भेष और भावना
मनुष्य को अपनी पर्यावरणीय परिस्थितियों के अनुसार अपनी जीवन-शैली का निर्माण करना पड़ता है | कालान्तर में उसे उससे इतना मोह हो जाता है कि उसे छोड़ना उसे अपनी अस्मिता और अस्तित्त्व के लिए खतरा लगाने लग जाता है |संस्कृति और धर्म का व्यवसाय करने वाले ऐसी जीवन शैलीगत बातों को धर्म के साथ जोड़ देते हैं जिससे ऐसी छोटी-छोटी और धर्म से ताल्लुक न रखने वाली बातें भी बड़ा मुद्दा बन जाती हैं और बड़े-बड़े व्यर्थ संघर्षों को जन्म देते हैं, उदाहरण के लिए दाढ़ी, टोपी,पगड़ी, भोजन आदि | बड़ी सोच वाले व्यक्ति इन्हें इतना महत्त्व नहीं देते | भगत सिंह सिक्ख थे , दाढ़ी-पगड़ी रखते थे लेकिन देश सेवा के लिए अंग्रेजों से बच निकलने के लिए दाढ़ी-पगड़ी छोड़ने में उन्हें एक क्षण भी नहीं लगा | आस्ट्रेलिया में दुर्घटनाग्रस्त एक बच्चे की जान बचाने के लिए एक सिक्ख युवक ने अपनी पगड़ी की पट्टी बनाते समय कोई सोच-विचार नहीं किया |जब कि
वेश की कमाई खाना या उससे किसी को धोखा देना बहुत बुरा माना गया है | जब भरत कौशल्या को राम के वनगमन में अपना हाथ होने के लिए सफाई देते हैं तो कहते हैं- हे माता , यदि मेरा ऐसा मत हो तो गर्हित से गर्हित पाप करने वाले को मिलने वाले दंड मुझे मिलें |इन गर्हित पापों में बहुत से पापों यथा- वेद (ज्ञान) बेचने वाले, धर्म को दुहने (धन लाभ )करने वाले, लोभी-लम्पट, दूसरे का धन हड़पने की योजना बनाने वाले आदि-आदि के साथ वेश बदलकर संसार को छलने वाले का भी ज़िक्र करते हैं |इस प्रकार वेश की कमाई खाना और वेश बदलकर धोखा देना गर्हित कर्म हैं |रावण के साधु वेश धारण करके सीता का हरण करने से समस्त साधु शंका के घेरे में आ जाते हैं |सुदर्शन की कहानी में बाबा भारती का खड्ग सिंह को यह कहना कि तुम किसी को यह मत कहना कि तुमने विकलांग का वेश बना कर छल से घोड़ा हथिया लिया अन्यथा वास्तव में भी किसी विकलांग का कोई विश्वास नहीं करेगा, खड्ग सिंह का हृदय परिवर्तन कर देता है लेकिन अब वेश की कमाई खाने वाले समय में खड्ग सिंह एक महात्मा नज़र आने लगता है |
रामचरितमानस में एक और प्रसंग आता है- राजा सत्यकेतु का जो जंगल में शिकार के लिए जाता है और अपने द्वारा हराए हुए राजा के साधु वेश से छला जाता है |वहाँ तुलसी कहते हैं-
तुलसी देख सुवेश
भूलहिं मूढ़ न चतुर नर |
लेकिन आज वेश की कमाई और उसका दुरुपयोग करने वाले कितने चतुर हैं इसका अनुमान आजकल हो रही घटनाओं से सहज ही लगाया जा सकता है |बहुत से अपराधी पुलिस, सरकारी अधिकारी, गैस ठीक करने वाले मीटर रीडिंग करने वाले आदि के वेश में आ जाते हैं |पठानकोट हमले के अपराधी भी सैनिक वेश में थे |सीकर जिले में एक घटना हुई |उन दिनों स्वाइन फ्लू फैला हुआ था और उसके सस्ते इलाज़ के बहाने प्रशंसा बटोरने वाले इसका काढ़ा मुफ्त पिला रहे थे और अखबारों में समाचार छपवा रहे थे | इससे फायदा कितना हुआ यह तो भगवान जाने लेकिन एक चतुर महिला ने इसका फायदा उठाया |उसने दोपहर के समय जब गृहिणी घर पर अकेली थी तो नर्स के कपड़े पहनकर दस्तक दी और स्वाइन फ्लू का काढ़ा पिलाया |उसे पीते ही गृहिणी बेहोश हो गई और वह माल लेकर चम्पत |
आदमी कितना चतुर हो और वेश बदले हुए किस-किस को पहचाने |कभी न कभी तो चतुर से चतुर नर भी धोखा खा जाता है |जब राजा सत्यकेतु धोखा खा सकता है तो सामान्य आदमी क्या बिसात | उसे तो कोई भी धोखा दे जाता है फिर चाहे वह भिखारी के वेश में हो या जनसेवक के | वस्तुतः जन सेवक के वेश में धोखे की सबसे अधिक संभावना रहती है |
जहाँ जून २०१५ में दाढ़ी कटवाने पर दंड की घोषणा थी वहाँ अब इस्लामिक स्टेट ने एक फरमान ज़ारी किया है कि उसके स्वयं सेवक या जिहादी या धर्म-योद्धा कुछ भी कहें, छोटी दाढ़ी रखे, जींस पहनें,ईसाइयों जैसे नज़र आएं और मिस्वाक का दातुन न करें |
कुछ वर्षों पहले मिस्वाक के नाम से एक टूथपेस्ट का विज्ञापन बहुत धूमधाम से आया करता था | एक बार अमरीका में एक मुस्लिम परिचित के पास बड़ी बढ़िया पेकिंग में एक दातुन देखा |बहुत आश्चर्य हुआ कि इतने प्रकार के टूथपेस्टों के युग में एशिया से यह लकड़ी का दातुन क्यों मँगवाया ? अब जब इस्लामिक स्टेट का यह फरमान पढ़ा तो मिस्वाक के बारे में जानने की इच्छा हुई |पता लगा कि अरब और इसी तरह रेगिस्तानी इलाकों में एक पेड़ पाया जाता है जिसका नाम वहाँ मिस्वाक हो लेकिन अपने यहाँ उसे पीलू या जाळ कहा जाता है |यह एक बहुत ही टेढ़ा-मेढ़ा सा घनी पत्तियों वाला पेड़ होता है |इसके फल को पील कहते हैं जो खाने में खट्टा-मीठा स्वाद देता है |इस दातुन को हमेशा नहीं तो धार्मिक दिनों में प्रयोग करने से बहुत सबाब मिलता है |यह राजस्थान से बरेली जाता है और वहाँ से निर्यात होता है |
अब ये जो दिखने के लिए आदतें बदलने का फरमान है वह न तो किसी प्रकार का प्रगतिवाद है और न ही धर्मान्धता से मुक्ति का प्रयास |यह भेष का धोखा है |
ताजिकिस्तान में कट्टरपंथी न दिखने के लिए १३ हजार लोगों की दाढ़ी कटवा दी गई है, पारंपरिक वेशभूषा की १६० दुकानें बंद करावा दी गई हैं, १७०० महिलाओं से पारंपरिक बुरका, हिजाब पहनना बंद करने को कहा गया है | पता नहीं, इसका कितना और क्या प्रभाव पड़ेगा ?
हम कब नाम, वेश, धर्म और नस्ल से परे आदमी को पहचानने के स्वाभाविक विवेक और मानवीय संबंधों और संवाद तक पहुँचेंगे ? यह बदलाव वस्त्रों और बाहरी पहचान की बजाय मूल्य आधारित मानवीय शिक्षा से ही संभव है |
क्या भेद की नीति से अपना उल्लू सीधा करने वाले धर्म के ठेकेदार और राजनेता ऐसा करने देंगे ? क्या हम वेश की आड़ में छिपे ऐसे लोगों को पहचानने का प्रयत्न करेंगे और अपने वोट के अधिकार को इस परिवर्तन का हथियार बनाएंगे ?
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