Apr 5, 2012

कला और कलाकार का सम्मान

अमित जी,
नमस्ते । हम आपके फैन हैं मगर वैसे नहीं जैसे कि आपको मंदिर या मोम की मूर्तियों में कैद करने वाले । हम तो आपकी कला के फैन हैं इसीलिए समय-समय पर आपको नेक सलाह देते रहते हैं पर यह सलाह भी ऐसी चीज है कि एक तो लोग बिना माँगे देने लगते हैं या फिर सलाह भी फालतू । अब देखिए ना, लोग हैं कि सचिन को सलाह दिए जा रहे हैं कि रिटायर हो जाओ । अरे भाई, यह कोई सेनाध्यक्ष जैसी कोई सरकारी नौकरी है क्या, कि एक निश्चित दिन रिटायरमेंट लेना ही पड़ेगा । यह तो अपना निजी वेंचर है जब तक मर्जी हो खेंचते रहो । और जब ऑफर आ रहे हैं, चाहे वे एक्टिंग के हों या क्रिकेट के, तो फिर लगे रहो मुन्ना भाई ।

हमें न तो सचिन के खेलते रहने से ऐतराज़ है और न आपके सत्तर के पेटे में राम-राम करने की उम्र में तीन-तीन शिफ्ट में काम करने से तकलीफ । हमने तो कल एक अखबार के मुखपृष्ठ पर उस अखबार के नाम के पास ही छपे आपके एक विचार को पढ़ कर यह पत्र लिखने का सोचा । विचार क्या था, चीत्कार था - एक कलाकार का, कला और कलाकार की इस देश में उपेक्षा को लेकर । आपने बताया कि जब एक कलाकार समर्पण के साथ अपनी प्रस्तुति देता है तो लोगों का ध्यान उसकी कला की ओर न होकर कहीं और होता है तो लगता है कि इस कला-प्रेमी देश में कलाकारों का सम्मान खत्म हो गया है । बड़ा दुःख हुआ इस दर्दनाक स्थिति को जानकर ।

हम भी एक छोटे-मोटे कलाकार हैं मगर पैसे लेकर प्रस्तुति नहीं देते । पैसे लेकर प्रस्तुति देने वाले कलाकार का बड़ा मरण हो जाता है । ढंग की प्रस्तुति न दो तो फिर लोग बुलाएँगे नहीं और यदि बुलाने वालों से यह कर दो कि तुम ढंग से क्यों नहीं सुनते हो तो भी वे फिर नहीं बुलाएँगे । हर हालत में मरण । हमने अपने कई मित्रों को, जो कि मंचीय कवि हैं, कई सेठों के घर पर उनके ड्राइंग रूम में फरमाइश पर कविता सुनाते देखा है और उसी दौरान सेठ जी पादते जाते हैं और कहते जाते हैं- हाँ, तो वो फलाँ कविता सुनाइए, अलाँ कविता सुनाइए । और बेचारे कवि महोदय को सुनानी पड़ती है । पेट का सवाल जो है । यह पेट भी साला, बहुत बदमाश चीज़ है । आदमी को जाने क्या-क्या नाच नचाता है । तभी रहीम जी ने पेट को संबोधित करते हुए यह दोहा लिखा था-

कहु रहीम या पेट ते क्यों न भयो तू पीठ ।
रीते मान बिगाड़िहैं भरे बिगाड़ै दीठ ।।
अर्थात, रहीम जी कहते हैं कि हे पेट तू पीठ क्यों नहीं हुआ? पेट खाली हो तो मान बिगाड़ता है, भरा हो तो नज़र बिगाड़ता है ।

अब भाई साहब, पेट भरे तो मुक्ति मिले । पेट का न होना तो संभव नहीं । और जब पेट बड़ा हो जाता है तो किसी भी तरह से छुटकारा नहीं मिलता । न पेट भरे और न जान छूटे । कबीर जी का पेट बहुत छोटा था । आधी और रूखी में ही भर जाता था और वह आधी भी अपने करघे पर बुने हुए कपड़े की कमाई की होती थी । सो किसी सेठ के घर जाकर भजन गाने की नौबत नहीं आई ।

आपको अपने जीवन की एक सच्ची घटना सुनते हैं । बात १९८२ की है । हम उन दिनों पोर्ट ब्लेयर जाते हुए कलकत्ता में रुके हुए थे । वहाँ हमने एक हास्य कवि सम्मलेन का समाचार पढ़ा । उसमें हमारे राजस्थान के एक प्रसिद्ध हास्य कवि भी भाग ले रहे थे जो हमारे वरिष्ठ मित्र भी थे । हमें उनसे मिलने का लालच हुआ सो पहुँच गए उनके पास वहीं मंच के पीछे ड्रेसिंग रूम में । जहाँ वे एक अन्य कवि से साथ ड्रेसिंग कर रहे थे मतलब कि हम-पियाला हो रहे थे । हमने पूछा- गुरु, यह क्या ? माँ सरस्वती का ऐसा चरणामृत ? कहने लगे- क्या करूँ एक ही कविता को बार-बार सुनाते हुए डर लगता है कि कहीं हूट न हो जाऊँ ? सो डर भगाने के लिए एक आध पैग लगाना पड़ता है ।

इसके बाद उन्होंने हमें भी मंच पर आमंत्रित किया । चूँकि हम उन श्रोताओं के लिए नए थे सो उन्होंने हमें हूट करना चाहा और कविता से पहले ही हू-हू करना शुरु कर दिया । हमने बिना घबराए उनको डाँटने के लहजे में कहा- सुनो, मैं पैसे लेकर सुनाने नहीं आया हूँ । तुम्हें सौ बार सुनना हो तो सुनो नहीं तो मैं नहीं सुनाऊँगा । श्रोता शांत हो गए और फिर हमने अपनी कविता सुनाई और वह लोगों को पसंद भी आई । यह बात और है कि हमारे उन कवि मित्र ने हमें पारिश्रमिक के दो सौ रुपए भी दिलवाए । यदि हम पैसे लेकर आए हुए कलाकार होते तो हमसे ऐसा साहस कभी नहीं होता कि श्रोताओं को झिड़क सकते । तो यह है बंधु, निष्कामता की शक्ति ।

हमने मुगल-ए-आज़म फिल्म देखी थी । कैसे और किन परिस्थितियों में देखी यह बताने की ज़रूरत नहीं है । आपने भी ज़रूर देखी होगी । उसमें सलीम युद्ध में विजय प्राप्त करके कई बरसों बाद लौटा है और जोधाबाई तानसेन से इस उत्सव को यादगार बनाए के लिए कुछ विशेष सुनाने के लिए कहती है । रात हो चुकी है । महल की मुँडेरों पर दिए झिलमिला रहे हैं । अंदर का कुछ नहीं दिखाई दे रहा है । बस, वहीं दीवार के पास तानसेन गाते दिख रहे हैं- 'शुभ दिन आयो रे' ।

तो यह है दरबारी कलाकारों का हाल । हाल हमेशा से ही यही रहा है । यदि आज हो रहा है तो कौनसी नई बात है । उन्हीं मुगल-ए-आज़म, जिल्ल-ए-सुभानी अकबर के दरबार का एक और किस्सा है । तब अकबर की राजधानी फतेहपुर सीकरी हुआ करती थी । उन्होंने कृष्ण भक्ति के अष्टछाप के कवियों में से एक को उनका गाना सुनने के लिए राजधानी बुलवा भेजा । बेचारे कवि को आना पड़ा । मगर इस प्रकार के शाही सम्मान से परेशान थे । वे अकिंचन भक्त थे । रास्ते भर सोचते और कुढ़ते हुए पहुँचे और पता है, महाशय ने वहाँ जाकर क्या सुनाया? बोले -
संतन को सीकरी सों का काम ।
आवत जात पनहियाँ टूटें, बिसर जात हरि नाम ।


बादशाह और सारा दरबार सुन्न । अकबर ने उन्हें क्षमा माँगकर विदा किया । अब सोचिए कि उनकी जगह कोई इनाम-इकराम का लालची होता तो क्या ऐसे कह सकता था ?

अब आजकल कोई महानायक या किंग या बादशाह पैसे के लालच में किसी सेठ के बेटे की शादी में उसके फार्म हाउस में या जन्म दिन पर किसी बाहुबली या धनबली के घर नाचने जाएगा, तो फिर ध्यान से सुनने या न सुनने या कलाकार और कला के सम्मान के बारे में मुँह नहीं खोल सकता । मुँह माँगे पैसे लेकर मुन्नी बाई नहीं कह सकती कि यह ड्रेस नहीं पहनूँगी या कपड़े नहीं उतारूँगी या बेड रूम सीन नहीं करुँगी ।

वैसे आपकी बात ठीक भी है कि लोग कला को गंभीरता से नहीं लेते । जब राष्ट्रपति के भाषण को ही लोग ध्यान से नहीं सुनते, विधान सभा में बैठकर पोर्न वीडियो देखते हैं या सोते नज़र आते हैं तो आप-हम जैसे कलाकार तो किस खेत की मूली हैं । यह बात राजनीति में ही नहीं अन्य क्षेत्रों में भी लागू होती है । ज़माना खराब है लोग भगवान के घर में भी लड़कियाँ छेड़ने और जूते चुराने जाते हैं ।

हमारे गाँव में एक कथावाचक जी आया करते थे गरमी की छुट्टियों में । विशेष रूप से महिलाएँ गरमी की लंबी दुपहरी बिताने के लिए कथा सुनने के लिए जाया करती थीं । जैसे आजकल लोग समय बिताने के लिए फिल्मी गीतों की अन्त्याक्षरी किया करते हैं । वे महिलाएँ भी अपने साथ कुछ टाइम पास ले जाया करती थीं मतलब कि काचरी छीलना या कैर चूँटना जैसे काम । हमने महात्मा जी को कई बार कहते सुना था- माता-बहनो, आप कथा सुनने आती हैं या कैर चूँटने ? मगर किसी पर कोई असर नहीं पड़ता था । इन सब समस्याओं के बावज़ूद महात्मा जी ने कभी कथा सुनाना बंद नहीं किया । कथा नहीं सुनाते तो खाते क्या ?

इसके विपरीत हमने परम संत रामसुखदास जी को भी सुना है । वास्तव में संत थे । न बच्चे, न बीवी, न कोई संपत्ति, न कोई घर, न कोई आश्रम । एक भगवा धोती जिसे आधा कमर से लपेटते और आधा शरीर पर ओढ़ लेते थे । एक जोड़ी खड़ाऊँ और एक कमंडल । न फोटो खिंचवाते थे और न किसी से पैर छुआते थे । उन्हें कभी किसी को कहने की आवश्यकता नहीं पड़ी कि शांत रहें या ध्यान से सुनें । जब बोलते थे तो लगता था कि इस दुनिया में ही नहीं हैं । न किसी की तरफ देखना और न कोई अनावश्यक शारीरिक हरकत । और आजकल के च्यवनप्राश बेचने वाले, करोड़ों अरबों के आश्रमों के मालिक बाबाओं को, लोगों को रिझाने के लिए सत्संग से पहले ब्यूटी पार्लर में जाना पड़ता है, चुटकले सुनाने पड़ते हैं । कई तो भीड़ जुटाने के लिए सुन्दर चेलियाँ भी रखते हैं ।

तो बंधु, जब तक कोई शौक धंधा नहीं बनता तब तक ही खैर है । अन्यथा तो धंधे के सारे नाटक करने ही पड़ते हैं और पैसे देकर पधारे दर्शकों के अनुसार नाचना ही पड़ता है । उनके नाटक और नखरे सहने ही पड़ते हैं । तभी हमारा मानना है कि कलाकार को अपना पेट पालने के लिए कुछ और करना चाहिए और फिर अपनी मनमर्ज़ी से अपने शौक के लिए सम्मान पूर्वक जो चाहे करे । कहीं मानापमान का प्रश्न ही नहीं उठेगा । हमें तो लगता है कि पैसे के लिए नाचने वाले कोई भी हों - पूनम पांडे और राखी सावंत और मुन्नी या शीला या चिकनी चमेली या जलेबी बाई से भिन्न नहीं हैं - भाँड तो भाँड ही होता है फिर क्या फर्क पड़ता है कि उसकी फीस सौ रुपए है या सौ करोड़ ?

जय राम जी की ।

२८ मार्च २०१२


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