Feb 24, 2011

महँगाई कम करने के लिए सुझाव


आदरणीय प्रणव दा,
नोमोस्कार । आपने बजट पूर्व बैठक में ‘सेबी’ और ‘इरडा’ के अध्यक्षों और रिज़र्व बैंक के गवर्नर से महँगाई कम करने के उपाय पूछे । पता नहीं, उन्होंने कुछ बताया या नहीं । इतनी छोटी सी बात के लिए क्या आप वास्तव में चिन्तित हैं ? या फिर जैसे बजट से पहले कुछ आर्थिक लोगों की बैठक करना एक रस्म अदायगी होती है और जब बैठक की है, इतना टी.ए., डी.ए. खर्च हुआ है तो कुछ पूछना भी चाहिए इसलिए पूछ लिया । हमें तो कहीं महँगाई दिखाई नहीं दी । फोन, दारू, फ़िल्में खूब चल रहे हैं । सेंसेक्स भी ठीक ही चल रहा है । जी.डी.पी. भी दहाई को छूने के लिए मचल रही है । स्विस बैंक में हमारा सबसे ज्यादा पैसा जमा है ! फिर चिंता किस बात की ? कहीं आप विपक्ष वालों के हल्ले से तो परेशान नहीं हैं ? इनका काम तो हल्ला मचाना है ही । इनके ज़माने में कौन सा सतयुग था । और जब आएँगे तब कौन सी फाड़ कर एक की दो कर देंगे । हमें याद है दिल्ली में साहिब सिंह के ज़माने में प्याज साठ रुपए बिका था आज से ग्यारह साल पहले । मतलब कि आज के सवा सौ रुपए । क्या उसके बाद भाजपा सत्ता में नहीं आई ? यह भारत की जनता है - पूरी पतिव्रता । इसके बस कोई विकल्प नहीं है । ज्यादा से ज्यादा एक बार किसी और को जिता कर फिर आपके पास झख मार कर आएगी । हमने तो कई मनोवैज्ञानिकों से सुना है कि जनता एक आदर्श पत्नी की तरह होती है जो पीटने वाले पति से ज्यादा प्यार करती है ।

खैर, हमें तो आपसे यही शिकायत है कि आप इस छोटी सी बात के लिए जाने किस-किस से पूछते रहे । हमें याद नहीं किया । आखिर हम किस दिन के लिए हैं ? वैसे आपने बजट की दिशा तय करने के लिए उद्योगपतियों से कंसल्ट कर ही लिया है और अमरीका से भी कुछ दिशा-निर्देश आ ही गए होंगे । अब भारत के इतने शुभ चिंतकों के होते हुए आपको चिंता होनी तो नहीं चाहिए । आपने हमसे कंसल्ट नहीं किया, हो सकता है कि आपने पत्र लिखा हो और हमारे पास नहीं पहुँचा हो क्योंकि आज कल डाक वाला मामला ऐसे ही चल रहा है । हमने एक पत्रिका का वार्षिक चंदा भेज रखा है मगर सात महिने से नहीं मिल रही है । संपादक को पूछते है तो वे कहते हैं कि उन्होंने तो भेज दी । पोस्टमैन से पूछते है तो कहता है कि आएगी तो हमें उसे क्या अपने घर पर रखना है ? पत्रिकाओं की तो रद्दी भी कोई नहीं खरीदता । पत्र नहीं पहुँचने की बात करते हैं तो लोग कहते है कि आजकल पत्र कौन लिखता है मोबाइल पर बात कर लो, लिफाफे से सस्ता पड़ेगा । अब क्या बताएँ ? जहाँ तक एस.एम.एस. करने की बात है तो न तो आपको एस.एम.एस. करना आता और न ही हमें, इसलिए हम अपने सुझाव ब्लॉग पर डाल रहे हैं । यदि आपको समय मिले तो पढ़ लीजिएगा । वैसे हम अपने पाठकों से भी आग्रह कर रहे हैं कि यदि वे पढ़ें तो सुझाव आप तक पहुँचा दें ।

वैसे यह खाने-पीने का विभाग है तो शरद पावर का मगर उन्हें तो वर्ल्ड कप की तैयारियों से फुर्सत नहीं होगी । होगी तो भी जब से क्रिकेट की सेवा करने लगे हैं तब से उनके मुखारविंद से गुगली के अलावा और कुछ निकलता ही नहीं । वैसे भी क्रिकेट में कहीं आम आदमी वाली महँगाई की समस्या आती नहीं । वहाँ तो कोकाकोला, दारू और चीयर लीडर्स ही साँस नहीं लेने
देते फिर प्याज, दाल और सब्जियों का नंबर कहाँ लगेगा ?

हमारे यहाँ महाराणा प्रताप नाम के व्यक्ति हुए हैं जिन्हें भाजपा वालों ने पकड़ रखा है इसलिए कांग्रेस ने विशेष ध्यान नहीं दिया मगर उन्होंने महँगाई से बचने का एक तरीका खोजा था । वे घास की रोटी खाकर अकबर से लड़े थे । १८९६-७ में एक भयंकर अकाल पड़ा था जिसमें ५० लाख से अधिक लोग मरे थे । तब कहते हैं, लोगों ने पेड़ों के छिलके तक खाए थे । घास तो उस अकाल में रही नहीं थी । आज भी कुछ लोग घास खाने को तैयार हैं मगर उसमें तो सारा रा.ज.द. घुसा पड़ा है । वैसे भी आम आदमी को किसी ने भी घास डालना बंद कर दिया है । कुछ लोग अन्य चीजें भी खाने की हिम्मत कर सकते हैं जैसे- यूरिया, अलकतरा, पेट्रोलियम आदि मगर उनमें भी नेता लोग घुसे पड़े हैं । कुछ गरीब लोगों ने कम्प्यूटर और मोबाइल को भी अच्छी तरह से खड़खड़ा कर देखा लिया, कोई भी खाद्य वस्तु नहीं निकली । अब हमें तो एक ही उपाय नज़र आता है मगर आप से उसकी चर्चा करते हुए डर लगता है कि कहीं आप हमें सिरफिरा न मान लें । एक पुराने कांग्रेसी और बाद में जनता पार्टी के शासन में प्रधान मंत्री हुए हैं भारत रत्न मोरार जी देसाई । उन्होंने एक सस्ता उपचार और जल समस्या का हल बताया था- शिवाम्बु-पान । जब वे प्रधान मंत्री थे तो कई लोगों ने उन्हें खुश करने के लिए घोषित कर दिया था कि वे भी इसका सेवन करते हैं और उन्हें इससे बहुत फायदा हुआ है । कुछ ने नाक भौं भी सिकोड़ी । मगर एक सिद्धांत तो था ही । और यदि इसी दर्शन को और आगे बढ़ाया जाए तो भोजन की समस्या भी सुलझ सकती है ।

इसके अलावा और कोई सस्ता और सुलभ उपाय नज़र आता नहीं है इस वैश्विक और उदारीकृत व्यवस्था में । यदि होता तो महान अर्थशास्त्री मनमोहन जी और मोंटेक सिंह जी हाथ खड़े नहीं करते ।

वैसे तो भारतीयों की रोटियाँ गिनने का काम कमलनाथ और कोंडालिजा राइस करती रही हैं फिर भी कुछ लोग ऐसे हैं जो अपनी मर्जी से ही रोटियाँ गिन कर खाते हैं । ऐसे लोगों के लिए सुझाव दिया जा सकता है कि रोटियाँ इतनी पतली बनाई जाएँ जितनी कि सड़कों पर मसाले की परत डाली जाती है । गिनती तो पूरी हो जाएगी मगर आटा कम लगेगा और जहाँ तक पेट भरने की बात है तो पेट तो पापी होता है । आज तक भरा है क्या किसीका ?

हमें अपने बचपन के कई लोग याद हैं जो मितव्ययी थे जैसे हमारे एक प्रिंसिपल थे जो तारीख़ के कलेंडर के पुराने पन्ने रख लिया करते थे और उन्हें भी रफ काम में लिया करते थे । एक सज्जन थे जो बिजली बचाने के लिए घंटी न बजा कर मुँह से बजने वाली सीटी बजाया करते थे । हमारी नानी पानी का खर्चा बहुत कम करती थी । वे तसले में बैठ कर नहाती थीं और बचे हुए पानी से कपड़े धो लेती थीं और फिर भी बचे हुए उस पानी से गोबर थाप लेती थीं । हम भी अपने बचपन में जब लोटा लेकर दूर जंगल में दिशा-मैदान फिरने जाया करते थे तो एक ही लोटे में तीन-चार साथी निबट लिया करते थे । पर क्या बताएँ ऐसी मितव्ययिता करने वाले को पिछड़ा हुआ माना जाता है । और पिछड़ा हुआ कोई नहीं रहना चाहता । नौकरियों में आरक्षण के लिए पिछड़े वर्ग में शामिल किए जाने के लिए आन्दोलन करने की बात और है ।

बचपन में जब कपड़ा खरीदने जाते थे तो पिताजी दुकानदार को कहा करते थे कोई मैल-खोरा रंग दिखाओ जो ज्यादा गन्दा न हो । बच्चे धूल-मिट्टी में खेलते हैं । कितना धोएँगे । मगर वह बात साधारण आदमी की थी । उन्हें क्या पता था कि एक समय ऐसा आएगा जब नेताओं को ऐसे -ऐसे काम करने पड़ेंगे कि उन्हीं के कपड़े सबसे ज्यादा गंदे होंगे । साधारण आदमी का क्या है उसके कपड़े कैसे भी रहें कोई फर्क नहीं पड़ता मगर नेता को तो अंदर की गंदगी छुपाने के लिए सफ़ेद कपड़े चाहिए ही । यदि नेता लोग कपड़े गंदे होने वाले काम न करें तो भी साबुन की महँगाई कम हो सकती है । मगर उन्हें पैसे की क्या कमी है, सो कैसे भी काम करें, कपड़े तो हमेशा झकाझक ही मिलेंगे । 'दाग ढूँढते रह जाओगे' वाला साबुन उनके लिए ही तो बनाया जाता है ।

वैसे चलते-चलते पुराने लोगों की एक सीख बताते चलें कि जब भोजन कम पड़ता दिखाई दे तो सब्जी में मिर्च और पानी में बर्फ डलवा देनी चाहिए जिससे जब मुँह जलेगा तो खाने वाला खूब ठंडा पानी पिएगा और तात्कालिक रूप से भोजन की समस्या हल हो जाएगी । बाद की बाद में देखी जाएगी ।

२२-१-२०११
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(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी । प्रकाशित या प्रकाशनाधीन । Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication. Jhootha Sach

2 comments:

  1. सर, ये भी हर बार की तरह एक करार व्यंग्य है जहाँ आपने महंगाई, नेता, आरक्षण, चारा इत्यादि सब को लपेट लिया. आरक्षण के बारे में कहना चाहूँगा कि ये वाकई अफ़सोसजनक सत्य है कि हमारा देश शायद पुरे विश्व में एकमात्र ऐसा देश है जहाँ पिछड़े होने के लिए होड लगी रहती है. जो पिछड़े नहीं है वो भी आरक्षण के चक्कर में खुद को पिछड़ा साबित करने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगा देते है.

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  2. बहुत बढ़िया तरीका सुझाया है..

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