थरूर जी,
आपने परसों कहा कि आपने आई.पी.एल. के मामले में आपने न रुपया लिया और न दिया । आप जैसे संतों के पुण्य प्रताप से ही यह धरती थमी है । कबीर कहता है- 'कुछ लेना न देना, मगन रहना' । आपने भी न कुछ लिया और न दिया । तभी तो मगन रहते हैं । कभी ट्विट्टर लिखना, कभी ऐसी अंग्रेजी झाड़ना जो हम जैसों को समझ में न आए । और फिर सफाई देना । फकीरों की बात लोग समझते ही कहाँ हैं । समझने वाले उनकी गाली का भी कोई काम का मतलब निकाल लेते हैं और सच्चे ज्ञान का आनंद लेते हैं । संत, फकीर कौन सी नौकरी करते हैं जो हिसाब-किताब रखेंगे । जो चाहिए सो भक्त लोग दे जाते हैं फिर क्यों कमाने, सामान लाने, पकाने, बर्तन साफ करने के चक्कर में पड़ना । तभी गाते रहते थे- कुछ लेना न देना मगन रहना ।
हम तो पेंशन आने से पहले ही हिसाब किताब लगाने लग जाते हैं कि इस बार किसका उधार बाकी रखना है और किसको थोड़ा सा देकर टरकाना है । और पेंशन भी कौन कोई घर आकर दे जाता है । पहले ऐसा प्रावधान था कि दस रूपए एक्स्ट्रा लेकर बैंक का का कोई कर्मचारी घर आकर ही पेंशन का रुपया दे जाता था । पर अब वह प्रावधान भी नहीं रहा । अब तो लम्बी लाइन लगानी पड़ती है । कभी-कभी तो नंबर ही नहीं आता और ऐसे ही वापिस आना पड़ता है । पर आपकी बात और है ।
हमारे एक प्राचार्य थे जो तीन सौ नंबर का ज़र्दे का पान खाते थे और विल्स की सिगटर पीते थे । वे कभी बाज़ार नहीं जाते थे । रोज़ उनका एक भक्त चार पान बँधवाकर और विल्स का एक पेकेट लाकर रोज़ उनकी टेबल पर रख दिया करता था । ऐसी स्थिति में पैसों को हाथ लगाने की क्या ज़रूरत । बदले में उसे कभी क्लास में जाने को नहीं कहते थे । और कभी परचेजिंग करनी होती तो वही भक्त करता था । इस प्रकार बिना कागजी कार्यवाही के ही सब कुछ चलता रहता था । अगर भगवान की दया से सबके साथ ही ऐसा होने लगे तो रुपए को हाथ लगा कर क्या करना । रुपया कोई खाने या चाटने की चीज़ तो है नहीं । ऐसे ही एक साधू महाराज भी पैसे को हाथ नहीं लगते थे । जब कोई भक्त कुछ भेंट करना चाहता तो उनके चेले कहते- तुम्हें पता नहीं, महाराज माया को हाथ नहीं लगते । इस दान पात्र में डाल दो ।
एक बात और । उन दिनों हम अंडमान में थे । वहाँ एक अधिकारी निरीक्षण करने के लिए आए । हम उनको वहाँ के एक सरकारी कृषि फार्म में घुमाने के लिए ले गए । वहाँ उन्होंने अंडमान की काली मिर्च और लौंग की बहुत बड़ाई की । हम समझ गए और उनके लिए कुछ लौंग और काली मिर्च बँधवा ली । इसी तरह शाम को उन्होंने वहाँ के सीपी के गहनों की बहुत चर्चा की तो हमारे प्राचार्य समझ गए और उनके लिए एक सेट मँगवा दिया । सेट देखकर वे कहने लगे- यह चाँदी के तारों में गुंथा हुआ होता तो अच्छा रहता क्योंकि दिल्ली में इस काम के जानकर थोड़े ही मिलेंगे । इसके बाद उनके लिए चाँदी के तारों में गुंथा हुआ सेट लाया गया । उन्होंने भी पैसों के हाथ नहीं लगाया । पर सबकी ऐसी किस्मत कहाँ होती है । आप ने भी न रुपए लिए और न दिए । ज़रूरत भी क्या थी ।
एक बहुत बड़े राज्य के मुख्य मंत्री थे । अब तो नहीं रहे । अल्लाह उन्हें जन्नत बक्शे । उनका बेटा जीवन बीमा का धंधा करता था । सो वे यही कहते थे कि जीवन का क्या भरोसा । सो हर आदमी को जीवन बीमा अवश्य करवाना चाहिए । काम करवाने आने वाले समझ जाते थे और लम्बी-चौड़ी रकम का बीमा करवा लेते थे । पैसे को हाथ लगाने की कभी ज़रूरत ही नहीं पड़ी । पुराने ज़माने में मास्टर लोग न तो ट्यूशन करते थे और न ही किताबें-नोटबुक बेचकर पैसे कमाते थे । जिधर भी निकल जाते कोई दूध दे देता था तो कोई छाछ । कोई लौकी दे देता था तो कोई भुट्टे । इसी तरह ज़िंदगी चल जाती थी । कभी मास्टर जी की बेटी की शादी होती तो भी लोग अपनी श्रद्धा अनुसार मदद कर ही देते थे । उस समय न तो मास्टर जी की ज़रूरतें ज्यादा होती थी और न ही लोग कोई हिसाब-किताब करते थे । पर आजकल तो मामला करोड़ों का है सो हम क्या बताएँ । हम तो छात्रों और उनके पिताओं की छोटी-मोटी भक्ति का ही हिसाब किताब जानते हैं । फिर भी यह तो आपके अनुसार सच ही है कि आपने न रुपए लिए और न दिए ।
पर सब न तो आपकी तरह होते हैं और न ही हमारी तरह । आजकल लोग तो एक चाय का भी हिसाब रखते हैं । और आप तो फँस गए मोदी जी से । क्या समझते हैं- व्यापारी, दुकानदार और लाला एक-एक पैसे का हिसाब रखते हैं । जो ग्राहक खरीददारी करने वाला दिखाई नही देता उसे ठंडा-गरम पिलाना तो दूर की बात है पानी के लिए भी नहीं पूछते । सो आप क्या समझते हैं कि मोदी जी ने कोई हिसाब-किताब नहीं रखा होगा । अब समय आने पर सारा बही-खाता निकाल कर दिखा देंगे । और आप जानते हैं कि लाला की बही को तो कोर्ट भी मानता है । कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जिनका कहना ही बही होता है । कांग्रेस के लम्बे समय तक कोषाध्यक्ष रहे सीताराम केसरी जी के बारे में कहा जाता है कि 'न खाता न बही जो केसरी जी कहें जो सही' ।
संत कहते हैं- 'बही लिख-लिख के क्या होगा, यहीं सब कुछ लुटाना है' । पर सबको थोड़े ही यहीं लुटाना है । जिनको आपने साथ ले जाना या किसी मित्र को देना है उन्हें तो हिसाब रखना ही पड़ता है । हिसाब तो आपने भी रखा होगा । तभी तो गिन कर 'स्वेट शेयर' वापिस कर दिए ।
अब आप जाने या फिर मोदी जी या फिर भगवान । हम तो क्या कहें पर अपने साठ साल के अखबार पढ़ने के अनुभव के आधार पर यही कह सकते हैं कि आपको चिंता करने की ज़रूरत नहीं । आज तक किसका क्या हुआ है जो आपका होगा । आपने इस्तीफा दे दिया और विपक्ष चुप हो गया । बात ख़त्म ।
हम तो तुलसी दास जी शब्दों में कह सकते है- 'जिमि प्रतिलाभ लोभ अधिकाई' । मतलब कि जैसे-जैसे लाभ होता है या पैसा आता है उतना ही लोभ बढ़ता जाता है । यदि आदमी पकड़ा नहीं जाता है तो समझ लेना चाहिए कि भगवान किसी बड़े गड्ढे में ले जाकर गिराने वाला है । हममें तो इतनी ही समझ है थरूर जी, आगे आप जानें ।
१८-४-२०१०
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(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी । प्रकाशित या प्रकाशनाधीन ।
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Jhootha Sach
अब तो बेचारों से पद भी छिन गया...
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