जयराम रमेश जी,
आपने १७ फरवरी २०१२ को संयुक्त राष्ट्र संघ के 'एशिया पेसिफिक आर्थिक एवं सामाजिक आयोग' के भारत की मेज़बानी में आयोजित सम्मलेन में सब को यह कहकर चौंका दिया कि भारत में महिलाओं का एक वर्ग शौचालय नहीं, मोबाइल फोन की माँग करता है । कुछ लोग हैं भारतीय राजनीति में जो अपने कामों की बजाय बयानों के लिए चर्चित रहते हैं, आप भी उनमें से एक हैं । आप झूठ थोड़े ही कह रहे होंगे । ज़रूर आप कारीगरों को लेकर भारत के गाँवों में गए होंगे शौचालय बनवाने के लिए, तभी न आपके पास इतनी पक्की और फस्ट हैंड जानकारी है ।
हमारे साथ भी एक बार ऐसा ही हुआ । हम खैर किसी को क्या देने लायक हैं फिर भी एक बार किसी भिखारी ने पता नहीं क्या देखकर एक रुपया माँगा, बोला साहब एक रुपया दे दो खाना खाना है । हमने कहा- भैया एक रुपए में तो एक इडली, एक फुल्का, एक गोलगप्पा या एक टॉफी भी नहीं आती, तुम एक रुपए में क्या खाना खाओगे ? दस-बीस रुपए माँगते तो भी कोई बात थी । वह थोड़ा मुस्कराया और बोला- साहब, बात तो आपकी ठीक ही है मगर माँगा भी तो सामने वाले की औकात देखकर ही जाता है, ना । तो साहब उसने हमें अपनी औकात बता दी । आपसे जिस भी ग्रामीण महिला ने फोन माँगा तो इसका भी कोई न कोई कारण रहा होगा ।
इसके कई कारण हो सकते हैं । इस पत्र में हम उन्हीं पर कुछ लिखेंगे जिससे हो सकता है आपकी दृष्टि इस बारे में कुछ साफ़ हो सके । वैसे सेवकों की दृष्टि तो साफ ही होती है । उन्हें तो अपना लक्ष्य हमेशा साफ दिखाई देता है । यह तो जनता ही है जिसे अँधेरे के सिवा कुछ भी दिखाई नहीं देता । हो सकता है कि सरकार ठेकेदारों के थ्रू जो शौचालय बनवाती हो उनमें, जिसके यहाँ शौचालय बनवाया जाता हो, उससे भी हज़ार दो हज़ार रुपए लिए जाते हों । और यह तो सब जानते हैं कि उनमें सरकार के सब्सीडी देने के बाद कागज पर लगने वाले पाँच-चार हज़ार रुपए खर्च होने पर भी माल एक हज़ार रुपए का भी नहीं लगाया जाता होगा और वे इतने कच्चे बनते होंगे कि कभी भी धँस सकते हों । ऐसे में बताइए कौन पैसा खर्च करके खतरा मोल ले ।
एक बार राजीव गाँधी प्रधान मंत्री बनने के बाद भारत की खोज करने के लिए भारत के सभी आदिवासी इलाकों में गए । राजस्थान के एक सुदूर पश्चिमी जिले के लोगों से उन्होंने पूछा- आपको क्या परेशानी है । तो लोगों ने कहा- जी, आप तो ऐसा इंतजाम कर दीजिए कि यहाँ टी.वी. साफ़ दिखाई देने लग जाए । ऐसा तो हो नहीं सकता कि वहाँ टी.वी. के अलावा कोई समस्या हो ही नहीं । फिर उन्होंने ऐसा क्यों कहा ? हमें लगता है कि जनता तब भी और अब तो और भी अधिक निराश है और उसे विश्वास नहीं है कि सरकार उनके लिए कुछ सार्थक कर सकती है । सो उसने उनसे दूरदर्शन और आपसे मोबाइल माँगा । अब देखिए ना कि खेतों में पानी नहीं पहुँचा मगर टी.वी. और मोबाइल पहुँच गए जो बाज़ार और सरकार दोनों के हथियार हैं ।
गाँव के लोग कुछ भी हो, होते बड़े स्वाभिमानी हैं । हो सकता है उसने आप से कुछ भी नहीं माँगा हो और अपनी बात व्यंजना या लक्षणा में कही हो । मोबाइल का मतलब चलता फिरता और लैंड लाइन का मतलब स्थाई-एक ही जगह पर पड़ा रहने वाला । घर में किसी बंद शौचालय में जाने का मतलब लैंड लाइन और खुले में कहीं भी जाने का मतलब मोबाइल हो । और फिर जब सारी दुनिया पी.सी. की जगह लेपटोप और लैंड लाइन की जगह मोबाइल ले रही है तो एक ग्रामीण महिला का अपने हिसाब से मोबाइल होने में क्या ऐतराज़ है ?
आपने भी कहा कि हम शौचालय बनवाते हैं पर उनका उपयोग नहीं किया जाता । सरकार के बनवाए शौचालय के बारे में हम आपको अपना एक अनुभव बताना चाहते हैं । बात किसी सुदूर या पिछड़े इलाके की नहीं है बल्कि राजधानी दिल्ली की है । कोई २५ वर्ष पुरानी बात है । एक बार रात भर यात्रा करके हम बस से पंतनगर से दिल्ली पहुँचे थे । सुबह का समय और बहुत जोर से हाज़त । आप जैसे बड़े लोगों के तो बुश साहब की तरह हर जगह मोबाइल शौचालय साथ चलता है मगर ऐसी स्थिति में एक साधारण आदमी की क्या हालत हो जाती होगी इसकी कल्पना भी आप नहीं कर सकते ।
उन दिनों सुलभ शौचालय का आविष्कार नहीं हुआ था । वैसे जिसके पास पाँच रुपए न हों तो उसके लिए तो आज भी हर शौचालय दुर्लभ है । सो साहब, किसी तरह जल्दी-जल्दी आई.एस.बी.टी. के सरकारी शौचालय तक पहुँचे । खुशी हुई कि कोई लंबी लाइन नहीं थी । मगर जैसे ही अंदर कदम रखा तो देखा कोई चार-पाँच इंच पानी भरा हुआ है । ऐसे में बैठना तो मुश्किल, सो किसी तरह कुर्सी बन कर बैठे । आपको पता होगा कि पहले स्कूलों में मास्टर मुर्गा बनाते थे और कुख्यात बालक को कुर्सी भी बना देते थे । यह कोई मंत्रियों की मज़े करने वाली कुसी नहीं होती थी । यह एक काल्पनिक कुर्सी होती थी । ऐसे झुको कि न तो बैठे और न खड़े । दस सेकंड में ही टाँगें काँपने लगती थी । पेंट खराब होने से तो यही बेहतर लगा कि कुछ भी हो, कुर्सी बनकर ही सही, इस भयंकर समस्या से तो निबटना ही है ।
अब आप लैंड लाइन और मोबाईल की तुलना कीजिए । लैंड लाइन आप जानते ही हैं कि अक्सर खराब रहता है । ठीक करने वाला भले ही बीस दिन बाद आए मगर किराया पूरे ३० दिन का लगता है । तो क्या फायदा ऐसे लैंड लाइन से । और मोबाइल तो मोबाइल है । जहाँ चाहे, जब चाहे निबटो । मोबाइल स्वतंत्रता का प्रतीक है और लैंड लाइन गुलामी का । किसी तरह स्वतंत्र हुई इस देश की जनता और विशेष रूप से ग्रामीण जनता और उसमें भी महिलाओं को, आप गुलाम बनाना चाहते हैं लैंड लाइन के चक्कर में ।
गुरुदेव ने कहा था- 'ज्ञान मुक्त हो जहाँ, प्राण मुक्त हो जहाँ । भारत को उसी स्वर्ग से तुम जागृत करो' और आप हैं कि मुक्त शौच तक पर प्रतिबन्ध लगा रहे हैं । आपने इसी प्रसंग में यह भी कहा था कि इसके पीछे कल्चरल कारण हो सकते हैं । कल्चर केवल ऊपरी दिखावा है । पश्चिमी कल्चर में कुछ तो ठण्ड के कारण और कुछ अपनी व्यक्तिवादी विचारधारा के कारण सब कुछ घर में ही निबटाने का चलन है । वैसे आपको पता है या नहीं मगर जब इंग्लैण्ड में प्लेग फैला था उसमें बहुत से लोग मर गए थे । उसका कारण यह था कि वहाँ घरों में खुले शौचालय थे जिनमें नालियों मे मल पड़ा रहता था । उनकी ढंग से सफाई नहीं होती थी । उसी गंदगी के कारण वहाँ प्लेग फैला था । वे हमें खुले में शौच करने के कारण जमीन पर हगने वाला काला आदमी कहते थे । यदि घर में शौचालय बनाते हैं तो उनकी सफाई की अच्छी व्यवस्था होनी चाहिए और आप जानते हैं पानी की भारत में, विशेष रूप से गाँवों में क्या हालत है ? और तो और संसद के 'वेल' तक में पानी की एक बूँद नहीं है ।
ग्रामीण महिलाओं के शौचालय की (लैंड लाइन) की बजाय खुले में (मोबाइल ) जाने को प्राथमिकता देने के और भी कई सांस्कृतिक कारण हैं । महिलाओं को शौच के बहाने ही बाहर जाने का मौका मिलता है अन्यथा घर के काम से ही फुर्सत नहीं मिलती है । यही उनका कोफ़ी हाउस है और यही उनका हेरिटेज सेंटर है । यही उनका कनाट प्लेस है । इसी समय वे स्वच्छ हवा में साँस ले सकती हैं । यहीं उन्हें अपने लोकतांत्रिक अधिकार मिलते हैं अन्यथा घरों में तो उनकी वही हालत रहती है जो कश्मीर में पंडितों की है ( यदि कोई अभी तक वहाँ बचा हो तो ) । यह मोबाइल ही तो उनका सशक्तीकरण है ।
जहाँ तक पुरुषों की बात है तो वे इसी लैंड लाइन के चक्कर में देर तक सोते रहते हैं । नहीं तो पहले ब्रह्म मुहूर्त में उठ कर एक दो किलोमीटर घूमते हुए शौच करके आते थे और रास्ते में कहीं कुँए पर हाथ मुँह धोकर, दातुन करते हुए घर पहुँचते थे । इसी बहाने आसपास के छोटे बड़ों से दर्शन मेला हो जाता था । आज हालत यह है कि सब कुछ घर में ही हो जाने के कारण लोगों का आपस में मिलना जुलना ही बंद हो गया है और यही मनुष्य की सामाजिकता कम होने का कारण है और इसी कारण, यदि किसी में मनमुटाव हो जाए तो फिर उसे मिटाने का मौका ही नहीं मिलता । पड़ोस में रह कर भी लोग अनजाने रहे आते हैं । और आप जानते ही हैं कि आजकल बूढ़े लोगों की कूल्हे की हड्डी इन्हीं लैंड लाइन शौचालयों में गिर कर टूटती है । मोबाइल शौचालय में ऐसी कोई समस्या कभी नहीं सुनी ।
और एक बात- हमने सुना है कि पश्चिम वाले लोग शौचालय में बैठकर पढ़ते हैं । अब इससे अधिक सरस्वती का अपमान और क्या होगा ? हमने तो अपने बचपन में बिना हाथ धोए कभी किताब को छुआ तक नहीं और यदि कभी ऐसे-वैसे हाथ या पैर लग गया तो सरस्वती से माफ़ी माँगते हुए किताब को माथे से छुआते थे । कम से कम खुले में जाने वाला किताब तो साथ नहीं ही ले जाएगा ।
वैसे आजकल गाँवों तक में ज़मीन नहीं बची है । वहाँ भी खेतों में प्लाट कट रहे हैं । कहीं ‘सेज़’ (SEZ) बिछ रही है । कहीं कोई देशी-विदेशी कंपनी कारखानों के लिए सरकार से मिलकर गावों में किसानों की ज़मीन कबाड़ रही है । तो अब अपने आप ही जो आप चाहते हैं वह होने वाला है । लोगों को चाहकर भी कहीं बाहर निकलने की जगह नहीं मिलेगी । जैसे कूरियर वालों ने पोस्ट ऑफिस और फोन ने पत्रों को आउट कर दिया वैसे ही महिलाओं की यह स्वतंत्रता ज्यादा नहीं चलने वाली है ।
खैर, ये तो हम अपनी आदतवश बातें बना रहे थे मगर आपको पता ही है कि कितने लोगों के पास घर हैं जहाँ वे शौचालय बनवाएँगे । और फिर जब खाने के ही लाले पड़े हुए हैं तो शौचालय में जाकर क्या चिंतन बैठक करेंगे ?
एक किस्सा सुनिए- एक व्यक्ति हकीम साहब के पास गया और कब्ज की शिकायत की । हकीम साहब ने उसे दवा दे दी मगर कुछ नहीं हुआ । दवा की मात्रा बढ़ती गई और हकीम साहब का अपने ज्ञान पर से विश्वास घटने लगा । अंत में उन्होंने उसे अपनी सबसे तेज दवा दे दी मगर फिर भी कुछ नहीं हुआ । इतने दिनों में मरीज और हकीम साहब की कुछ निकटता सी भी हो गई थी । हकीम साहब ने पूछा- मियाँ, तुम करते क्या हो ? मरीज ने कहा- हुज़ूर, मैं शायर हूँ । हकीम साहब चिल्लाए- लाहौल विला कुव्वत । पहले क्यों नहीं बताया कि तुम शायर हो । ये लो दस रुपए और कुछ खाओ । बिना खाए दस्त क्या ख़ाक लगेगा ।
सो हमें लगता है आप भी ऐसे लोगों के लिए शौचालय बनवाने के चक्कर में पड़े हैं जिनके पेट में कुछ है ही नहीं । मियाँ, ये सम्मलेन-वम्मेलन छोड़ो और यदि आपके हाथ में कुछ हो तो देश को कुपोषण और भुखमरी से बचाने का जुगाड़ करो ।
२०-२-२०१२
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(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी । प्रकाशित या प्रकाशनाधीन । Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication. Jhootha Sach
आपने १७ फरवरी २०१२ को संयुक्त राष्ट्र संघ के 'एशिया पेसिफिक आर्थिक एवं सामाजिक आयोग' के भारत की मेज़बानी में आयोजित सम्मलेन में सब को यह कहकर चौंका दिया कि भारत में महिलाओं का एक वर्ग शौचालय नहीं, मोबाइल फोन की माँग करता है । कुछ लोग हैं भारतीय राजनीति में जो अपने कामों की बजाय बयानों के लिए चर्चित रहते हैं, आप भी उनमें से एक हैं । आप झूठ थोड़े ही कह रहे होंगे । ज़रूर आप कारीगरों को लेकर भारत के गाँवों में गए होंगे शौचालय बनवाने के लिए, तभी न आपके पास इतनी पक्की और फस्ट हैंड जानकारी है ।
हमारे साथ भी एक बार ऐसा ही हुआ । हम खैर किसी को क्या देने लायक हैं फिर भी एक बार किसी भिखारी ने पता नहीं क्या देखकर एक रुपया माँगा, बोला साहब एक रुपया दे दो खाना खाना है । हमने कहा- भैया एक रुपए में तो एक इडली, एक फुल्का, एक गोलगप्पा या एक टॉफी भी नहीं आती, तुम एक रुपए में क्या खाना खाओगे ? दस-बीस रुपए माँगते तो भी कोई बात थी । वह थोड़ा मुस्कराया और बोला- साहब, बात तो आपकी ठीक ही है मगर माँगा भी तो सामने वाले की औकात देखकर ही जाता है, ना । तो साहब उसने हमें अपनी औकात बता दी । आपसे जिस भी ग्रामीण महिला ने फोन माँगा तो इसका भी कोई न कोई कारण रहा होगा ।
इसके कई कारण हो सकते हैं । इस पत्र में हम उन्हीं पर कुछ लिखेंगे जिससे हो सकता है आपकी दृष्टि इस बारे में कुछ साफ़ हो सके । वैसे सेवकों की दृष्टि तो साफ ही होती है । उन्हें तो अपना लक्ष्य हमेशा साफ दिखाई देता है । यह तो जनता ही है जिसे अँधेरे के सिवा कुछ भी दिखाई नहीं देता । हो सकता है कि सरकार ठेकेदारों के थ्रू जो शौचालय बनवाती हो उनमें, जिसके यहाँ शौचालय बनवाया जाता हो, उससे भी हज़ार दो हज़ार रुपए लिए जाते हों । और यह तो सब जानते हैं कि उनमें सरकार के सब्सीडी देने के बाद कागज पर लगने वाले पाँच-चार हज़ार रुपए खर्च होने पर भी माल एक हज़ार रुपए का भी नहीं लगाया जाता होगा और वे इतने कच्चे बनते होंगे कि कभी भी धँस सकते हों । ऐसे में बताइए कौन पैसा खर्च करके खतरा मोल ले ।
एक बार राजीव गाँधी प्रधान मंत्री बनने के बाद भारत की खोज करने के लिए भारत के सभी आदिवासी इलाकों में गए । राजस्थान के एक सुदूर पश्चिमी जिले के लोगों से उन्होंने पूछा- आपको क्या परेशानी है । तो लोगों ने कहा- जी, आप तो ऐसा इंतजाम कर दीजिए कि यहाँ टी.वी. साफ़ दिखाई देने लग जाए । ऐसा तो हो नहीं सकता कि वहाँ टी.वी. के अलावा कोई समस्या हो ही नहीं । फिर उन्होंने ऐसा क्यों कहा ? हमें लगता है कि जनता तब भी और अब तो और भी अधिक निराश है और उसे विश्वास नहीं है कि सरकार उनके लिए कुछ सार्थक कर सकती है । सो उसने उनसे दूरदर्शन और आपसे मोबाइल माँगा । अब देखिए ना कि खेतों में पानी नहीं पहुँचा मगर टी.वी. और मोबाइल पहुँच गए जो बाज़ार और सरकार दोनों के हथियार हैं ।
गाँव के लोग कुछ भी हो, होते बड़े स्वाभिमानी हैं । हो सकता है उसने आप से कुछ भी नहीं माँगा हो और अपनी बात व्यंजना या लक्षणा में कही हो । मोबाइल का मतलब चलता फिरता और लैंड लाइन का मतलब स्थाई-एक ही जगह पर पड़ा रहने वाला । घर में किसी बंद शौचालय में जाने का मतलब लैंड लाइन और खुले में कहीं भी जाने का मतलब मोबाइल हो । और फिर जब सारी दुनिया पी.सी. की जगह लेपटोप और लैंड लाइन की जगह मोबाइल ले रही है तो एक ग्रामीण महिला का अपने हिसाब से मोबाइल होने में क्या ऐतराज़ है ?
आपने भी कहा कि हम शौचालय बनवाते हैं पर उनका उपयोग नहीं किया जाता । सरकार के बनवाए शौचालय के बारे में हम आपको अपना एक अनुभव बताना चाहते हैं । बात किसी सुदूर या पिछड़े इलाके की नहीं है बल्कि राजधानी दिल्ली की है । कोई २५ वर्ष पुरानी बात है । एक बार रात भर यात्रा करके हम बस से पंतनगर से दिल्ली पहुँचे थे । सुबह का समय और बहुत जोर से हाज़त । आप जैसे बड़े लोगों के तो बुश साहब की तरह हर जगह मोबाइल शौचालय साथ चलता है मगर ऐसी स्थिति में एक साधारण आदमी की क्या हालत हो जाती होगी इसकी कल्पना भी आप नहीं कर सकते ।
उन दिनों सुलभ शौचालय का आविष्कार नहीं हुआ था । वैसे जिसके पास पाँच रुपए न हों तो उसके लिए तो आज भी हर शौचालय दुर्लभ है । सो साहब, किसी तरह जल्दी-जल्दी आई.एस.बी.टी. के सरकारी शौचालय तक पहुँचे । खुशी हुई कि कोई लंबी लाइन नहीं थी । मगर जैसे ही अंदर कदम रखा तो देखा कोई चार-पाँच इंच पानी भरा हुआ है । ऐसे में बैठना तो मुश्किल, सो किसी तरह कुर्सी बन कर बैठे । आपको पता होगा कि पहले स्कूलों में मास्टर मुर्गा बनाते थे और कुख्यात बालक को कुर्सी भी बना देते थे । यह कोई मंत्रियों की मज़े करने वाली कुसी नहीं होती थी । यह एक काल्पनिक कुर्सी होती थी । ऐसे झुको कि न तो बैठे और न खड़े । दस सेकंड में ही टाँगें काँपने लगती थी । पेंट खराब होने से तो यही बेहतर लगा कि कुछ भी हो, कुर्सी बनकर ही सही, इस भयंकर समस्या से तो निबटना ही है ।
अब आप लैंड लाइन और मोबाईल की तुलना कीजिए । लैंड लाइन आप जानते ही हैं कि अक्सर खराब रहता है । ठीक करने वाला भले ही बीस दिन बाद आए मगर किराया पूरे ३० दिन का लगता है । तो क्या फायदा ऐसे लैंड लाइन से । और मोबाइल तो मोबाइल है । जहाँ चाहे, जब चाहे निबटो । मोबाइल स्वतंत्रता का प्रतीक है और लैंड लाइन गुलामी का । किसी तरह स्वतंत्र हुई इस देश की जनता और विशेष रूप से ग्रामीण जनता और उसमें भी महिलाओं को, आप गुलाम बनाना चाहते हैं लैंड लाइन के चक्कर में ।
गुरुदेव ने कहा था- 'ज्ञान मुक्त हो जहाँ, प्राण मुक्त हो जहाँ । भारत को उसी स्वर्ग से तुम जागृत करो' और आप हैं कि मुक्त शौच तक पर प्रतिबन्ध लगा रहे हैं । आपने इसी प्रसंग में यह भी कहा था कि इसके पीछे कल्चरल कारण हो सकते हैं । कल्चर केवल ऊपरी दिखावा है । पश्चिमी कल्चर में कुछ तो ठण्ड के कारण और कुछ अपनी व्यक्तिवादी विचारधारा के कारण सब कुछ घर में ही निबटाने का चलन है । वैसे आपको पता है या नहीं मगर जब इंग्लैण्ड में प्लेग फैला था उसमें बहुत से लोग मर गए थे । उसका कारण यह था कि वहाँ घरों में खुले शौचालय थे जिनमें नालियों मे मल पड़ा रहता था । उनकी ढंग से सफाई नहीं होती थी । उसी गंदगी के कारण वहाँ प्लेग फैला था । वे हमें खुले में शौच करने के कारण जमीन पर हगने वाला काला आदमी कहते थे । यदि घर में शौचालय बनाते हैं तो उनकी सफाई की अच्छी व्यवस्था होनी चाहिए और आप जानते हैं पानी की भारत में, विशेष रूप से गाँवों में क्या हालत है ? और तो और संसद के 'वेल' तक में पानी की एक बूँद नहीं है ।
ग्रामीण महिलाओं के शौचालय की (लैंड लाइन) की बजाय खुले में (मोबाइल ) जाने को प्राथमिकता देने के और भी कई सांस्कृतिक कारण हैं । महिलाओं को शौच के बहाने ही बाहर जाने का मौका मिलता है अन्यथा घर के काम से ही फुर्सत नहीं मिलती है । यही उनका कोफ़ी हाउस है और यही उनका हेरिटेज सेंटर है । यही उनका कनाट प्लेस है । इसी समय वे स्वच्छ हवा में साँस ले सकती हैं । यहीं उन्हें अपने लोकतांत्रिक अधिकार मिलते हैं अन्यथा घरों में तो उनकी वही हालत रहती है जो कश्मीर में पंडितों की है ( यदि कोई अभी तक वहाँ बचा हो तो ) । यह मोबाइल ही तो उनका सशक्तीकरण है ।
जहाँ तक पुरुषों की बात है तो वे इसी लैंड लाइन के चक्कर में देर तक सोते रहते हैं । नहीं तो पहले ब्रह्म मुहूर्त में उठ कर एक दो किलोमीटर घूमते हुए शौच करके आते थे और रास्ते में कहीं कुँए पर हाथ मुँह धोकर, दातुन करते हुए घर पहुँचते थे । इसी बहाने आसपास के छोटे बड़ों से दर्शन मेला हो जाता था । आज हालत यह है कि सब कुछ घर में ही हो जाने के कारण लोगों का आपस में मिलना जुलना ही बंद हो गया है और यही मनुष्य की सामाजिकता कम होने का कारण है और इसी कारण, यदि किसी में मनमुटाव हो जाए तो फिर उसे मिटाने का मौका ही नहीं मिलता । पड़ोस में रह कर भी लोग अनजाने रहे आते हैं । और आप जानते ही हैं कि आजकल बूढ़े लोगों की कूल्हे की हड्डी इन्हीं लैंड लाइन शौचालयों में गिर कर टूटती है । मोबाइल शौचालय में ऐसी कोई समस्या कभी नहीं सुनी ।
और एक बात- हमने सुना है कि पश्चिम वाले लोग शौचालय में बैठकर पढ़ते हैं । अब इससे अधिक सरस्वती का अपमान और क्या होगा ? हमने तो अपने बचपन में बिना हाथ धोए कभी किताब को छुआ तक नहीं और यदि कभी ऐसे-वैसे हाथ या पैर लग गया तो सरस्वती से माफ़ी माँगते हुए किताब को माथे से छुआते थे । कम से कम खुले में जाने वाला किताब तो साथ नहीं ही ले जाएगा ।
वैसे आजकल गाँवों तक में ज़मीन नहीं बची है । वहाँ भी खेतों में प्लाट कट रहे हैं । कहीं ‘सेज़’ (SEZ) बिछ रही है । कहीं कोई देशी-विदेशी कंपनी कारखानों के लिए सरकार से मिलकर गावों में किसानों की ज़मीन कबाड़ रही है । तो अब अपने आप ही जो आप चाहते हैं वह होने वाला है । लोगों को चाहकर भी कहीं बाहर निकलने की जगह नहीं मिलेगी । जैसे कूरियर वालों ने पोस्ट ऑफिस और फोन ने पत्रों को आउट कर दिया वैसे ही महिलाओं की यह स्वतंत्रता ज्यादा नहीं चलने वाली है ।
खैर, ये तो हम अपनी आदतवश बातें बना रहे थे मगर आपको पता ही है कि कितने लोगों के पास घर हैं जहाँ वे शौचालय बनवाएँगे । और फिर जब खाने के ही लाले पड़े हुए हैं तो शौचालय में जाकर क्या चिंतन बैठक करेंगे ?
एक किस्सा सुनिए- एक व्यक्ति हकीम साहब के पास गया और कब्ज की शिकायत की । हकीम साहब ने उसे दवा दे दी मगर कुछ नहीं हुआ । दवा की मात्रा बढ़ती गई और हकीम साहब का अपने ज्ञान पर से विश्वास घटने लगा । अंत में उन्होंने उसे अपनी सबसे तेज दवा दे दी मगर फिर भी कुछ नहीं हुआ । इतने दिनों में मरीज और हकीम साहब की कुछ निकटता सी भी हो गई थी । हकीम साहब ने पूछा- मियाँ, तुम करते क्या हो ? मरीज ने कहा- हुज़ूर, मैं शायर हूँ । हकीम साहब चिल्लाए- लाहौल विला कुव्वत । पहले क्यों नहीं बताया कि तुम शायर हो । ये लो दस रुपए और कुछ खाओ । बिना खाए दस्त क्या ख़ाक लगेगा ।
सो हमें लगता है आप भी ऐसे लोगों के लिए शौचालय बनवाने के चक्कर में पड़े हैं जिनके पेट में कुछ है ही नहीं । मियाँ, ये सम्मलेन-वम्मेलन छोड़ो और यदि आपके हाथ में कुछ हो तो देश को कुपोषण और भुखमरी से बचाने का जुगाड़ करो ।
२०-२-२०१२
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