प्रसंग और सन्दर्भ के निहितार्थ
जब तक प्रसंग और सन्दर्भ का हवाला न दिया जाए तब तक किसी बात का सही अर्थ नहीं खुलता |इसीलिए जब किसी गद्यांश या पद्यांश की व्याख्या की जाती है तो पहले उसका प्रसंग-सन्दर्भ बताया जाता था | कोई ४५ वर्ष पहले हुई एक सत्य घटना को चुटकले के रूप में इतना प्रचारित किया गया कि उसका चश्मदीद होने का दावा करना झूठा लग सकता है |घटना राजकोट के एक विद्यालय में सूर के एक पद की व्याख्या से संबंधित है |सूर के एक पद की एक पंक्ति है- 'सूरदास' तब विहँँसि जसोदा ले उर कंठ लगायो | इसका वास्तविक अर्थ सूर के लगभग सभी पाठक जानते हैं |लेकिन बिना सन्दर्भ और प्रसंग समझे एक हिंदी अध्यापक ने इसका अर्थ किया- तब सूरदास जी ने हँस कर यशोदा को गले से लगा लिया |अब कानूनी रूप से तो उनके इस शब्दार्थ को चेलेंज नहीं किया जा सकता | सूर, कृष्ण और यशोदा के संबंध, घटना के प्रसंग और सन्दर्भ को जानने वाला यह अर्थ नहीं कर सकता |
हाँ, कभी किसी बात का अन्य या मनमाना अर्थ देने के लिए लोग बिना प्रसंग-सन्दर्भ के किसी बात को उद् धृत करते हैं |इसी तरह अपनी बात को किसी बड़े संदर्भ से जोड़ने के लिए लोग किसी प्रसंग विशेष का चुनाव करते हैं जैसे 'स्वच्छ भारत : स्वस्थ भारत' मिशन का शुभारम्भ गाँधी जयंती २०१५ को किया गया |उसे और प्रभावशाली बनाने के लिए उसके साथ गाँधी जी चश्मा भी चिपका दिया गया |इसी तरह गाँधी जी के 'सत्याग्रह' का अनुप्रास मिलाते हुए उसे 'स्वच्छाग्रह' भी बना दिया |अब यह अलग से विचार का विषय है कि इस अभियान में गाँधी कितना है और राजनीति कितनी ?
११ सितम्बर १८९३ को स्वामी विवेकानंद ने संयुक्त राज्य अमरीका के शिकागो शहर में आयोजित 'विश्व धर्म सम्मलेन' में अपना प्रसिद्ध सन्देश (भाषण) दिया था |यह वर्ष उस सन्देश का १२५ वाँ वर्ष है |इस अवसर पर अमरीका में भारत मूल के कुछ लोगों ने अपने समान विचारों के कुछ भारतीयों को भाषण देने लिए वहाँ आमंत्रित किया |समाचारों के अनुसार लगभग अढाई हजार श्रोता इकट्ठे हुए |
जब विवेकानंद १८९३ में शिकागो गए थे तब योरप-अमरीका आदि में भारत के उदार, अद्वैत-दर्शन के बारे कोई स्पष्ट समझ नहीं थी |बल्कि अंग्रेजों द्वारा बनाई गई पूर्वाग्रहयुक्त एक धूमिल छवि ही थी |उसे विभिन्न मूर्तियों और प्रतीकों की पूजा करने वाले एक आदिम समाज के कर्मकांडों की तरह चित्रित किया गया था |इसके पीछे कारण यह रहा कि भारत की मुक्त चिंतन और संवाद की परंपरा ने इसे कट्टरता, किसी विशेष बाह्याचरण और कठोर धार्मिक कानून के बंधनों में बँधने नहीं दिया |इसलिए यह विश्व के अन्य एकाधिकारवादी धर्मों से भिन्न विविध और समावेशी बना रहा है |इसे सरलता से धर्म के स्थान एक 'जीवन-शैली' कहा जा सकता था जिसे यहाँ के हिन्दू धर्माधिकारियों और सर्वोच्च न्यान्यालय ने भी माना है |यही इसकी विशिष्टता थी |यह शैली ही भारत का मूल दर्शन है जिसमें विभिन्न धर्मों, विचारों, सभ्यताओं, नस्लों, खान-पानों, पहनावों, पूजा पद्धतियों का निर्वाह सरलता से हो जाता है |यही बात इसे दुनिया के अन्य दर्शनों से अलग करती है |इसी का उद्घोष विवेकानंद के उस धर्म सम्मलेन में किया था |
हालाँकि इससे पूर्व अमरीका का मानवीय स्वतंत्रता का सम्मान करने वाला संविधान बन चुका था जो विश्व में अपनी तरह का मात्र संविधान था |इसी तरह १८६५ में दिवंगत अमरीका के राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन गुलाम-प्रथा और नस्ल भेद को समाप्त करने के लिए गृहयुद्ध धर्म का जोखिम उठा चुके थे जो अपनी तरह का एकमात्र गृहयुद्ध था |शायद इसीलिए अमरीका में सभी धर्मो को एकसाथ एक मंच पर लाकर संवाद का एक सिलसिला शुरू करने का प्रयास किया गया | किसी सनातन धर्म (जिसे आज 'हिन्दू' धर्म कहने का आग्रह बढ़ता जा रहा है) वाले को वक्ता के रूप में आमंत्रित नहीं किया गया क्योंकि 'सनातन-धर्म' अन्य धर्मो- ईसाई, इस्लाम, यहूदी, बौद्ध, जैन आदि की तरह एक परिभाषा में बंधने में नहीं आता |
सनातन धर्म की संवाद और चिंतन की स्वतंत्रता के कारण यहाँ जैन, बौद्ध, सिक्ख आदि विचार-सम्प्रदाय पैदा हुए लेकिन धीरे-धीरे संबंधित धर्माधिकारियों की धर्म के माध्यम से शक्ति केंद्र के रूप में विकसित होने और अन्य निजी स्वार्थों के कारण चिंतन और उससे उपजने वाली भिन्नता की स्वीकृति कम होती चली गई |इसी कारण सनातन संस्कृति और चिंतन के फलस्वरूप जन्मे सम्प्रदायों को स्वतंत्र धर्म का दर्ज़ा मिल गया | स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारत की सरकारों ने इन सम्प्रदायों के अनुयायियों को अल्पसंख्यक का दर्ज़ा देकर उन पर भिन्न धर्म होने की मोहर भी लगा दी |
अमरीका के कुछ उदारवादी लोगों के प्रयत्नों से स्वामी जी को सम्मलेन में कुछ समय के लिए अपने विचार रखने की इज़ाज़त मिली |इसके बाद तो आगे की कहानी विश्व प्रसिद्ध है कि किस प्रकार अमरीका में भारत के उदार और समृद्ध चिंतन का डंका बज गया, कैसे लोग उनके दीवाने हो गए ?
धर्मों की कट्टरता और उससे विश्व को होने वाले कष्टों की ओर भी स्वामी जी ने प्रकारांतर से संकेत किया था लेकिन उनके भाषण पर मुग्ध होने वालों ने कल्पना नहीं की होगी कि मानवता को प्रेम और करुणा के विवेकानंद के सन्देश के ठीक १०८ वर्ष बाद, ११ सितम्बर २००१ को अमरीका की शान, ट्विन टावर पर धार्मिक उन्माद और घृणा से प्रतिफलित नृशंस आक्रमण होगा |उससे पहले योरप आपसी और उसके बाद दो-दो विश्व युद्धों में उलझा |कारण यही कि हमने सुना गया लेकिन गुना नहीं गया |
आज उसी भाषण के सन्दर्भ के बहाने अमरीका के उसी शहर में उसी दिन को केंद्र में रखकर जो आयोजन हुआ है क्या उसमें विवेकानंद का वैश्विक, मानवीय, सर्वसमावेशी और मानवीय करुणा पर आधारित दर्शन कहीं शामिल है ? अभी तक तो केवल हिन्दू धर्म की श्रेष्ठता, उस पर मंडराते खतरे, उसकी रक्षा के लिए एकजुट होने के नारों के अतिरिक्त विवेकानंद जैसा कोई बड़ा विचार सामने नहीं आया है |यह आयोजकों की कोई सीमा विशेष हो सकती है लेकिन विवेकानंद का बड़ा सन्दर्भ इसमें कहीं नहीं है |
धर्मों और सम्प्रदायों की राजनीतिक और अन्य निजी प्रतियोगिताएँ, विवाद और संघर्ष हो सकते हैं लेकिन उनमें विश्व के उस बड़े हित का की संकेत नहीं है जिसका सन्देश स्वामी विवेकानंद ने दिया था |वे किसी मूर्ति और पूजा और कर्मकांड से बंधे हुए नहीं थे |उन्होंने रामकृष्ण आश्रम की स्थापना के लिए इकठ्ठा किया गया धन अकाल और अभाव पीड़ितों के लिए निःसंकोच खर्च करने का आदेश दे दिया था |इसी तरह से जब एक गौसेवक उनसे गौशाला के लिए चंदा माँगने आए तो उन्होंने स्पष्ट कह दिया कि मेरी प्राथमिकता मनुष्य है | स्वयं भी बीमारों की सेवा में खुद को खपाते हुए शहीद हो गए |
शिकागो में हुए इस नए सम्मलेन में नामधारी पंथ के दलीप सिंह ने कहा कि इण्डिया का नाम भारत रखा जाए |हालाँकि मध्यपूर्व के देशों ने 'सिन्धु' की तर्ज़ पर इस देश को 'हिन्द' के नाम से अभिहित किया और इसके निवासियों को 'हिन्दू' |इसी तर्ज़ पर यहाँ के अंकों को अरबी में आज भी 'हिन्दसा' कहते हैं |ग्रीक आदि पश्चिमी भाषाओं में सिन्धु नदी को 'इंडस' कहते हैं जिससे 'इण्डिया' बन गया |लेकिन 'भारत' 'भरत' उससे भी पुरानी संज्ञाएँ हैं इसलिए 'भारत' नाम अधिक समीचीन है |इसमें भारत में रहने वाले सभी धर्मों और सम्प्रदायों का भी 'भारतीय' के नाम से समाहार हो जाएगा | इसमें भारत में निवास करने वाले विभिन्न धर्मों जैन, बौद्ध,मुस्लिम, ईसाई, सिक्ख, पारसी, यहूदी,अनुसूचित, दलित आदि सभी का समाहार हो जाएगा |हाँ, 'भारतीय' शब्द में इनके अतिरिक्त 'हिन्दू' के नाम से अपनी पहचान के बारे में स्पष्टता कुछ कम हो सकती है |इसीलिए 'भारत' का गुण गाने वाले 'हिन्दू' की जगह 'भारत और भारतीय' की संज्ञा पर कुछ संकोच में पड़ जाते हैं |
आज दुनिया को स्वामी जी के बड़े विज़न की अधिक ज़रूरत है |
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(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी । प्रकाशित या प्रकाशनाधीन । Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication. Jhootha Sach
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (19-09-2018) को "दिखता नहीं जमीर" (चर्चा अंक- 3099) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
राधा तिवारी