स्वतंत्रता, स्वाधीनता और स्वच्छंदता
मनुष्य के अतिरिक्त सभी के लिए प्रकृति ने एक तंत्र की स्थापना की है और सभी जीवों में वह तंत्र उनकी मूल प्रवृत्तियों में शामिल है | वे सब उसी के अनुसार आचरण करते हैं | एक चूहे को एक चूहे के रूप में कोई शर्म अनुभव नहीं होती | | वह एक अच्छा चूहा बनाने का प्रयत्न करता है और चूहे के रूप में सुखी रहता है | जब तक मनुष्य उसके तंत्र में बाधा नहीं पहुँचाए | अपने आप प्रकृति का तंत्र नहीं बिगड़ता है | किसी प्रजाति का विलुप्त होना या उसका आचरण बदलना अपने आप नहीं होता | जब मानव उनको अपने शौक या आर्थिक लाभ के लिए पालता है तो जीवों के खानपान और आदतें बदल जाती हैं | जंगल में स्वतंत्र रूप से विचरण करने वाली गायों में 'मैड काऊ डिजीज' नहीं होती | उन्हें तो जब फटाफट मांस बढ़ाने के लिए उल्टा- सीधा खिलाया जाता है तब गड़बड़ होती है | मुर्गियों में बर्ड फ्लू तब फैलता है जब उन्हें कम से कम जगह में ठूँस-ठूस कर भर दिया जाता है | पृथ्वी ने अपने हिसाब से नदियों और पहाड़ों के द्वारा अलग-अलग अंचलों का निर्माण किया है | उसी में शताब्दियों से रहते, मिलते-जुलते, रोते-हँसते, नाचते-गाते, मरते-जीते, सुख-दुःख भोगते एक समानता, एक सभ्यता, एक संस्कृति, एक दर्शन, एक जीवन पद्धति पनपती, विकसित होती है जो उन्हें सारी व्यक्तिगत विभिन्नताओं के बावज़ूद एक बनाती है और बनाए रखती है |
भारत में विचारों की स्वतंत्रता होने के बावज़ूद एक आतंरिक एकता बनी रही क्योंकि अखंड भारत के रूप में प्रकृति ने उसे एक विशिष्ट अंचल और इकाई बनाया है | तभी विभिन्न राजाओं और राज्यों के होते हुए भी आसेतु हिमालय भारत एक था | इसकी एकता ने एक आर्यावर्त, एक भारत का रूप दिया, एक दर्शन दिया | भारतीय श्रद्धा ने माता, पिता और गुरु के साथ मातृभूमि को भी एक देवता का दर्ज़ा दिया | मातृभूमि को माँ मानने से उसकी समस्त संतानों में सहोदरत्त्व का एक सूत्र आत्मा में होकर गुजरता रहा | मातृभूमि एक प्रकट, सगुण ईश्वर है | कालांतर में बाहर से आए आक्रमणकारियों के साथ आई विचारधाराओं में वह विराटता नहीं थी | एक व्यक्ति, एक पुस्तक, एक धार्मिक स्थान से जुड़ने के कारण हजारों वर्षों का साथ भी उन्हें चन्दन पानी की तरह मिला नहीं सका | फिर भी भारत की समन्वयवादी सोच ने उन्हें काफी हद तक अपने साथ मिलाया | यदि यही सब कुछ चलता रहता तो अच्छा था किन्तु कुछ अंग्रेजों की बाँटने की नीति, कुछ धर्मों की कट्टरता और लोकतंत्र की आड़ में तुच्छ सोच वाले नेतृत्वों ने इस तानेबाने को नुकसान पहुँचाया | इसके बाद धर्मों के कन्धों पर चढ़ कर आए शीत युद्ध, विदेशी घुसपैठ और विदेशी धन ने इस अलगावादी सोच को और हवा दी | अब लोकतंत्र ने नाम पर क्षुद्र जातिवादी राजनीति और उपभोक्ता संस्कृति ने इसे एक अग्नि भरा तूफ़ान बना दिया है | स्वतंत्रता दिवस इस पर विचार करने का क्षण है |
प्रत्येक समाज का, राष्ट्र का एक तंत्र होता है जो धीरे-धीरे विकसित होता है और वही उसके शासन तंत्र का आधार बनता है | हमारे पास व्यवस्था का एक लंबा इतिहास है | उसी को समयानुसार आवश्यक परिवर्तन करके सुधारना चाहिए | आज भी मानवीय संबंधों, प्रकृति के साथ सामंजस्य के सूत्रों, मितव्ययिता और संयम की जीवन शैली ही हमारे तंत्र का आधार हो सकती है | आज की गैर जिम्मेदार उपभोक्ता संस्कृति और अंधे कानून हमारे मार्गदर्शक नहीं हो सकते | हमारी जीवन शैली ही हमारी हो सकती है | वही हमें गति प्रदान कर सकती है और वही हमारा धर्म हो सकती है |
अंग्रेजो के जाने के बाद स्वतंत्र बनते समय हमने इस नींव को भुला दिया | स्वाधीनता का अर्थ है कि हम अपने नियंता और मालिक बनें | कानून के डंडे से संचालित जीवन की अपेक्षा स्वप्रेरित जीवन जिएँ | यहीं आकर संस्कारों का महत्त्व पता चलता है | संस्कार हममें एक ऐसी आदत का निर्माण कर देते हैं कि स्वतः ही एक समरसता का जीवन जीने लगते हैं | बिना किसी यश, पुरस्कार या मीडिया में आने की इच्छा के हम मानवीय संबंधों और संवेदनाओं को जीते हैं |
हम मानते हैं कि कोई नहीं तो भगवान तो देखता है | हमारी आत्मा ही परमात्मा बन कर हमारा नियंत्रण करती है | आज तो हम पकड़े जाने तक अपने को दूध का धुला बताते हैं | पकड़े जाने पर भी धन, सत्ता आदि के बल पर सत्य को झुठलाने प्रयत्न करते हैं | ये किसी संगठित और संस्कारवान समाज के लक्षण नहीं हैं | बिजली चोरी, अतिक्रमण, भ्रष्टाचार, रिश्वत आदि इसी संस्कारहीनता के कुफल हैं | धनवान को आँख मींच कर आदर देना और गरीब को हीन मानना निश्चित तौर पर भारतीय संस्कार तो नहीं हैं | पहले मोहल्ले में किसी भी शंकास्पद व्यक्ति को कोई भी बुजुर्ग कहीं भी टोक लेता था | किसी युवा या बालक को गलत हरकत करते देखकर कोई भी बुजुर्ग उसे चेक करने का अधिकार रखता था | आज आदमी अपने बच्चों को टोकने से डरता है | यह सब स्वच्छंदता की अपसंस्कृति है | समाज का कोई भी प्राणी किसी भी तरह से स्वच्छंद नहीं है | वह जन्मना ही समाज का अंग है | स्वतंत्रता और स्वाधीनता का स्वच्छंदता में बदल जाना ही आज के समय की सबसे बड़ी समस्या है | अपनी स्वच्छंदता को व्यवस्था और अनुशासन में ढालें और सही अर्थों में स्वाधीन बनें, स्वच्छंद नहीं | बिना सिग्नल के यातायात कैसे हो सकता है ? हर वाहन में गति ही नहीं, ब्रेक का विधान भी होता है | ज़रा बिना ब्रेक की गाड़ी की कल्पना तो कीजिए | यह सोच कर नियम पालन और अनुशासन की आदत डालें |
सब को सही अर्थों में भाषा, धन, पद, जाति, धर्म से परे समान मानने का आदर्श अपनाएँ तभी बात बनेगी क्योंकि लोकतंत्र में राजा और प्रजा ही नहीं वरन सभी एक राष्ट्र होते हैं | आवश्यकता 'माता पृथिव्यां, पुत्रोहम' मानने की है न कि वंदेमातरम,सूर्य नमस्कार और सरस्वती पूजा पर राजनीति करने की, रंग-नस्ल और धर्म के आधार पर दुनिया को बाँटने की | मंदिर, मस्जिद, चर्च, गुरुद्वारा, मठ या सिनेगाग से पहले देश,दुनिया और मानव मात्र की सुख-शांति-संतोष हैं |
१-८-२००६
मनुष्य के अतिरिक्त सभी के लिए प्रकृति ने एक तंत्र की स्थापना की है और सभी जीवों में वह तंत्र उनकी मूल प्रवृत्तियों में शामिल है | वे सब उसी के अनुसार आचरण करते हैं | एक चूहे को एक चूहे के रूप में कोई शर्म अनुभव नहीं होती | | वह एक अच्छा चूहा बनाने का प्रयत्न करता है और चूहे के रूप में सुखी रहता है | जब तक मनुष्य उसके तंत्र में बाधा नहीं पहुँचाए | अपने आप प्रकृति का तंत्र नहीं बिगड़ता है | किसी प्रजाति का विलुप्त होना या उसका आचरण बदलना अपने आप नहीं होता | जब मानव उनको अपने शौक या आर्थिक लाभ के लिए पालता है तो जीवों के खानपान और आदतें बदल जाती हैं | जंगल में स्वतंत्र रूप से विचरण करने वाली गायों में 'मैड काऊ डिजीज' नहीं होती | उन्हें तो जब फटाफट मांस बढ़ाने के लिए उल्टा- सीधा खिलाया जाता है तब गड़बड़ होती है | मुर्गियों में बर्ड फ्लू तब फैलता है जब उन्हें कम से कम जगह में ठूँस-ठूस कर भर दिया जाता है | पृथ्वी ने अपने हिसाब से नदियों और पहाड़ों के द्वारा अलग-अलग अंचलों का निर्माण किया है | उसी में शताब्दियों से रहते, मिलते-जुलते, रोते-हँसते, नाचते-गाते, मरते-जीते, सुख-दुःख भोगते एक समानता, एक सभ्यता, एक संस्कृति, एक दर्शन, एक जीवन पद्धति पनपती, विकसित होती है जो उन्हें सारी व्यक्तिगत विभिन्नताओं के बावज़ूद एक बनाती है और बनाए रखती है |
भारत में विचारों की स्वतंत्रता होने के बावज़ूद एक आतंरिक एकता बनी रही क्योंकि अखंड भारत के रूप में प्रकृति ने उसे एक विशिष्ट अंचल और इकाई बनाया है | तभी विभिन्न राजाओं और राज्यों के होते हुए भी आसेतु हिमालय भारत एक था | इसकी एकता ने एक आर्यावर्त, एक भारत का रूप दिया, एक दर्शन दिया | भारतीय श्रद्धा ने माता, पिता और गुरु के साथ मातृभूमि को भी एक देवता का दर्ज़ा दिया | मातृभूमि को माँ मानने से उसकी समस्त संतानों में सहोदरत्त्व का एक सूत्र आत्मा में होकर गुजरता रहा | मातृभूमि एक प्रकट, सगुण ईश्वर है | कालांतर में बाहर से आए आक्रमणकारियों के साथ आई विचारधाराओं में वह विराटता नहीं थी | एक व्यक्ति, एक पुस्तक, एक धार्मिक स्थान से जुड़ने के कारण हजारों वर्षों का साथ भी उन्हें चन्दन पानी की तरह मिला नहीं सका | फिर भी भारत की समन्वयवादी सोच ने उन्हें काफी हद तक अपने साथ मिलाया | यदि यही सब कुछ चलता रहता तो अच्छा था किन्तु कुछ अंग्रेजों की बाँटने की नीति, कुछ धर्मों की कट्टरता और लोकतंत्र की आड़ में तुच्छ सोच वाले नेतृत्वों ने इस तानेबाने को नुकसान पहुँचाया | इसके बाद धर्मों के कन्धों पर चढ़ कर आए शीत युद्ध, विदेशी घुसपैठ और विदेशी धन ने इस अलगावादी सोच को और हवा दी | अब लोकतंत्र ने नाम पर क्षुद्र जातिवादी राजनीति और उपभोक्ता संस्कृति ने इसे एक अग्नि भरा तूफ़ान बना दिया है | स्वतंत्रता दिवस इस पर विचार करने का क्षण है |
प्रत्येक समाज का, राष्ट्र का एक तंत्र होता है जो धीरे-धीरे विकसित होता है और वही उसके शासन तंत्र का आधार बनता है | हमारे पास व्यवस्था का एक लंबा इतिहास है | उसी को समयानुसार आवश्यक परिवर्तन करके सुधारना चाहिए | आज भी मानवीय संबंधों, प्रकृति के साथ सामंजस्य के सूत्रों, मितव्ययिता और संयम की जीवन शैली ही हमारे तंत्र का आधार हो सकती है | आज की गैर जिम्मेदार उपभोक्ता संस्कृति और अंधे कानून हमारे मार्गदर्शक नहीं हो सकते | हमारी जीवन शैली ही हमारी हो सकती है | वही हमें गति प्रदान कर सकती है और वही हमारा धर्म हो सकती है |
अंग्रेजो के जाने के बाद स्वतंत्र बनते समय हमने इस नींव को भुला दिया | स्वाधीनता का अर्थ है कि हम अपने नियंता और मालिक बनें | कानून के डंडे से संचालित जीवन की अपेक्षा स्वप्रेरित जीवन जिएँ | यहीं आकर संस्कारों का महत्त्व पता चलता है | संस्कार हममें एक ऐसी आदत का निर्माण कर देते हैं कि स्वतः ही एक समरसता का जीवन जीने लगते हैं | बिना किसी यश, पुरस्कार या मीडिया में आने की इच्छा के हम मानवीय संबंधों और संवेदनाओं को जीते हैं |
हम मानते हैं कि कोई नहीं तो भगवान तो देखता है | हमारी आत्मा ही परमात्मा बन कर हमारा नियंत्रण करती है | आज तो हम पकड़े जाने तक अपने को दूध का धुला बताते हैं | पकड़े जाने पर भी धन, सत्ता आदि के बल पर सत्य को झुठलाने प्रयत्न करते हैं | ये किसी संगठित और संस्कारवान समाज के लक्षण नहीं हैं | बिजली चोरी, अतिक्रमण, भ्रष्टाचार, रिश्वत आदि इसी संस्कारहीनता के कुफल हैं | धनवान को आँख मींच कर आदर देना और गरीब को हीन मानना निश्चित तौर पर भारतीय संस्कार तो नहीं हैं | पहले मोहल्ले में किसी भी शंकास्पद व्यक्ति को कोई भी बुजुर्ग कहीं भी टोक लेता था | किसी युवा या बालक को गलत हरकत करते देखकर कोई भी बुजुर्ग उसे चेक करने का अधिकार रखता था | आज आदमी अपने बच्चों को टोकने से डरता है | यह सब स्वच्छंदता की अपसंस्कृति है | समाज का कोई भी प्राणी किसी भी तरह से स्वच्छंद नहीं है | वह जन्मना ही समाज का अंग है | स्वतंत्रता और स्वाधीनता का स्वच्छंदता में बदल जाना ही आज के समय की सबसे बड़ी समस्या है | अपनी स्वच्छंदता को व्यवस्था और अनुशासन में ढालें और सही अर्थों में स्वाधीन बनें, स्वच्छंद नहीं | बिना सिग्नल के यातायात कैसे हो सकता है ? हर वाहन में गति ही नहीं, ब्रेक का विधान भी होता है | ज़रा बिना ब्रेक की गाड़ी की कल्पना तो कीजिए | यह सोच कर नियम पालन और अनुशासन की आदत डालें |
सब को सही अर्थों में भाषा, धन, पद, जाति, धर्म से परे समान मानने का आदर्श अपनाएँ तभी बात बनेगी क्योंकि लोकतंत्र में राजा और प्रजा ही नहीं वरन सभी एक राष्ट्र होते हैं | आवश्यकता 'माता पृथिव्यां, पुत्रोहम' मानने की है न कि वंदेमातरम,सूर्य नमस्कार और सरस्वती पूजा पर राजनीति करने की, रंग-नस्ल और धर्म के आधार पर दुनिया को बाँटने की | मंदिर, मस्जिद, चर्च, गुरुद्वारा, मठ या सिनेगाग से पहले देश,दुनिया और मानव मात्र की सुख-शांति-संतोष हैं |
१-८-२००६
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