Feb 14, 2010

अच्छा तालिबान


[सन्दर्भ- अमरीका ने अफगानिस्तान के थ्रू अच्छे तालिबानों को हथियार छोडने के बदले नकद, ज़मीन, नौकरी और राजनीति में हिस्सेदारी देने की पेशकश की, २७-१-२०१ ]

1.
हुआ यूँ कि रात को दो बजे ही नींद खुल गई । जब कई देर तक नींद नहीं आई तो सोचा कि कुछ पढ़ ही लें । पढ़ते-पढ़ते चार बज गए । सोचा अब क्या सोएँगे । सो किताब बंद करके लेट गए कि थोड़ी देर में दूध वाला आएगा तो चाय बनायेंगे । पर ऐसी नींद लगी कि पता नहीं कि कब दूधवाला आ गया और कब अखबारवाला । पत्नी ने धीरे से कान के पास मुँह लाकर कहा- सुनते हो, किसी ने बाहरसे आवाज़ दी पर तुम्हारी तो नींद ही नहीं खुली । मुझे रसोई में आवाज़ सुनी तो दरवाज़ा खोला । तो क्या देखती हूँ कि एक पतला सा दाढ़ी वाला आदमी दरवाजे पर खड़ा है, कह रहा है- क्या उस्ताद साहब घर पर तशरीफ फ़रमा हैं ? उन्हें बाहर भेजिए । मैनें पूछा तुम कौन हो तो बोला- हम अच्छे तालिबान हैं ।

हमारा तो दिमाग चकरा गया । तालिबान और अच्छे । वकील और सच्चा, डाक्टर और संवेदनशील, नेता और ईमानदार । कैसा विरोधी बातों का संगम है । लोग कहते हैं कि अधिकतर साँप ज़हरीले नहीं होते पर भाई साहब, ज़हरीला है कि नहीं यह तो बाद में पता चलेगा पर उससे पहले ही आदमी डर के मारे मर जायेगा । तालिबान तो तालिबान है क्या अच्छा और क्या बुरा । कहा भी है- 'काटे, चाटे स्वान के दुहूँ भांति विपरीत ' । न डरने का नाटक करते हुए कहा- अच्छा तालिबान है तो उसे कुर्सी पर बैठाओ और चाय बना दो । पर उसके सामने काला कम्बल ओड़कर जाना क्योंकि सुनते हैं कि वे परदे के बड़े पाबंद होते हैं । पढाई को भी पसंद नहीं करते सो पूछे तो कह देना कि मैं तो अंगूठा छाप हूँ । नहीं तो पता नहीं तुम्हें गोली ही न मार दे ।

बाहर आकर देखा तो आकार प्रकार से लगा कि एक तालिबान के दो पीस कर दिए हों । लगता था कि वह खड़ा हुआ भी ओसामा की कमर तक ही आएगा । फिर भी सावधानी बरतते हुए ढंग से ही बात शुरू की- तो अच्छे तालिबान साहब, आप खड़े क्यों हैं । तशरीफ़ फ़रमायें ।

उसने अपना टोपा कुर्सी पर रख दिया । हमने फिर कहा- अजी, तशरीफ़ रखिये । तो उसने अपना कोट उतार कर कुर्सी पर रख दिया । बड़ा अजीब लगा कि यह शख्स क्या कर रहा है । हमने ज़रा जोर से कहा- अरे मियाँ, तशरीफ़ रखिये ना । इस पर उसे भी ताव आगया । कहने लगा- अब इससे ज्यादा तशरीफ़ रखकर सर्दी में मरना है क्या ?

हमने उसे पहचान लिया और उसकी दाढ़ी खींचते हुए कहा- अरे तोताराम ! यह क्या नाटक है ।

बोला- अफगानिस्तान जा रहा था, सो आ गया । तू चले तो तुझे भी ले चलूँ । चलना है तो तैयार हो जा ।

हमने कहा- तेरा दिमाग खराब है क्या ? एक तो वैसे ही बिना पासपोर्ट के क्या, पासपोर्ट होने पर भी सीमा पर कोई भी पाकिस्तानी पुलिस वाला पकड़ कर जेल में डाल देगा ।

तोताराम बोला- अब वह बात नहीं है, अब तो अमरीका ने पकिस्तान को कह दिया है कि कहीं से भी, कोई भी अच्छा तालिबान मिले तो तुरंत पकड़ कर हाज़िर करो । हम कह देंगे कि हम अच्छे तालिबान हैं और हम अफगानिस्तान की मुख्य धारा में शामिल होना चाहते हैं । बस वे हमें नेटो सेना के कमांडर के सामने हाज़िर कर देंगे और वह हमें दस-बीस लाख रुपये और बीस-तीस बीघा ज़मीन दे देगा ।

हमने कहा - तोताराम हमें न तो पश्तो आती है और न ही फ़ारसी, और फिर उन उजड्ड लोगों के बीच अपनी पार भी नहीं पड़नी । पाँच-सात बरस बचे हैं सो यही काट लेंगे ।

तोताराम बोला- तो क्या मुझे बसना है वहाँ । अरे, नकद पैसे जेब के हवाले करेंगे और ज़मीन जितने में बिकेगी बेच-खोच अपना आ जायेंगे इधर ।

हमने कहा- पर अगर उसने कहा- बंदूक जमा करवाओ तो क्या कहेंगे ।

तोताराम बोला- इसमें क्या है । कह देंगे- अजी, हम तो आपका प्रस्ताव सुनकर ही इतने अच्छे बन गए कि बंदूक वहीं फेंक दी और पूरे सूफ़ी बन कर आगये आपकी शरण में ।

हमने कहा- तोताराम, अभी तो प्रस्ताव आया है । ज़रा इंतज़ार करलें । ठंडा करके कहना ठीक रहेगा वरना मुँह जल जायेगा ।



2.
अगर समझाने से ही मान जाये तो तोताराम ही क्या । बोला- मास्टर यह ज़माना धीरज का नहीं है । चतुर सम्पादक किसी नेता के मरने का इंतज़ार नहीं करते, वे तो उसके बीमार होते ही देहांत का विशेष परिशिष्ट तैयार कर लेते हैं । समझदार माता-पिता बच्चा पैदा होते ही एडमीशन के लिए उसके नाम का रजिस्ट्रेशन करवा देते हैं । आजकल समय का बड़ा महत्व है । सुना नहीं, नायक कहता है- मेहंदी लगाके रखना, डोली सजाके रखना, लेने तुझे ओ गोरी, आयेंगे तेरे सजना, । पता नहीं कौनसा सर्वार्थ-सिद्धि योग मिस हो रहा है ।

हमने सोचा कि यह मानने वाला नहीं है । हमारा मन भी अपने बाल-सखा को अकेले अफगानिस्तान जाने देने का नहीं हो रहा था सो दोनों तरफ के किराये और खाने-खर्चे के लिए दो हज़ार रुपये जेब में डाले और कम्बल कंधे पर डाल चल पड़े तोताराम के साथ अफगानिस्तान के लिए ।

सोच रहे थे कि पता नहीं बार्डर पार करने में कितनी परेशानी आयेगी । पर वहाँ तो नज़ारा ही कुछ और था । लाइन लगी हुई । वाघा बार्डर पर इतना ही पूछा- क्या अच्छे तालिबान हो ? हमने एक स्वर से कहा- जी हाँ । और आगे बढ़ गए । उस तरफ मतलब कि पाकिस्तान में भी यही हाल था । वहाँ भी चेकिंग-वेकिंग कुछ नहीं बल्कि बड़े आदर से स्वागत किया- 'खुशामदीद, अच्छे तालीबान जी ' । हमारा तो दिल गदगद हो गया । सीमा पर पता नहीं क्यों लोग गोलीबारी की झूठी खबरें फैलाते हैं । यहाँ तो बड़ा सभ्य वातावरण है । कितने प्यार से पेश आ रहे हैं लोग जैसे कि हम शादी में आये हैं । हमने पूछा- बिरादर, आपको कैसे पता चला कि हम अच्छे तालिबान हैं । उसने उत्तर दिया- यहाँ तो २७ जनवरी की रात से ही आने वालों का ताँता लगा हुआ है । सभी अच्छे तालिबान हैं । हमें लगा कि अमरीका तालिबानों को बिना बात ही बदनाम कर रहा है । दूर-दूर तक कहीं भी कोई बुरा तालिबान दिखाई नहीं देता ।

प्रहरी ने हमारी तन्द्रा भंग की- अरे भई अच्छे तालिबानों, क्या सोच रहे हो । वो सामने जो बस खड़ी है उसमें घुस जाओ वरना भीड़ और बढ़ जायेगी । पर बस में भी कहाँ जगह थी । किसी तरह छत पर चढ़ गए । अफगानिस्तान जाकर देखा तो नज़ारा ही कुछ और था । हजारों लोग कम्बल ओढ़े एक मैदान में बैठे थे । हम भी उनमें शामिल हो गए । शाम को जाकर कहीं हमारा नंबर आया ।

तम्बू में दाखिल हुए । वहाँ एक अमरीकी अधिकारी बैठा था । उसने जाते ही फटाफट पूछा-
अधिकारी- तुम्हारा नाम ?
तोताराम ने कहा-जी, मेरा नाम 'तोताराम अच्छा तालिबान' है ।
हमने कहा- जी मेरा नाम रमेश जोशी है । इसके अलावा हमारे दोनों के रेज्यूमे एक ही हैं । सो तोताराम ही ज़वाब दे देगा ।
अधिकारी- तुमने अब तक बुरका न पहनने के जुर्म में कितनी महिलाओं के नाक-कान काटे ?
तोताराम- जी हमने ऐसा कोई काम नहीं किया ।
अधिकारी- कितने मदरसों को बम से उड़ाया ?
तोताराम- जी हमने कहा ना हम अच्छे तालिबान हैं । हम ऐसा कैसे कर सकते हैं ।
अधिकारी- कितने भीड़ भरे स्थानों पर बम रखे और उस हादसे में कितने लोग मरे ?
तोताराम- जी, हम वास्तव में अच्छे तालिबान हैं ।

अधिकारी ने खा जाने वाली नज़रों से तोताराम को देखा और चिल्लाता हुआ सा बोला- तो फिर क्यों यहाँ हमारी खोपड़ी खाने आ गया । यहाँ कोई खैरात बँट रही है क्या । चला आया अच्छा तालिबान । तेरे जैसे अच्छे तालिबान हमारे यहाँ क्या कम हैं । पैसा ही लुटाना होता तो उन्हीं को न दे देते पैकेज । अरे, हम तो उन लोगों को ढूँढ रहे हैं जो हमारी जान खा रहे हैं , जिनके कारण हम यहाँ फँसे पड़े हैं । जितना खर्चा हो रहा है उसको देखते हुए तो यह पैकेज देना सस्ता सौदा है । हो सकता है कि पैसे के लालच में ये लोग आ जाएँ । पहले भी तो पैसे के बल पर ही तो इनको तालिबान बनाया था । अब ये अच्छे तालिबान बन जाएँ तो हम यहाँ से बोरिया बिस्तर समेटें । दस साल हो गए इस साँप-छछूँदर के खेल में हलकान होते हुए ।

तोताराम ने कहा- तो हुजूर, हमारे लिए क्या हुक्म है ?
अधिकारी- हुक्म यही है कि जल्दी से खिसक लो । तुम लोग वास्तव में भले आदमी लगते हो नहीं तो बिना पासपोर्ट घुस आने के जुर्म में कभी का अंदर करवा दिया होता ।

हम और तोताराम इतना डर गए थे कि पता नहीं कब बस में बैठे और कब वाघा बार्डर पहुँच गए ।


3.
बार्डर वाले ने हमें पहचान लिया और बोला- लगता है भागते-भागते आये हो । ज़रा सुस्ता लो । उसने हमारे लिए चाय मँगवाई । किसी तरह जान में जान आई । हमारे मन में उसके लिए बड़ा आदर उमड़ आया । हमने कहा- भैया, कुछ भी कहो, अपने वाला अपने वाला ही होता है । भले ही हमें राजनीति ने अलग कर दिया पर आज से बासठ साल पहले हम एक देश के नागरिक थे । आखिर कुछ तो रिश्ता है ही । उस अमरीकी ने तो ऐसा डाँटा कि बस कुछ मत पूछो । और एक तुम हो कि चाय पिला रहे हो ।


उसने बात बदली- तो पैकेज कितना मिला ?
हमने अपना दुखड़ा रो दिया- अरे कैसा पैकेज । जान बच गई सो क्या कम है ? बिना बात दो हज़ार की चपत लग गई । अब तक आने और खाने में एक हज़ार खर्च हो गए । अब जो एक हज़ार बचे हैं वे जाते में खर्च हो जायेंगे ।
उसने कहा- जान बच गई सो बड़ी बात है । जान है तो ज़हान है । पैसा का क्या, पैसा तो हाथ का मैल है । क्या जान बचने की खुशी सेलेब्रेट नहीं करेंगे ?

और उसने हम दोनों की जेब से सारे रुपये निकाल लिए और हँसते हुए बोला- बिरादर, अब इसे आप चाहे जान बचने का शुकराना समझ लो, चाहे बिना पासपोर्ट सीमा पार करने का जुर्माना, चाहे हमारे क्रिकेट खिलाड़ियों को आई.पी.एल. में न खरीदने का हरजाना समझलो । आखिर उनका भी तो टी.ए.डी.ए. खर्च हुआ था भारत आने-जाने में ।

इधर आये तो हमारा फुल बाडी एक्सरे हुआ । जैसे ही एक्स रे केबिन से बहार निकले तो अधिकारी ने घूरा- पैकेज कहाँ है ? हमने कहा- पैकेज । अरे साहब, कहाँ का पैकेज । हमारे एक हज़ार तो जाते समय खर्च हो गए और जो आने के लिए एक हज़ार रखे थे वे पकिस्तान के अधिकारी ने ले लिए ।

अधिकारी ने कहा- कोई बात नहीं । कुछ नहीं तो इधर से गुजरने के शुल्क के रूप में अपनी-अपनी कम्बलें यहाँ रख दो ।

अब बिना पैसे और कम्बल के ये दो बुद्धू कब और कैसे घर लौटेंगे ? भगवान ही जानता है ।


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(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी । प्रकाशित या प्रकाशनाधीन ।
Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication.
Jhootha Sach

2 comments:

  1. सर, अब तो आपको बाहर जाने की आवश्यकता नहीं. उमर अबदुल्ला और सैफुद्दीन सोज तथा धर्मनिरपेक्ष दल भारत में ही अच्छे आतंकवादियों को पुनर्वासित कर इनाम से नवाजने जा रहे हैं.

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  2. "पहले भी तो पैसे के बल पर ही तो इनको तालिबान बनाया था ।"
    Bahut Khoob

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