Sep 14, 2018

मातम और गौरव से परे हिंदी का सच



मातम और गौरव के परे हिंदी का सच



हिंदी विश्व की सर्वाधिक बोली जाने वाले पहली, दूसरी,तीसरी भाषा है या जैसा भी उत्साही भक्तों को लिखने-बोलने के उस क्षण में उचित लगे |हिंदी विश्व के कितने देशों में बोली और कितने विश्वविद्यालयों में पढ़ाई जाती है यह भी उत्साही सेवकों की गणना पर निर्भर करता है |हिंदी की श्रेष्ठता और महानता के गुणगान का यह उत्सव विश्व हिंदी सम्मलेन के रूप में मनाया जाता है जिसके तहत हिंदी सेवक सरकारी खर्चे से उस स्थान पर जाते हैं और फारेन रिटर्न का बिल्ला और कुछ फोटो का एल्बम लिए घूमते हैं |ये कुछ चुने हुए चेहरे हैं जिन्होंने नया और हिंदी को सशक्त बनाने वाला कुछ नहीं लिखा है |

महावीर प्रसाद द्विवेदी का मानना था कि हिंदी में हर आयु वर्ग के लिए अधिक से अधिक विषयों की अधिकाधिक मौलिक और अनूदित सामग्री चाहिए जिसके लिए पाठक अपनी जिज्ञासा और ज्ञान पिपासा शांत करने के लिए हिंदी के पास आए |कहते हैं हिंदी के पहले तिलस्मी लेखक देवकीनन्दन खत्री के चंद्रकांता संतति और भूतनाथ को पढ़ने के लिए कई लोगों ने हिंदी सीखी |प्रेमचंद का साहित्य अनूदित होकर देश के कोने-कोने में पहुंचा |

आज हिंदी में ऐसा कौनसा और कितना साहित्य लिखा जा रहा है जो अपनी रोचकता, सरलता और नवीनता के कारण सभी उम्र के पाठकों को आकर्षित कर सके ? अंग्रेजी में हमें हिंदी और भारत से संबंधित उन विषयों की पुस्तकें भी मिल जाएंगी जिन पर हिंदी में कुछ नहीं लिखा गया है |

विदेशों में विश्व हिंदी सम्मलेन आयोजित करने के अतिरिक्त संयुक्त राष्ट्र संघ में भी हिंदी को पहुँचाने की बात की जाती है |हमारे एक कवि मित्र ने एक संस्मरण सुनाया कि हिंदी के कुछ तथाकथित सेवक हवाई जहाज से सरकारी खर्च पर विदेश जा रहे थे |उनमें कवियों की संख्या सबसे ज्यादा थी क्योंकि कविता सबसे सरल विधा है और छंद का बंधन ढीला होने पर तो आजकल रोबोट भी कविता लिखने लगे हैं  |फिर ये सब तो हिंदी के अध्यापक हैं |वहीँ प्लेन में ही कविगोष्ठी शुरू हो गई |कवि मित्र ने बड़े गर्व से बताया कि हिंदी आसमान में भी पहुँच गई |मुझे लगा जिसे धरती पर रहने को जगह नहीं दोगे तो उसे मजबूरन आकाश में जगह तलाशनी पड़ेगी |२०२२ में भारत का गगनयान तिरंगा लेकर जाएगा |तब हो सकता है कि हिंदी सेवक चाँद पर भी किसी 'ब्रह्माण्ड हिंदी सम्मलेन' के आयोजन का जुगाड़ बना लें |

क्या किसी देश में अंग्रेजी, चीनी, जर्मन, जापानी भाषा दिवस या विश्व हिंदी सम्मलेन जैसे आयोजन होते हैं ? क्या भारत में अंग्रेजी या अन्य कोई  विदेशी भाषा सिखाने के लिए प्रचार-प्रसार किया जाता है, कोई विशेष अभियान, अनुदान या प्रोत्साहन का प्रावधान है ? नहीं |फिर भी गली-गली में अंग्रेजी माध्यम के स्कूल और ९० घंटे में अंग्रेजी सिखाने वाले संस्थान खुले हुए हैं और पैसा कमा रहे हैं |अब तो न अंग्रेज हैं और न ही वह लार्ड मैकाले जिसके नाम पर हम देश की शिक्षा पद्धति और हिंदी की हर दुर्गति का ठीकरा फोड़ देते हैं |अब तो पिछले सत्तर साल से उनमें से कोई नहीं है |फिर हिंदी के पिछड़ेपन, अस्वस्थता और अब तो मरणासन्न होने का दोष कौन स्वीकारेगा ?

सच बात तो यह है कि जो साधन संपन्न हैं उनकी अपनी संस्कृति है, उनकी अस्मिता को हिंदी के बिना कोई खतरा नहीं है |जो विपन्न हैं, उन्हें संपन्नता का रास्ता या तो अंग्रेजी में दिखता है या फिर राजनीति में |इसलिए सभी गरीब-अमीर सारा निवेश इन दो क्षेत्रों में ही कर रहे हैं | ले-देकर भाषा, अस्मिता, संस्कृति और मूल्यों की समस्त ज़िम्मेदारी मध्यमवर्ग पर ही आती है |उनमें अधिकतर की स्थिति यह है कि उनकी भी सारी शक्ति बच्चे को दो रोटी के लायक बनाने में लगी हुई है |बच्चे का बचपन, उसकी सहजता और खुशियाँ गौण हो गई हैं |उसका समस्त ब्रह्मचर्य आश्रम, जीवन के  निर्माण और सबसे कीमती समय और माता-पिता के समस्त संसाधन मात्र कागजी डिग्री लेने में चुक जाते हैं | फिर भी नौकरी मिले या नहीं, कोई गारंटी नहीं |यदि मिले तो पता नहीं, निजी नौकरी प्रदाता उससे कितने घंटे काम लेगा. कितना निचोड़ लेगा | उसे भाषा, जीवन, अस्मिता, सहजता और उल्लास के बारे में सोचने लायक छोड़ेगा भी या नहीं ?

यह भी सच है कि बच्चों को उनकी उम्र के अनुसार कुछ रोचक, मनोरंजक और जीवन मूल्य देने वाली सामग्री चाहिए |उससे उसकी सोचने की शक्ति बढती है, उसकी दुनिया बड़ी होती है,  इस दुनिया के समस्त अवयवों, जीवों, उपादानों से उसके रिश्ते बनते हैं |केवल रोटी-रोजी के पाठ्यक्रम को रटा-रटाकर व्यवस्था और हम उसका जीवन रस चूस लेते हैं |

हम अपने आपको गर्व से दुनिया का सबसे जवान  देश कहते हैं लेकिन क्या हम बता सकते हैं कि क्यों इस देश में स्वतंत्रता के बाद कोई नोबल पुरस्कार विजेता नहीं हुआ |जो हुआ उसे अपने शोध के लिए विदेश क्यों जाना पड़ा ?

यशगान करने वाले चारण और  विश्व हिंदी सम्मलेन के बाराती तो बहुत मिलेंगे लेकिन सवा सौ करोड़ में से, सत्तर साल में नोबल के लायक एक भी लेखक नहीं निकला | यदि ओस्कर के लायक भी कुछ बनता है तो किसी जोर्ज एटनबरो को आना पड़ता है |यहूदियों की एक छोटी सी कम्यूनिटी में अब तक कोई २४ नोबल विजेता हो चुके है | कुछ तो बात है |कहीं कुछ तो कमी है |यह बात और है कि हम उसे स्वीकारना नहीं चाहते या फिर हम इतने मूर्ख हैं कि हमें माजरा समझ में ही नहीं आता |

जीवन और रोटी की भाषाएँ अलग-अलग हो सकती हैं |रोटी की भाषा में विचार, चेतना, उड़ान और स्वाधीनता का होना आवश्यक नहीं बल्कि यह कहिए कि संभव ही नहीं | यदि रोटी की भाषा से यदि थोड़ा सा  अवकाश मिले तो जीवन की भाषा भी बहुत ज़रूरी हैं |वही हमारा मानसिक पोषण है |जिसे हम और अधिक सम्पन्नता या निजी नियोक्ता  के शोषण के कारण भूलने के लिए मजबूर हो जाते हैं |

मुझे विदेश और  भारत के हिंदीतर राज्यों में रहने वाले और अब माता-पिता बन चुके अपने पूर्व शिष्यों और परिचितों के संपर्क में आने का अवसर मिलता है तो हिंदी की वास्तविक स्थिति का पता चलता है |वे चाहते हैं कि वे अपने बच्चों को उनकी उम्र के अनुसार कहानियाँ, लघु उपन्यास और शिशु गीत देना चाहते हैं  जिससे उनका जीवन बहुमुखी और सरस बन सके |लेकिन वहाँ की पुस्तकों की दुकानों में हिंदी की ऐसी पुस्तकें नहीं मिलतीं | हाँ, अंग्रेजी में हर उम्र और वर्ग के पाठकों के लिए सभी विषयों की पुस्तकें उपलब्ध हैं |इसलिए मजबूरी में अभिभावकों को अपने बच्चों की पढ़ने की आवश्यकता की पूर्ति अंग्रेजी की पुस्तकों से करनी पड़ती है |

अंग्रेजी में हर आयु वर्ग के पाठकों, विशेषरूप से बच्चों के लिए उनकी उम्र के अनुसार सीमित शब्दावली में तरह-तरह की पुस्तकें उपलब्ध हैं |बहुत रोचक और सुन्दर |क्या हिंदी में इस प्रकार के लेखक और प्रकाशक हैं ?
प्रकाशक अपने सरकारी खरीद के जुगाड़ और गणित के हिसाब से पुस्तकें छापते हैं |सरकारें भी अपने राजनीतिक हितों के अनुसार साहित्य लिखवाती, छपवाती और सरकारी पैसे से सरकारी स्कूलों और पुस्तकालयों में ठुंसवाती हैं |

भारतीय वांग्मय में पंचतंत्र, हितोपदेश, पुराण, लोक साहित्य, प्रेमचंद, अकबर बीरबल, तेनाली रामा याअनूदित मुल्ला नसरुद्दीन, विविध लोककथाओं,  देवकीनंदन खत्री और कुछ जासूसी उपन्यास लेखकों के अतिरिक्त और क्या है जो आज के सन्दर्भ, शब्दावली और देश काल से जोड़कर बच्चों और किशोरों को इतना रोचक साहित्य दे सके कि वे उसे पढ़ने के लिए हिंदी सीखें या उसे पढ़ते-पढ़ते हिंदी से जुड़ जाएं |

क्या हिंदी के नाम पर रोटी-रोजी कमाने वालों, हिंदी के सेवा के नाम पर खुद को स्थापित और लाभान्वित करने वालों के पास इसका कोई उत्तर है कि क्यों हिंदी में 'ट्विंकल ट्विंकल ..' हैप्पी बर्थ डे.. ' जैसा कुछ है ? क्या एनिड ब्लाइटन जैसा कोई लेखक है ?

हाँ, प्रकाशक छापते हैं , लेखक छपते हैं | अच्छे लेखक अप्रकाशित और विपन्न हैं |प्रकाशक समृद्ध हैं | क्षेत्र में स्थापित एक दूसरे को प्रशंसित-सम्मानित करते हैं, आयोजनों का जुगाड़ करते हैं | नौकरी के लिए कट पेस्ट द्वारा घटिया शोध होते हैं |कालेजों में गाइडों से पढाई होती है |प्रवक्ता मूल पुस्तकें पढ़ते नहीं हैं  तो बच्चों से क्या आशा की जाए ? पुस्तकालयों में स्तरीय पुस्तकें नहीं हैं |हिंदी में आज से कोई साढ़े पाँच दशक पहले दो भागों में डा. धीरेन्द्र वर्मा द्वारा संपादित  'हिंदी साहित्य कोश' (दो भाग )  भी उन सभी कालेजों में नहीं है जहां स्नातकोत्तर स्तर पर हिंदी पढ़ाई जाती है |नागरी प्रचारिणी का 'विशाल हिंदी शब्द सागर' भी कालेजों में नहीं है |हिंदी साहित्य कोश के नए संस्करण में कोई परिवर्तन नहीं किया गया है |क्या पिछले साठ सालों में हिंदी भाषा और साहित्य में कुछ नया नहीं हुआ |पहले संस्करण तक नामवर उल्लेखनीय नहीं हो सके और नए संस्करण में संपादकों ने कुछ नया  जोड़ने की जहमत नहीं उठाई गई |इसलिए नामवर सिंह कहीं नहीं हैं |

अखबारों और सरकारी कामकाज में भाषा की गलतियों की भरमार है |भाषा और वर्तनी के मामले में पूर्ण अराजकता है | किसी भी क्षेत्र में स्वावलंबन की चाह नहीं है तो फिर ऐसे ही होता है |हम विदेशी कंपनियों को यहाँ बुलाकर, उनसे अपने मजदूरों और संसाधनों का शोषण करवाकर उसे विकास का नाम देते हैं तो ऐसे में भाषा किसी प्राथमिकता में कैसे आएगी ?

चलिए, अभी तो विश्व हिंदी सम्मलेन के बहाने हिंदी सेवकों द्वारा हिंदी की महानता का गुणगान सुनें और उनके मारीशस के संस्मरण पढ़ें |उसके बाद सितम्बर में हिंदी की दुर्दशा का स्यापा करने के लिए तैयारी करें |


वैसे चलते-चलते बता दें कि गंगा, गाय और हिंदी को किसी सेवक की आवश्यकता नहीं है |ये बीमार नहीं हैं |आपको पानी के लिए गंगा की ज़रूरत है तो उसे साफ करें, उसमें रासायनिक कचरा व अन्य अपशिष्ट न डालें |यह  बात और है कि आप उसकी सफाई के नाम पर बजट खाने के लिए उसे न तो मरने देते हैं और न ही साफ़ करते हैं | दूध चाहिए तो गाय पालिए, उसकी सेवा कीजिए |यदि केवल गौशाला की ग्रांट से मतलब है तो उसके लिए गाय की नहीं, कागज पर गौशाला की ज़रूरत है |वैसे ही यदि हिंदी से प्रेम है तो हिंदी बोलिए,हिंदी पढ़िए और हिंदी में अच्छा लिखिए |

गाय, गंगा और हिंदी पूजा के नहीं, हमारे जीवन से जुड़े मामले हैं | बदमाश  हर चीज, हर विचार और हर कर्म की मूर्ति बना देते हैं, उसकी आरतियाँ गाने लगते हैं, मंदिर बना देते हैं तथा  प्रसाद और माला का धंधा करने लग जाते हैं |एक तरफ लोगों को धर्म ,भाषा, जाति के नाम पर लड़ाते-बाँटते है और दूसरी तरफ  एकता की मूर्ति बनाते हैं |जीव के पैरों में अज्ञान और अंधविश्वास की बेड़ियाँ डालकर लिबर्टी की मूर्ति के लिए अरबों का खर्चा करते हैं |

वैसे भी किसी अपराध, धोखाधड़ी, मक्कारी के मामले में दुष्ट लोग तत्काल सभी भेदों से ऊपर उठकर  बिना भाषा के भी इशारों-इशारों में ही समझ और समझाकर अपनी योजना को अंजाम दे देते हैं | धंधे के लिए किसी हिंदी अग्रेजी की ज़रूरत नहीं |धंधा अपने नियम और भाषा खुद तैयार कर लेता है |

आज से कोई पचास साल पहले की बात है |उन दिनों गाँजा, हिप्पी, बीटल आदि का चलन था |जयपुर में तरह-तरह के पर्यटक आते थे |जैसे आजकल मेडिकल ट्यूरिज्म या सेक्स त्यूरिजम चलता है वैसे ही उन दिनों नशे के लिए भारत आने वालों की संख्या भी बहुत हुआ करती थी | मिर्ज़ा इस्माइल रोड जयपुर ही व्यस्त और प्रसिद्ध सड़क है |वहाँ एक पेट्रोल पम्प हुआ करता था |मैं उन दिनों जयपुर के हिंदी अखबार 'राष्ट्रदूत' में समाचारों पर आधारित पद्यमय प्रतिक्रिया  का एक कालम लिखा करता था |इसलिए हर शनिवार को अपने कालम की सामग्री देने के लिए उधर जाता था |पेट्रोल पम्प के पास बरगद के एक पेड के चबूतरे पर बैठे एक मजदूर टाइप आदमी को बैठे देखता था |एक दिन देखा कि वह किसी विदेशी पर्यटक को एक हाथ में चिलम और दूसरे हाथ में दो रूपए का  नोट दिखा रहा है |इसका मतलब समझाने की ज़रूरत नहीं |वह कह रहा था कि चिलम पीनी है तो दो रूपए लगेंगे |सौदा हो गया |ऐसे सौदों में भाषा कोई दीवार नहीं बनती |सभी धंधों की भाषा एक ही है |

अब सोचें और तय करें कि हमें कौनसी भाषा चाहिए ?  धंधे वाली भाषा या दिल से दिल की बात करने, एक दूसरे के सुख-दुःख में साझीदार बनने, संवेदनाओं और सुखद संस्मरणों को संजोने, हवा-पानी और रंगों पर अपना नाम लिखने के लिए कोई भाषा चाहिए |दिल और सुख-दुःख की भाषा के लिए बिना अहम और कुंठा के, सबको सबके साथ चन्दन-पानी की तरह मिलना पड़ता है | तब उस भाषा की 'बास' अंग-अंग में समाएगी |







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(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी । प्रकाशित या प्रकाशनाधीन । Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication. Jhootha Sach

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