Apr 12, 2012

अमिताभ बच्चन का क्रिकेटाद्वैत

अमित जी,
जय राम जी की । इससे पहले भी हमने आप द्वारा 'कलाकार और कला के प्रति लोगों की उपेक्षा' को लेकर प्रकट की गई चिंता के बारे में लिखा था । आशा है अब आपको कल ३ अप्रैल २०१२ को आई.पी.एल. के उद्घाटन समारोह में कविता पाठ करने के बाद कला के प्रति लोगों की उपेक्षा के बारे में कोई शिकायत नहीं रही होगी । सारे देश के कला और साहित्य प्रेमी संपूर्ण श्रद्धा और भक्ति भाव से इकट्ठा हुए थे और रस में गोते लगा रहे थे । हमारे पास तो टी.वी. है नहीं, सो उस अद्भुत कला महोत्सव को देख नहीं पाए । पहले जब 'रामायण' सीरियल नया-नया शुरु हुआ था तो हम पड़ोस में जाकर देख आया करते थे मगर अब वह ज़माना नहीं रहा । पहले लोग घर आए व्यक्ति को आदर पूर्वक बैठाया करते थे और चाय भी पिलाया करते थे । अब तो कोई घर आता है तो लोग नाक-भौंह सिकोड़ते हैं । सो हम चाह कर भी कला, साहित्य और भक्ति के इस महान कार्यक्रम को देख कर अपना जन्म सफल नहीं कर पाए ।

हमारे यहाँ तो हिंदी का एक अखबार आता है जिसमें खेल पन्ने पर आपका कविता गाते हुए फोटो तो नहीं आया । क्योंकि कुछ भी कहें, हमें लगता है कि अखबार वालों ने समझा होगा कि देखने के मामले में लोग शायद करीना और प्रियंका और केटी पेरी को अधिक प्राथमिकता देते हैं । बस, एक छोटा सा समाचार आया कि आपने एक कविता का पाठ किया जिसमें आपने पुनर्जन्म मिलने की स्थिति में किसी भी रूप में क्रिकेट से ही जुड़ने की कामना की है-
 अगर जन्म मिले दोबारा मुझे तो
इस निराले खेल का छोटा सा हिस्सा बनूँ मैं
गेंद का, बल्ले का, पिच का,
कोई हिस्सा बनूँ मैं ।


बस, इतनी ही कविता छपी थी अखबार में । कोई बात नहीं, देखने को तो कुछ था नहीं । और जहाँ तक भक्त की भावना को समझने की बात है तो हमारे लिए कविता के इतने शब्द ही पर्याप्त है । हम भी छोटे-मोटे कवि हैं । हालाँकि ऐसा अद्भुत भक्ति काव्य कभी भी हमसे नहीं लिखा गया । यह सब पूर्व जन्मों का फल और भगवान की कृपा के बिना संभव नहीं होता । आप पर भगवान की कृपा है । ऐसे ही बनी रहे और आप ऐसे ही भगवान की भक्ति करते रहें और सुख-संपत्ति प्राप्त करते रहें । मोक्ष तो दुःखी लोग माँगते हैं कि फिर से इस दुःखमय संसार में न आना पड़े । सच, बड़े-बड़े नेताओं की दुर्गति देखकर हम तो अगले जन्म में क्रिकेट का हिस्सा तो क्या, मनमोहन सरकार का हिस्सा भी नहीं बनना चाहेंगे ।

वैसे अखबार में यह नहीं बताया गया कि यह कविता किसकी थी ? क्या फर्क पड़ता है ? जब आप गा रहे थे तो आपकी ही थी । सच पूछिए तो यदि यही कविता कवि स्वयं गाता तो हो सकता है लोग सुनने के लिए ही नहीं आते । जैसे कि हमारी गज़लें यदि जगजीत सिंह गाते तो प्रसिद्ध हो जातीं और यदि छम्मक छल्लो पर फिल्माई जाती तो युगों-युगों तक युवतियाँ उस पर उछलतीं और युवक सीटियाँ बजाते । हालाँकि इस बात का महत्त्व नहीं है फिर भी हम कवि की पीड़ा जानते हैं इसलिए बताते चलें कि इसे प्रसून जोशी ने लिखा था । वैसे 'स्लम डॉग मिलेनियम' में 'दर्शन दो घनश्याम' भजन को सूरदास का बता दिया जब कि वह गोपाल सिंह नेपाली का है ।

हमने इसी प्रकार के तादात्म्य भाव से परिपूर्ण रसखान की रचना पढ़ी और पढ़ाई है । आपने भी पढ़ी होगी यदि दून स्कूल वालों ने इसे अंग्रेजी स्कूल के पाठ्यक्रम में पढ़ाए जाने लायक समझा होगा तो । इसमें भी कवि किसी भी रूप में कृष्ण और ब्रज-भूमि से जुड़ना चाहता है । कविता सवैया छंद में है और उसे गाकर भी आनंद लिया जा सकता है यदि किसी के मन में 'आउट डेटेड ' कहलाने का भय नहीं हो तो । कविता इस प्रकार से है-
मानुष हौं तो वही 'रसखान' बसों ब्रज गोकुल गाँव के ग्वारन ।
जो खग हों तो बसेरो करों उन कालिंदी-कूल कदम्ब की डारन ।
जो पशु हों तो कहा बस मेरो चरों नित नन्द की धेनु मँझारन ।
पाहन हों तो वही गिरि को जो भयो ब्रज छात्र पुरंदर कारन ।


आप सोच रहे होंगे कि कवि ने और कुछ क्यों नहीं चाहा ? हो सकता है कि उस समय भारत में अंग्रेज नहीं आए थे और न ही क्रिकेट इस देश का धर्म बना था । यदि उस समय तक क्रिकेट भारत में आ गया होता और उसमें इतना पैसा हुआ होता तो रसखान ही क्या, स्वयं भगवान कृष्ण भी गीता में अर्जुन से यही कहते नज़र आते कि ‘हे अर्जुन, खेलों में मैं क्रिकेट हूँ ।’

यदि खेल को धर्म मानें तो उस समय इस देश में कबड्डी, खो-खो, पहलवानी, घुड़सवारी, तलवार-तीर-धनुष चलाना आदि बहादुरी वाले धर्म हुआ करते थे और तब खेलों में अल्पसंख्यकों और बहुसंख्यकों के धर्म जैसा कोई पक्षपात नहीं हुआ करता था । और तब खेलों में कोई पैसा भी खास नहीं हुआ करता था । यदि कोई सेठ या ठाकुर खुश हो गया तो किसी पहलवान को इनाम में ५१ रुपए दे देता था या फिर कोई कुश्ती या कबड्डी प्रेमी किसी खिलाड़ी को दूध पीने के लिए भैंस दे दिया करता था ।

क्रिकेट के अलावा दूसरे खेलों में तो हाड़ तोड़ना है और कमाई कुछ नहीं । अब बोक्सर मेरी कोम को देखिए । अब भी बेचारी कुपोषित सी लगती है । उसने कहा है कि शायद ओलम्पिक में पदक ले आने पर कुछ हालत सुधरे । आपको याद हो तो १९५० में भारत की फ़ुटबाल टीम ने वर्ल्ड कप में ब्राजील में खेलने के लिए क्वालीफाई कर लिया था लेकिन तब इतना पैसा ही नहीं था कि उन्हें बाहर भेजा जा सकता ।

अगर उस समय क्रिकेट होता और आज जितना पैसा होता तो किसे पता हमें अपने पुराने भारतीय साहित्य में ऐसी भी रचनाएँ मिलतीं जैसी कि आपने आई.पी.एल. के उद्घाटन सत्र में सुनाई । और फिर अपने-अपने भगवान हैं । जैसा भक्त, वैसे भगवान । भगवान तो कण-कण में हैं । जैसी जिसकी भावना होती है भगवान उसी रूप में दिखाई देते हैं ।
जाकी रही भावना जैसी ।
प्रभु मूरत देखी तिन तैसी ।।


किसी को विधर्मियों की हत्या में धर्म और भगवान की सेवा दिखाई देती है तो किसी दिलीप सिंह जू देव जैसे को पैसा भगवान से बड़ा नहीं, तो भगवान से कम भी नहीं दिखाई देता । किसी को नर में नारायण दिखाई देता है तो किसी को मंदिर में भी चुराने लायक जूते या मौका लग जाए कोई छेड़ने लायक युवती दिखाई देती है । एक सज्जन अपनी पत्नी को डराने के लिए अगले जन्म में चूहा या काक्रोच बनने की कामना की थी । कई लोग किसी हसीना का कुत्ता बनना चाहते हैं । एक पियक्कड़ को तो अपने तत्कालीन जन्म से कितनी घृणा थी यह इस शे'र से जाना जा सकता है-
या रब मुझे बनाना था भट्टी शराब की ।
इंसान बाना के क्यों मेरी मिट्टी खराब की ।


आजकल शराब की इतनी अनुपलब्धता नहीं है इसलिए लोग दस रुपए में लोकल दारू की एक सौ मिलीलीटर की थैली सूँत कर अपनी मिट्टी को खराब होने से बचा लेते हैं ।

आपने क्रिकेट के धर्म-स्थल आई.पी.एल. में पिच की घास, गेंद, बल्ला या क्रिकेट से संबंधित कुछ भी बनना चाहा । आप ही क्या, यह खेल ही ऐसा है जिसमें खेती जैसा पुण्य कार्य छोड़ कर पवार जैसे संत तक पिले पड़े हैं । इस खेल में बड़ा स्कोप है । गांगुली मैदान में पानी पिला-पिलाकर कप्तान बन गया । और तो और, लालू जी का पुत्र तेजस्वी बिना एक भी मैच खेले दस-बीस लाख रुपए ले गया ।

हमारे यहाँ कहा गया है- रावळै को तेल तो पल्लै में ही चोखो
अर्थात राजा के यहाँ से यदि तेल मिले और आपके पास कोई बर्तन न हो तो उसे पल्ले में ले लेना भी फायदे का सौदा होता है । राजमहल का तेल जो है ! आपको तो खैर, बकायदा अच्छा-खासा पैकेज मिला होगा ।

हमने हिंदी साहित्य में भारतीय दर्शन के कई प्रकार पढ़े हैं जैसे- अद्वैत, द्वैताद्वैत, विशिष्टाद्वैत, शुद्धाद्वैत आदि । हमारा विश्वास है कि आपने क्रिकेट के साथ अद्वैत स्थापित करके जिस दर्शन का प्रदर्शन किया है वह भी अवश्य ही भारतीय दर्शन में स्थान प्राप्त करेगा और श्रद्धालुओं का कल्याण करेगा ।

हरि ओम तत्सत् ।

४-४-२०१२
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(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी । प्रकाशित या प्रकाशनाधीन । Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication. Jhootha Sach

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