारी मानो तो छोड़ो यह लोकसभा की सदस्यता और दे दो इस्तीफा । पेंशन तो मिलेगी ही, मुफ़्त की यात्रा और मेडिकल फेसेलिटी ऊपर से । जहाँ तक खाने का सवाल है दिल्ली में संसद के आसपास ही कहीं बस जाइए और दोनों समय खाना खाइए साढ़े-बारह और साढ़े बारह रुपये मतलब कि पच्चीस रुपये रोज़ में । और क्या चाहिए ?

यहाँ के आटे, दाल, प्याज़,आलू, चीनी के भाव बताकर हम आपका मूड बिना बात खराब नहीं करना चाहते ।

१२-१-२०१०

पोस्ट पसंद आई तो मित्र बनिए (क्लिक करें)





(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी । प्रकाशित या प्रकाशनाधीन ।
Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication.
Jhootha Sach

No comments:

Post a Comment