Apr 19, 2010

करि आए प्रभु काज

चौपट नगरी में वीकएंड की रात का दूसरा पहर बीत चुका है । चौपट महल के रखवाले ऊँघने लगे हैं । पर महाराज की आँखों में नींद नहीं । सारे सुखों को त्याग कर महाराज कक्ष से बाहर निकले । दबे पाँव चारदीवारी फाँदकर कर जनपथ पर आ गए और छुपते-छुपाते संसद के पिछवाड़े को जाने वाली पगडंडी पकड़ ली । दीवार तक पहुँचने पर चार ईंटें हटाकर गुप्त मार्ग से प्रवेश करके संसद के कुँए के पास जा निकले ।

बड़ी सावधानी से कुँए से 'सत्य का शव' निकाला और कंधे पर डाल कर गुप्त मार्ग से बाहर निकलने लगे । तभी शव में स्थित बेताल बोल उठा- राजन, जब सारी चौपट नगरी वीकएंड मनाती है तब तुम क्यों सारे सुखों को त्याग कर सत्य के शव को ठिकाने लगाने के लिए चल पड़ते हो ? जब कि तुम अच्छी तरह से जानते हो यह सत्य बड़ा चीमड़ है और किसी न किसी बहाने तुम्हारे चंगुल से निकल जाता है । आज फिर तुम इसे उठा कर चल पड़े हो ।

महाराज कुछ नहीं बोले तो बेताल ने कहा- पर तुम्हारी भी क्या गलती । राजा को हर समय सत्य के उठ खड़े होने का डर सताता रहता है । उसके लिए चैन की नींद सोना मुश्किल हो जाता है । मुझे तुमसे पूरी सहानुभूति है । तुम्हारा मन बहलाने और श्रम भुलाने के लिए, लो मैं तुम्हें एक कहानी सुनाता हूँ ।

एक प्रतिबद्ध जनसेवक थे । जैसे आत्मा विभिन्न रूपों में इस मृत्यु लोक में भटकती रहती है पर कभी उसे शांति नहीं मिलती उसी तरह से वे भी छात्र नेता, पंच, सरपंच, एम.एल.ए., एम.पी, मंत्री, राज्यपाल आदि विभिन्न रूपों में राजनीति के भव-सागर में भटकते रहे पर कभी सेवा करना नहीं छोड़ा । सेवा का मेवा उनके रोम-रोम से टपक रहा था । उम्र पचासी से भी ऊपर । अब भी वे यही आस लगाए हैं कि क्या पता कोई राष्ट्रपति के रूप में ही उन्हें देश-सेवा करने के लिए बुला ले । उनकी जितनी उम्र है उतने में तो साधारण आदमी दो-दो जन्म भुगत लेता है । उनके चहरे पर अब भी दमक है और माथे से ओज टपकता है । वे अधमुँदी आँखों लेटे हैं जैसे कि कोई शेर खा-पीकर जंगल में निश्चिन्त विश्राम कर रहा हो । विभिन्न प्रकार के लोग आते हैं और अपने-अपने अनुसार प्रणाम, जुहार करते हैं । वे किसी के लिए हाथ उठा देते हैं, किसी के लिए आँख झपका देते है, किसी को आँख उठाकर देखते है और किसी के लिए वह भी नहीं । सेवा का एक प्रभा मंडल उनके चारों और जगमगा रहा है ।

लोग कहते हैं कि अब वे बूढ़े हो गए हैं । और वे हैं कि अब भी सेवा की ललक दिल में फुदकती है । उनका बेटा भी उन्हीं की परंपरा को आगे बढ़ा रहा है और मंत्री है । अब उनका पोता भी पच्चीस बरस का हो गया है । आजकल लोग युवाओं की बात बहुत करते हैं । यदि युवाओं से ही कोई तीर मारा जाना है तो उनके पोते में क्या कमी है । इसी उम्र में हत्या, बलात्कार और डाके के दसियों केस लगे हैं ।

पर लोग हैं कि उन पर परिवारवाद का आरोप लगा रहे हैं । पर लोग यह क्यों नहीं समझते कि जिन्होंने देश की स्वतंत्रता के साथ ही देश सेवा का व्रत ले लिया हो वे अब सेवा के अलावा कुछ करने लायक भी तो नहीं रह गए हैं । अब तो बस सेवा की कुछ ऐसी आदत हो गई है कि जब तक किसी की सेवा नहीं कर लो तब तक नींद ही नहीं आती । सारे परिवार का यही हाल है । पर सेवा ऐसे ही नहीं की जा सकती । उसके लिए कोई न कोई पद चाहिए जैसे कि जनता को लूटने या रिश्वत लेने के लिए पुलिस की वर्दी चाहिए । व्यापारियों से रिश्वत लेने के लिए फ़ूड इन्स्पेक्टर या ड्रग इन्स्पेक्टर का पद चाहिए । आजकल सेवा करने के लिए लोग नकली इन्स्पेक्टर या नकली थानेदार बनकर आते हैं । कभी-कभी पकड़े भी जाते हैं पर बाद में उनका कुछ नहीं होता क्योंकि उनकी सेवा की लगन देखकर तंत्र उन्हें छोड़ देता है । आज कल तो हालत यह हो गई है कि यमदूत भी नकली आ जाते हैं और किसी भी गरीब को समय से पहले भी पकड़ ले जाते हैं । बड़े आदमी के यहाँ तो ये जाने का साहस नहीं करते और कभी कोई पहुँच भी गया तो उनके कमांडों ही गेट पर परिचय पत्र माँग लेते हैं ।

सो वे अपने पोते के लिए किसी पद या लाइसेंस की चिंता या चिंतन की तन्द्रिल मुद्रा में झूल रहे थे तभी एक मरियल सा आदमी भागा-भागा आया और बोला- हुजूर, माई-बाप, गज़ब हो गया । कुछ लोग दस-बीस जीपों में भर कर आ रहे हैं । वे दारू भी पिए हुए हैं । वे बाज़ार में तोड़-फोड़ मचा रहे हैं । सब तरफ अफरा-तफरी मची हुई है । उन्होंने मेरी भी रेहड़ी के पाँच किलो केले लूट कर खा लिए । मैंने पैसे माँगे तो मुझे दो थप्पड़ भी रसीद कर दिए ।

वे खुल कर हँसे और अपने पास खड़े एक सेवक से उस रेहड़ी वाले को एक सौ रुपए देने को कहा । रेहड़ी वाला भौचक्का । आजतक इतना तत्काल न्याय तो धरमराज के ज़माने में भी नहीं सुना था । वे बोले- इनमें से पचास रूपए तेरे केलों के हैं और पचास तेरे दो थप्पड़ों की भरपाई के ।

बेताल ने पूछा- हे महाराज, बताइए कि इसमें हँसने की क्या बात है ? क्या वे जन सेवक इतने न्याय प्रिय हैं ? क्या उन्हें ग़रीबों के प्रति इतनी सहानुभूति है ?

महाराज चौपटादित्य ने कहा- हे बेताल, जैसे सीता की सुधि लेकर आए बन्दर, भालुओं और अंगद ने सुग्रीव के मधुबन में तोड़-फोड़ मचाई और जब रखवालों ने मना किया तो उनकी पिटाई कर दी-
रखवारे जब बरजन लागे । मुस्टि प्रहार हनत सब भागे ॥
जो न होति सीता सुधि पाई । मधुबन के फल सकहिं कि खाई ॥

इसलिए यदि नेताजी के पोते और उसके साथियों ने उत्पात मचाया और रेहड़ी लूट ली और रेहड़ी वाले को दो थप्पड़ लगा दिए तो उसमें कोई बुराई नहीं है । यह तो बच्चों की खुशी का इज़हार है । तुम्हें भी इससे खुश होना चाहिए ।

महाराज का उत्तर सुन कर बेताल की खोपड़ी के टुकड़े-टुकड़े हो गए ।

५-३-२००९


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(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी । प्रकाशित या प्रकाशनाधीन ।
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Jhootha Sach

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