Aug 19, 2015

सेक्स, सभ्यता और संस्कृति


 सेक्स,  सभ्यता और संस्कृति


मानव भी अन्य जीवों की भाँति मूलतः एक पशु ही है | उसमें भी वे सभी मूल प्रवृत्तियाँ विद्यमान हैं इसलिए आहार, निद्रा, भय और मैथुन तक दोनों समान हैं | मानवेतर सभी प्राणी आज भी उसी स्थिति में हैं जिसमें वे आदिम काल में थे | मनुष्य ने समूह में रह कर अपनी मेधा से स्वयं को सामाजिक प्राणी बनाया है | इसलिए वह सभ्य और संस्कृत बना | सभ्यता और संस्कृति का यह भेद, मानव के लाखों वर्षों के अनुभव और प्रयोग की कहानी है |

चूल्हा और दीपक मनुष्य की सभ्यता और संस्कृति के मुख्य आधार हैं | इधर-उधर भटकने वाले मानव ने जब खेती करना सीख लिया तो वह शाम को अपने परिवार  में लौट कर आने को लालायित रहने लगा | चूल्हे के चारों ओर बैठ कर भोजन करने ने उसके आपसी संबंधों को और दृढ़ किया | दीपक के प्रकाश में जब उसने पहली बार अपनी नग्नता का अनुभव किया तो उसने अपने गुप्तांगों को ढकने का उपक्रम किया | आज भी खुली से खुली समाज रचना में गुप्तांगों को ढकने का होश तो बचा ही है |

मानवता के इस होश को भी नष्ट करने वाली व्यापारिक सभ्यता अधिकाधिक स्वच्छंदता के नाम पर उसे आत्मकेंद्रित और केवल अपने लिए जीने का पाठ पढ़ा रही है | ऐसा संबंधविहीन प्राणी आसानी से उपभोक्ता संस्कृति का शिकार हो जाता है |आज पोर्न फिल्मों पर प्रतिबन्ध लगाकर फिर उसे हटाने में कोई अभिव्यक्ति या निजता की पक्षधरता नहीं है बल्कि इसी उपभोक्ता संस्कृति के आगे एक कायर समर्पण है |भले ही आज चीन में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को सीमित करने का आरोप लगाया जाता है लेकिन उसने पोर्न साइटों पर जो प्रतिबन्ध लगाया है वह उचित ही है |चीन के अनुशासन का प्रभाव उसके ओलम्पिक खेलों में प्रदर्शन में दिखता है |स्वच्छंदता की जिस अमरीकी संस्कृति को जाने-अनजाने जो मान्यता दी रही है उससे पहले अमरीका के किशोरों में व्याप्त यौन और नशे की समस्याओं की तरफ भी निगाह डाल लेनी चाहिए |

अपने-अपने धर्म की श्रेष्ठता का गुणगान करने वाले सभी धर्मों के शुचितावादी लोग पता नहीं इस समय कहाँ है ?पता नहीं, किससे कुछ लेकर खा रखा है कि उनकी भी जुबां नहीं खुल रही है- विश्वा हिन्दू परिषद और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की भी नहीं |

पशु अपनी मैथुन की प्रवृत्ति में पूर्ण स्वच्छंद है | उसके लिए उस प्रवृत्ति को पूर्ण करना ही एकमात्र  प्रकृति चालित विधान है | मानव संतानोत्पत्ति के बाद अपनी संतान के बड़े होने तक पालन और आजीवन मार्गदर्शन की बात भी सोचता है | उसे अपनी समस्त प्रवृत्तियों की शालीन व मर्यादित पूर्ति की व्यवस्था देता है | विवाह एक ऐसा ही विधान है | विवाह एक अलिखित बीमा है जिसमें सभी पक्ष अपने कर्त्तव्य का पालन करते हुए आजीवन एक दूसरे का ख्याल रखते हैं | विवाह पूर्व सभी प्रकार की जाँच-परख के बाद यदि किसी पक्ष पर कोई शारीरिक, मानसिक या आर्थिक संकट आता है तो उस स्थिति में सारे पक्ष उसके साथ होते हैं | आज जिस यौन-स्वच्छंदता की आँधी चल रही है उसमें सबसे  अधिक उपेक्षित बच्चे और वृद्ध होते हैं | सभी संस्कृतियों में विशेष परिस्थितियों में तलाक का विधान था, और है भी, पर उसे कठिन बनाया गया जिससे कि विवाह नामक संस्था संकट में न पड़े | पर आजकल जिस प्रकार के टी.वी. सीरियल आ रहे हैं या ग्लेमर जगत से जुड़े लोगों के विवाह को मजाक बना कर रखा देने वाले किस्से आते हैं वे निश्चित रूप से विवाह नामक संस्था पर खतरा हैं | यौनेच्छा की पूर्ति को विवाह और विवाह को एक पवित्र संस्कार का रूप देने के मानवीय प्रयत्न, मानव की मूलप्रवृत्ति सेक्स को सभ्यता और संस्कृति का रूप देने की कहानी है |

मूल प्रवृत्तियों को सभ्यता और संस्कृति का रूप देने का प्रयत्न मानव के प्रत्येक क्षेत्र में मिलता है | उदाहरण के लिए अन्न (भूख) जीव की मूल आवश्यकता है पर पशु जितना खाएगा, खा लेगा, शेष को संरक्षित रखने का प्रयत्न नहीं करेगा | इसी प्रकार सुरक्षित न होने के कारण भी भोजन के लिए लड़ना, समय-असमय भोजन करना उसकी मजबूरी है | पर मनुष्य भोजन को भली प्रकार पकाकर, परोसकर, सबके साथ मिलकर खाता है | यह सभ्यता है | अन्न हमारे जीवन का आधार है | भूखे की भूख का आदर करना, उसे अन्न का दान देना, अन्न को व्यर्थ न करना, अन्न को भगवान या ब्रह्म मानना संस्कृति है | इस प्रकार बालक को निरंतर शिक्षा देकर उसकी ऐसी आदत बना देना कि वह अन्न का आदर करे- यह संस्कृति है | कुछ देशों में अन्न अधिक पैदा होने पर भाव न गिर जाएँ इस डर से अन्न नष्ट कर दिया जाता है- यह अपसंस्कृति है, पाप है |

हमारे यहाँ किसी भी मूल प्रवृत्ति को नकारा नहीं गया है क्योंकि ऐसा करना अमनोवैज्ञानिक है | शिवलिंग की पूजा होती है, काम को देवता माना गया है- यह सृजन शक्ति का सम्मान है | काम में मर्यादा हो, इसलिए सभ्यता (विवाह) का विधान है | विवाह जन्म-जन्मांतर का बंधन है ऐसा कहकर इस संबंध का सम्मान किया गया है | क्रोध आवश्यक है पर क्रोध किस पर किया जाए यह हमें शिक्षा हमने सभ्यता- संस्कृति से मिलती है | सदैव शांत रहने वाले राम राक्षसों द्वारा मारे गए ऋषियों की हड्डियों का ढेर देखकर क्रोध से भरकर राक्षसों के वध का व्रत लेते हैं | घृणा भी आवश्यक है पर किसके प्रति ? बुराइयों के प्रति घृणा का संस्कार हमें बुराइयों से बचाता है | जिन परिवारों में शराब और मांस के प्रति घृणा के संस्कार दिए जाते हैं उस परिवार के बच्चों पर विपरीत वातावरण में भी ये बुराइयाँ कोई असर नहीं करतीं | साहस, उत्साह वीर रस के स्थाई भाव हैं पर उत्साह किस कार्य में ? किसी कमजोर पर अत्याचार करने में या अन्याय, दीनता, अधर्म के विरुद्ध दानवीरता,शूरवीरता अपनाने में ?

इसलिए हम अपनी मूल प्रवृत्तियों को सभ्यता और संस्कृति की नहरों में प्रवाहित करें जिससे कि ये शक्तियाँ विनाशक न बन सकें | यही धर्म है, यही सभ्यता है, यही संस्कृति है |


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