Apr 6, 2010

प्रेम का एन्साइक्लोपीडिया

स्वामी नित्यानंद जी,
आप कहाँ हैं इसका पता तो पुलिस को भी नहीं है या फिर वह आपके आनंद में बाधा डालने से डरती है, पता नहीं । पर आप जहाँ भी हैं ज़रूर मज़े से ही होंगें । आपने जो सन्देश भक्तों को भेजा है वह दो अप्रेल २०१० का है । अगर १ अप्रेल का होता तो हम उसे मज़ाक भी मान सकते थे पर अब तो वह गुंजाइश भी नहीं है । आपने कहा है कि "मोहब्बत के बिना ज़िंदगी अधूरी है । ध्यान और मोहब्बत से मन हल्का व निर्मल रहता है । सभी भक्त मुक्त भाव से मोहब्बत करें और उसका इज़हार करें ।" आप मोहब्बत करने में इतना व्यस्त हो गए कि इज़हार करने का टाइम ही नहीं मिला यह तो अच्छा हुआ कि एक भक्त ने आपका सन्देश सचित्र रूप में भक्तों तक पहुँचा दिया । आपने यह सन्देश खुले रूप में पहले क्यों नहीं दिया । बिना बात इतने दिनों तक लोगों में सस्पेंस बना रहा ।

अब आपके इस सन्देश के आने से हमें कोई पचासेक बरस पहले की एक घटना याद आती है । तब तो आपका जन्म भी नहीं हुआ था । अमरीका ने रूस की जासूसी करने के लिए यू.टू. नाम का एक विमान भेजा । विमान इतना ऊँचा उड़ता था कि नीचे से किसी भी राडार से आसानी से पकड़ में नहीं आता था । रूस ने अमरीका से शिकायत की कि वह उसकी जासूसी करने के लिए विमान नहीं भेजे । अमरीका का उत्तर था कि वह ऐसे कोई विमान नहीं भेजता । रूस ने फिर कहा कि उसने एक ऐसा ही विमान गिरा लिया है तो अमरीका ने कहा कि हो सकता है कि कोई विमान रास्ता भूल कर उधर चला गया होगा । रूस ने अंत में उद्घाटन किया कि हमने उस पाइलट को जिंदा पकड़ भी लिया है और उसने स्वीकार कर लिया है कि उसे जासूसी के लिए ही भेजा गया था । अब तो अमरीका एक पास कोई चारा नहीं था तो उसने कहा- हाँ, हम विमान भेजते रहे हैं और भविष्य में भी भेजते रहेंगे । कहीं आपकी स्वीकृति अमरीका जैसी स्वीकृति तो नहीं है ? पर हम नहीं मानते । आप जैसे स्पष्टवादी स्वामी इस प्रेममार्गी भक्ति को भला क्यों छुपाते । छुपाता तो वह है जिसे प्रेम में विश्वास न हो, जिसके मन में खोट हो । यदि आपको ध्यान आ जाता तो आप भक्तों के उद्धार के लिए उस लीला का सीधा प्रसारण करवा देते । आगे से ऐसा हो जाए तो लोग दूसरे चेनल देखना ही छोड़ देंगें और टी.आर.पी. की तो बस पूछिए ही मत ।

इस संबंध में हमें कबीर का एक दोहा याद आता है-
पोथी पढ़-पढ़ जग मुआ, पंडित भया न कोय ।
ढाई अक्षर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय ॥

पर कबीर जी की करनी और कथनी में बड़ा अंतर था । दूसरों को ही 'ढाई अक्षर' पढ़ने के लिए कहते रहे पर खुद कभी न पढ़े और न ही कभी प्रेक्टिकल करके दिखाया । ज्यादा पढ़े लिखे भी नहीं थे सो ढाई अक्षरों को ही पूरा सिलेबस मान लिया । और उसे भी पूरा नहीं कर पाए । उनके द्वारा कभी प्रेम का ऐसा प्रेक्टिकल प्रदर्शन देखने को नहीं मिला । आप तो ढाई अक्षर ही क्या पूरा एक्साईक्लोपीडिया निकले, प्रभु ।

कबीर तो बेचारे खुद कहते हैं- मसि कागद छूयो नहीं, कलम गही नहिं हाथ । आप तो अंग्रेजी माध्यम से प्रेम का पाठ पढ़ते और पढ़ाते हैं । तभी बिना कुछ किए ही एयरकंडीशंड में रहते हैं और आयातित कारों में सफ़र करते हैं । डालर में चढ़ावा चढ़ाने वाले भक्त आते हैं । कबीर को तो सारे दिन कपड़ा बनाना पड़ता था और फिर सिर पर रखकर बेचने के लिए बाज़ार में ले जाना पड़ता था । और फिर शाम को भाई लोग आ जुटते थे जिनको उपदेश देना और ज़रूरी हो तो खाना भी खिलाना । प्रेम के लिए समय ही कहाँ मिलता था । भले ही छोटी ही हो गृहस्थी भी थी । आपके पास तो समय ही समय है प्रेम करने के लिए । ज़िम्मेदारी कुछ नहीं, बस मज़ा ही मज़ा । कबीर ने एक जगह कहा है-
मूण्ड मुंडाए हरि मिले तो हर कोई लेय मुण्डाय ।
बार-बार के मूण्डते भेड़ न बैकुंठ जाय ।

पर आपकी साधना का प्रताप देखिए कि बिना मूण्ड मुंडाए ही लंबी, घनी काली और लहराती जुल्फों में ही भुवन मोहिनी रूप में भगवान मिल गए । नायक गाता रहता है- 'आती क्या खंडाला' । पता नहीं कि नायिका खंडाला गई या नहीं और नायक को वह सब प्राप्त हुआ या नहीं जो वह खंडाला जाकर प्राप्त करना चाहता था पर आपकी भक्ति की शक्ति देखिए कि आश्रम में ही खंडाला आ गया ।

आपने शुरु में तो ब्रह्मचर्य का व्रत ले रखा था । भले ही लिखित में घोषणा नहीं की हो पर अपने को माया से दूर तो बताते ही थे । हो सकता है कि लोगों ने आपको ब्रह्मचर्य के नाम से बहका दिया हो और आप बिना बात चक्कर में पड़ गए हों । इस सन्दर्भ में आपको एक किस्सा सुनाते हैं । एक सज्जन थे जो पता नहीं, क्यों शादी से मना करते थे । लोग उन्हें समझते थे कि भाई, खुद हाथ से खाना बनाते हो । शादी कर लो तो खाने का आराम हो जाएगा । लोगों के कहने से उन्होंने शादी कर ली । शादी के दो दिन बाद अपने दोस्तों को इस नेक सुझाव के लिए धन्यवाद देने की बजाय कहने लगे- तुम लोग बड़े स्वार्थी हो । कहते रहे शादी कर लो, रोटी का आराम हो जाएगा । कभी पूरी बात नहीं बताई । अब मुझे पता चला है कि शादी करने में रोटी का ही आराम नहीं है और भी बहुत से आराम हैं ।

सो अब आपको पता चल गया कि मोहब्बत के बिना ज़िंदगी अधूरी है । चलो, बदनामी हुई और कुछ दिनों के लिए ही सही आश्रम से भी इस्तीफा देना पड़ा पर अधूरी ज़िंदगी तो पूरी हुई । पर सही माने में तो ज़िंदगी तब पूरी होती जब आप घर बसाते । पर घर बसाने वाले ज़िम्मेदार लोग होते हैं । लम्पट लोग बिना ज़िम्मेदारी के ही केवल मज़े लेना चाहते हैं । आप किस श्रेणी में आते हैं यह तो आप ही जानें ।

महान लेखक यशपाल का एक उपन्यास है- दिव्या । बौद्ध कालीन कथानक है । उस समय मठों में भिक्षु और भिक्षुनियाँ साथ रहा करते थे । और ऐसे में जो स्वाभाविक है वही हुआ । एक भिक्षु और भिक्षुणी में प्रेम हो गया । शादी का विधान नहीं था सो दोनों भाग गए । मठ की बदनामी । सो मठ के लोग उन्हें खोजने क्या, पकड़ने के लिए निकल पड़े । कहीं दूर जाकर उन्होंने देखा कि वे दोनों दुनिया से बेखबर घास-फूस से अपनी झोंपड़ी बना रहे थे । उन्हें देखकर महाभिक्षु का मन पिघल गया और उन्होंनें उन दोनों को क्षमा कर दिया और अपना जीवन अपने हिसाब से जीने के लिए छोड़ लकर चले गए । यह है जीवन का स्वाभाविक स्वरूप ।

वैसे वशिष्ठ, अत्रि, जमदग्नि आदि बहुत से ऋषि हुए हैं जिन्होंने शादी की और सपरिवार, सपत्नीक आश्रम चलाए । भारतीय समाज में उनका किसी ब्रह्मचारी से कम आदर नहीं है । यदि आप भी ऐसा ही स्वाभाविक जीवन जीना चाहते हैं तो कोई बात नहीं । कोई भी आपसे न तो घृणा करेगा और न ही आपको अपराधी मानेगा । पर क्या आप सभी आडम्बर उतार कर अपने को सामान्य मनुष्य मानने को तैयार हैं ?

५-४-२०१०

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Jhootha Sach

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