मनमोहन पा’ जी,
सत् श्री अकाल । मार दिया पापड़ वाले को उस्ताद । हम तो समझे थे कि आप में दम ही नहीं है । आप कुछ भी कहते हैं तो उसी एक स्वर में कहते हैं जैसे कि डिक्टेशन लिखवा रहे हों । पता नहीं यह बात जिसके लिए हम आप पर कुर्बान हुए जा रहे हैं वह आपने किस लहज़े में कही है मगर बात है दमदार । मज़ा आ गया । अब आप जड़ की तरफ जा रहे हैं तो समस्या के हल की भी उम्मीद की जानी चाहिए । अपने तमिलनाडु में कुडनकुलम परमाणु संयंत्र के विरोध के पीछे अमरीका स्थित तीन एन.जी.ओ. का हाथ बताया है । अच्छा हुआ जो दिग्विजय सिंह जी इस समय यू.पी. में व्यस्त हैं । यदि थोड़ा सा भी ठाले हुए होते तो वे इसमें भी आर.एस.एस. का हाथ ढूँढ़ लेते । खैर ।
वैसे यह भी बताया गया है कि ये एन.जी.ओ. भोजन का लालच देकर लोगों को आन्दोलन में लाते हैं । तो यह तो देखिए भाईजान, लोकतंत्र में यह तो स्वाभाविक है । अपन भी तो चुनाव सभा में, जुलूस में पैसे देकर ही तो तथाकथित समर्थकों को लाते हैं । हमने आपको दक्षिण दिल्ली के लोकसभा के चुनावों में एक ट्रक में दिल्ली कैंट से पालम की तरफ जाते देखा था । गिनकर पाँच आदमी थे । आपने पैसा भी तो नहीं खर्चा । आजकल फ्री में क्या मिलता है ? ये कुडनकलम वाले तो केवल खाने के लालच में ही आते हैं । कश्मीर में भी तो पत्थर फेंकने के ही दो सौ रुपए रोज के लेते हैं । इसमें वैसे अपनी भी गलती तो है ही कि हमने जनता को इतना सस्ता बना दिया कि बिना सोचे समझे, केवल खाने के लिए ही किसी के भी साथ चल पड़ती है ।
आपके बयान के एक दिन बाद ही नारायणसामी जी ने उन सेवाभावी संस्थानों के चोगे को भी फाड़ दिया और बताया कि इन तीन संस्थानों को अमरीका और स्केंडिनेवियन देशों से पैसा मिलता है । इन संस्थानों की, बाहरी रूप से दिखावे के लिए, विकलांगों की मदद करना और कोढ़ उन्मूलन जैसी गतिविधियाँ हैं मगर ये इस देश और समाज के लिए खुद ही कोढ़ बनी हुई हैं । अंदरखाने परमाणु संयंत्र विरोध ही नहीं पता नहीं जाने क्या-क्या गतिविधियाँ चलाती हैं । ध्यान रहे, यह संयंत्र अमरीका के पुराने विरोधी रूस द्वारा लगाया जा रहा है ।
आप तो अमरीका में अन्तराष्ट्रीय मुद्रा कोष में भी रहे हैं तो फिर अमरीका की कौन सी ‘मुद्रा’ आपसे छिपी होगी ? आपने तो उसे हर मुद्रा में देखा होगा । हम तो जो थोड़ा बहुत जानते हैं वह बस अखबारों में पढ़े तक ही सीमित है । उसके आधार पर हम कह सकते हैं कि अमरीका किसी का दोस्त नहीं है । वह अपने मतलब का यार है । संयुक्त राष्ट्र संघ के थ्रू कश्मीर पाकिस्तान को नहीं सौंपा जा सका तो यह रूस की कृपा थी वरना तो अमरीका ने कोई कसर थोड़े ही छोड़ी थी । हालाँकि हम यह नहीं कहते कि रूस कोई परमार्थ कर रहा था । फिर भी यह तो विचारणीय है कि हमें किससे क्या फायदा या नुकसान हुआ ?
जहाँ तक विकास में सहयोग देने की बात है तो याद कीजिए कि मिस्र को आस्वान बाँध बना कर देने का समझौता करके भी अमरीका उसे टरकाता रहा और अंत में रूस से उसे बनाने का समझौता हुआ तो ऐसे ही कुछ संगठनों से विरोध करवाया गया कि इस बाँध की डूब में एक पुराना धार्मिक स्थान आ रहा है इसलिए यह बाँध नहीं बनाया जाना चाहिए । तब रूस ने अपनी उन्नत तकनीक से उस ढाँचे को बड़ी सावधानी से वैसे का वैसा उठा कर अन्यत्र स्थापित किया तो बाँध बना । स्वतंत्रता-प्राप्ति के तत्काल बाद नेहरू जी ने भारत में बड़े-बड़े आधारभूत उद्योग लगवाने की योजना बनाई जिसके तहत इस्पात के कई बड़े-बड़े कारखाने जैसे भिलाई, दुर्गापुर आदि कई विकसित देशों ने बनाए । अमरीका को भी इनमें से एक कारखाना बोकारो में लगाना था मगर इसमें भी इसने वही मिस्र वाला हथकंडा अपनाया और कई वर्षों तक अटकाए रखा । अंत में इसे भी रूस की सहायता से ही बनाया गया । तो ये दो उदहारण हैं अमरीका के दूसरे देशों के विकास में रुचि लेने के ।
वैसे यदि परमाणु ऊर्जा की बात करें तो हमें परमाणु ऊर्जा बेचकर धंधा करने वाले देशों के, अपने ही देश में, नए संयंत्र लगाने की योजनाएँ निरस्त कर दी गई हैं और पुरानी योजनाओं का कार्यकाल नहीं बढ़ाया जाएगा । जापान के परमाणु संयंत्र में रिसाव की घटना पुरानी नहीं है । रूस में भी ऐसी घटना चेरनोबिल में हो चुकी है ।
जहाँ तक सुरक्षा की बात है तो जापान से ज्यादा हम क्या कर सकेंगे । और फिर इन संयंत्रों की सुरक्षा की जिम्मेदारी तो लगाने वाले देशों की होगी फिर चाहे वह रूस हो या अमरीका हो । अमरीका की जेम्मेदारी का उदहारण है भोपाल की गैस दुखान्तिका । अमरीका में सबसे बड़ी रासायनिक दुर्घटना जब हुई थी उसमें ३०० लोग मरे गए थे । उसके बाद वहाँ ऐसे कारखाने लगाने बंद कर दिए गए । फिर विदेशी निवेश से उपकृत करने के नाम पर ऐसे कारखाने विकासशील देशों में लगाए जाने लगे जैसे भारत में यूनियन कार्बाइड । यूनियन कार्बाइड ने अपनी सुरक्षा जिम्मेदारी कैसे निभाई और उसमें हमारे जनसेवकों ने कैसी संवेदनशीलता दिखाई यह सब जानते हैं । एक मुख्य मंत्री के एंडरसन से व्यक्तिगत संबंध थे जिसके चलते ही एक एस.पी. और जिला कलेक्टर ने विशेष कार और फिर विशेष विमान द्वारा उसे दिल्ली पहुँचाया । जहाँ वह राष्ट्रपति से मिला और विधिवत विदा हुआ ।
अमरीका और उसके अन्य मित्र देशों के सहायता प्राप्त ऐसे संस्थान ऐसे आंदोलनों को ही मदद नहीं देते बल्कि वे संतों के वेश में विदेशी सहायता से और भी खतरनाक गतिविधियों में संलग्न हैं । क्या इस दृष्टि से भी इन संस्थानों पर नज़र रखी जाएगी ? इन पश्चिमी गोरे देशों से ही नहीं बल्कि इस्लामिक देशो से भी यहाँ ऐसे ही परोपकारी कार्यों के लिए सहायता आती है । इसलिए यह आवश्यक है कि विदेशों से आने वाले एक-एक डालर का हिसाब रखा जाना चाहिए । इनका भी बकायदा ऑडिट होना चाहिए और यदि इनके कोई धार्मिक संस्थान हैं तो वहाँ भी तिरुपति और वैष्णो देवी की तरह सरकारी ट्रस्ट क्यों नहीं बना दिए जाते जिनमें दूसरे धर्मों के या नास्तिक लोग भी बोर्ड में बैठें हो ? किसी खास तरह की धार्मिक शिक्षा यदि दी जानी ज़रूरी है तो उसे केवल धर्म तक ही रखा जाना चाहिए । ऐसे धार्मिक स्कूलों को किसी भी नौकरी के लिए मान्यता नहीं दी जानी चाहिए ।
और फिर यह भी तो सोचा जाना चाहिए कि क्या इनके देशों में विकलांग या कोढ़ी या अशिक्षित नहीं है जो ये दयालु, दानवीर इस देश में आते हैं या यहाँ के संगठनों को पैसा देते हैं । विदेशी पैसा ऐसी ही खुराफातें फ़ैलाने के लिए और भी बहुत सी संस्थाओं के पास आ रहा है । ऐसे विदेशी पैसे से कोई भी देश-हित का काम नहीं हो रहा है । या तो यह पैसा धर्मान्तरण के काम आता है या फिर आतंकवादी और राष्ट्र विरोधी गतिविधियों को प्रोत्साहन देने में काम आता है । सेवा और धर्म के नाम पर विदेशी पैसे से चलने वाली गतिविधियों के स्टाइल में फर्क हो सकता है । कोई दादागिरी से तो चुप्पम-चुप्पा मगर देश का कोई भला इनसे नहीं हो रहा है । क्या महाशक्ति बनने के दंभ भरने वाला देश के लिए, अपने लोगों को छोटी-मोटी सुविधा देना भी विदेशी कुधन के बिना संभव नहीं है ?
तुलसीदास जी ने कहा है- तुलसी देखि सुवेष भूलहिं मूढ़, न चतुर नर ।
सो प्राजी, इन विदेशी सहायता प्राप्त लंबे चोगे वाले संतों के वेश से चक्कर में मत आइए । रावण भी सीता के हरण के लिए साधु के वेश में ही आया था ।
अपनी चिरपरिचत शांत शैली में ही सही मगर हिम्मत करो भाई जान ! जो बोले सो निहाल, सतश्री अकाल । सो सतश्री अकाल बोल कर इस खुराफात की जड़ पर चला ही दीजिए कुल्हाड़ी । फिर देखिए कैसे तस्वीर बदलती है । हम जैसे भी हैं , आपके साथ हैं । बस, एक ही लफड़ा है कि क्या वोट बैंक की राजनीति, कुर्सी को खतरे में डाल कर, राष्ट्रहित के मंगलकारी मार्ग पर चलने देगी या नहीं ?
२५-२-२०१२
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(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी । प्रकाशित या प्रकाशनाधीन । Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication. Jhootha Sach
सत् श्री अकाल । मार दिया पापड़ वाले को उस्ताद । हम तो समझे थे कि आप में दम ही नहीं है । आप कुछ भी कहते हैं तो उसी एक स्वर में कहते हैं जैसे कि डिक्टेशन लिखवा रहे हों । पता नहीं यह बात जिसके लिए हम आप पर कुर्बान हुए जा रहे हैं वह आपने किस लहज़े में कही है मगर बात है दमदार । मज़ा आ गया । अब आप जड़ की तरफ जा रहे हैं तो समस्या के हल की भी उम्मीद की जानी चाहिए । अपने तमिलनाडु में कुडनकुलम परमाणु संयंत्र के विरोध के पीछे अमरीका स्थित तीन एन.जी.ओ. का हाथ बताया है । अच्छा हुआ जो दिग्विजय सिंह जी इस समय यू.पी. में व्यस्त हैं । यदि थोड़ा सा भी ठाले हुए होते तो वे इसमें भी आर.एस.एस. का हाथ ढूँढ़ लेते । खैर ।
वैसे यह भी बताया गया है कि ये एन.जी.ओ. भोजन का लालच देकर लोगों को आन्दोलन में लाते हैं । तो यह तो देखिए भाईजान, लोकतंत्र में यह तो स्वाभाविक है । अपन भी तो चुनाव सभा में, जुलूस में पैसे देकर ही तो तथाकथित समर्थकों को लाते हैं । हमने आपको दक्षिण दिल्ली के लोकसभा के चुनावों में एक ट्रक में दिल्ली कैंट से पालम की तरफ जाते देखा था । गिनकर पाँच आदमी थे । आपने पैसा भी तो नहीं खर्चा । आजकल फ्री में क्या मिलता है ? ये कुडनकलम वाले तो केवल खाने के लालच में ही आते हैं । कश्मीर में भी तो पत्थर फेंकने के ही दो सौ रुपए रोज के लेते हैं । इसमें वैसे अपनी भी गलती तो है ही कि हमने जनता को इतना सस्ता बना दिया कि बिना सोचे समझे, केवल खाने के लिए ही किसी के भी साथ चल पड़ती है ।
आपके बयान के एक दिन बाद ही नारायणसामी जी ने उन सेवाभावी संस्थानों के चोगे को भी फाड़ दिया और बताया कि इन तीन संस्थानों को अमरीका और स्केंडिनेवियन देशों से पैसा मिलता है । इन संस्थानों की, बाहरी रूप से दिखावे के लिए, विकलांगों की मदद करना और कोढ़ उन्मूलन जैसी गतिविधियाँ हैं मगर ये इस देश और समाज के लिए खुद ही कोढ़ बनी हुई हैं । अंदरखाने परमाणु संयंत्र विरोध ही नहीं पता नहीं जाने क्या-क्या गतिविधियाँ चलाती हैं । ध्यान रहे, यह संयंत्र अमरीका के पुराने विरोधी रूस द्वारा लगाया जा रहा है ।
आप तो अमरीका में अन्तराष्ट्रीय मुद्रा कोष में भी रहे हैं तो फिर अमरीका की कौन सी ‘मुद्रा’ आपसे छिपी होगी ? आपने तो उसे हर मुद्रा में देखा होगा । हम तो जो थोड़ा बहुत जानते हैं वह बस अखबारों में पढ़े तक ही सीमित है । उसके आधार पर हम कह सकते हैं कि अमरीका किसी का दोस्त नहीं है । वह अपने मतलब का यार है । संयुक्त राष्ट्र संघ के थ्रू कश्मीर पाकिस्तान को नहीं सौंपा जा सका तो यह रूस की कृपा थी वरना तो अमरीका ने कोई कसर थोड़े ही छोड़ी थी । हालाँकि हम यह नहीं कहते कि रूस कोई परमार्थ कर रहा था । फिर भी यह तो विचारणीय है कि हमें किससे क्या फायदा या नुकसान हुआ ?
जहाँ तक विकास में सहयोग देने की बात है तो याद कीजिए कि मिस्र को आस्वान बाँध बना कर देने का समझौता करके भी अमरीका उसे टरकाता रहा और अंत में रूस से उसे बनाने का समझौता हुआ तो ऐसे ही कुछ संगठनों से विरोध करवाया गया कि इस बाँध की डूब में एक पुराना धार्मिक स्थान आ रहा है इसलिए यह बाँध नहीं बनाया जाना चाहिए । तब रूस ने अपनी उन्नत तकनीक से उस ढाँचे को बड़ी सावधानी से वैसे का वैसा उठा कर अन्यत्र स्थापित किया तो बाँध बना । स्वतंत्रता-प्राप्ति के तत्काल बाद नेहरू जी ने भारत में बड़े-बड़े आधारभूत उद्योग लगवाने की योजना बनाई जिसके तहत इस्पात के कई बड़े-बड़े कारखाने जैसे भिलाई, दुर्गापुर आदि कई विकसित देशों ने बनाए । अमरीका को भी इनमें से एक कारखाना बोकारो में लगाना था मगर इसमें भी इसने वही मिस्र वाला हथकंडा अपनाया और कई वर्षों तक अटकाए रखा । अंत में इसे भी रूस की सहायता से ही बनाया गया । तो ये दो उदहारण हैं अमरीका के दूसरे देशों के विकास में रुचि लेने के ।
वैसे यदि परमाणु ऊर्जा की बात करें तो हमें परमाणु ऊर्जा बेचकर धंधा करने वाले देशों के, अपने ही देश में, नए संयंत्र लगाने की योजनाएँ निरस्त कर दी गई हैं और पुरानी योजनाओं का कार्यकाल नहीं बढ़ाया जाएगा । जापान के परमाणु संयंत्र में रिसाव की घटना पुरानी नहीं है । रूस में भी ऐसी घटना चेरनोबिल में हो चुकी है ।
जहाँ तक सुरक्षा की बात है तो जापान से ज्यादा हम क्या कर सकेंगे । और फिर इन संयंत्रों की सुरक्षा की जिम्मेदारी तो लगाने वाले देशों की होगी फिर चाहे वह रूस हो या अमरीका हो । अमरीका की जेम्मेदारी का उदहारण है भोपाल की गैस दुखान्तिका । अमरीका में सबसे बड़ी रासायनिक दुर्घटना जब हुई थी उसमें ३०० लोग मरे गए थे । उसके बाद वहाँ ऐसे कारखाने लगाने बंद कर दिए गए । फिर विदेशी निवेश से उपकृत करने के नाम पर ऐसे कारखाने विकासशील देशों में लगाए जाने लगे जैसे भारत में यूनियन कार्बाइड । यूनियन कार्बाइड ने अपनी सुरक्षा जिम्मेदारी कैसे निभाई और उसमें हमारे जनसेवकों ने कैसी संवेदनशीलता दिखाई यह सब जानते हैं । एक मुख्य मंत्री के एंडरसन से व्यक्तिगत संबंध थे जिसके चलते ही एक एस.पी. और जिला कलेक्टर ने विशेष कार और फिर विशेष विमान द्वारा उसे दिल्ली पहुँचाया । जहाँ वह राष्ट्रपति से मिला और विधिवत विदा हुआ ।
अमरीका और उसके अन्य मित्र देशों के सहायता प्राप्त ऐसे संस्थान ऐसे आंदोलनों को ही मदद नहीं देते बल्कि वे संतों के वेश में विदेशी सहायता से और भी खतरनाक गतिविधियों में संलग्न हैं । क्या इस दृष्टि से भी इन संस्थानों पर नज़र रखी जाएगी ? इन पश्चिमी गोरे देशों से ही नहीं बल्कि इस्लामिक देशो से भी यहाँ ऐसे ही परोपकारी कार्यों के लिए सहायता आती है । इसलिए यह आवश्यक है कि विदेशों से आने वाले एक-एक डालर का हिसाब रखा जाना चाहिए । इनका भी बकायदा ऑडिट होना चाहिए और यदि इनके कोई धार्मिक संस्थान हैं तो वहाँ भी तिरुपति और वैष्णो देवी की तरह सरकारी ट्रस्ट क्यों नहीं बना दिए जाते जिनमें दूसरे धर्मों के या नास्तिक लोग भी बोर्ड में बैठें हो ? किसी खास तरह की धार्मिक शिक्षा यदि दी जानी ज़रूरी है तो उसे केवल धर्म तक ही रखा जाना चाहिए । ऐसे धार्मिक स्कूलों को किसी भी नौकरी के लिए मान्यता नहीं दी जानी चाहिए ।
और फिर यह भी तो सोचा जाना चाहिए कि क्या इनके देशों में विकलांग या कोढ़ी या अशिक्षित नहीं है जो ये दयालु, दानवीर इस देश में आते हैं या यहाँ के संगठनों को पैसा देते हैं । विदेशी पैसा ऐसी ही खुराफातें फ़ैलाने के लिए और भी बहुत सी संस्थाओं के पास आ रहा है । ऐसे विदेशी पैसे से कोई भी देश-हित का काम नहीं हो रहा है । या तो यह पैसा धर्मान्तरण के काम आता है या फिर आतंकवादी और राष्ट्र विरोधी गतिविधियों को प्रोत्साहन देने में काम आता है । सेवा और धर्म के नाम पर विदेशी पैसे से चलने वाली गतिविधियों के स्टाइल में फर्क हो सकता है । कोई दादागिरी से तो चुप्पम-चुप्पा मगर देश का कोई भला इनसे नहीं हो रहा है । क्या महाशक्ति बनने के दंभ भरने वाला देश के लिए, अपने लोगों को छोटी-मोटी सुविधा देना भी विदेशी कुधन के बिना संभव नहीं है ?
तुलसीदास जी ने कहा है- तुलसी देखि सुवेष भूलहिं मूढ़, न चतुर नर ।
सो प्राजी, इन विदेशी सहायता प्राप्त लंबे चोगे वाले संतों के वेश से चक्कर में मत आइए । रावण भी सीता के हरण के लिए साधु के वेश में ही आया था ।
अपनी चिरपरिचत शांत शैली में ही सही मगर हिम्मत करो भाई जान ! जो बोले सो निहाल, सतश्री अकाल । सो सतश्री अकाल बोल कर इस खुराफात की जड़ पर चला ही दीजिए कुल्हाड़ी । फिर देखिए कैसे तस्वीर बदलती है । हम जैसे भी हैं , आपके साथ हैं । बस, एक ही लफड़ा है कि क्या वोट बैंक की राजनीति, कुर्सी को खतरे में डाल कर, राष्ट्रहित के मंगलकारी मार्ग पर चलने देगी या नहीं ?
२५-२-२०१२
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(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी । प्रकाशित या प्रकाशनाधीन । Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication. Jhootha Sach
वाह!
ReplyDeleteबहुत उम्दा आलेख!
prashanshak to main pahle se hi hoon aapka. nai roop sajja bahut achchhi lagi
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