अटल जी को याद करते हुए
अटल जी से बहुत से लोगों के बहुत से संस्मरण जुड़े हुए हैं | इस बार की पोस्ट में मैं भी उनके बारे में अपनी कुछ यादें आपके साथ साझा करना चाहता हूँ |
उनके साथ सबसे बड़ी बात यह थी कि वे भी नेहरू जी की तरह लोकतंत्र के लिए हास्य-व्यंग्य को बहुत ज़रूरी मानते थे और खुले मन से उनकी प्रशंसा करते थे |
एक बार की घटना है कि नेहरू जी की कुछ बातों को पसंद न करने वाली एक कार्यकर्त्ता ने संसद से बाहर निकलते हुए नेहरू जी का कालर पकड़ लिया और पूछने लगी कि हमें इस आज़ादी से क्या मिला ? नेहरू जी ने उत्तर दिया- यह मिला कि आप देश के प्रधान मंत्री का कालर पकड़े खड़ी है |
एक और किस्सा- प्रसिद्ध व्यंग्य चित्रकार लक्ष्मण ने अपने एक कार्टून में प्रकारान्तर से नेहरू जो गधा बताया |उसके कुछ दिनों बाद जब लक्ष्मण दिल्ली गए हुए तो उन्हें नेहरू जी का फोन मिला- क्या तुम आज एक गधे के साथ चाय पीना पसंद करोगे ?
तो यह है एक झलक इस देश के कुछ उदार नेताओं की और अब ?
बस, यही सोचते हुए यह पोस्ट प्रस्तुत है |
इसके साथ ही हास्य-व्यंग्य के वे कुछ पत्र भी शेयर कर रहा हूँ जो अटल जी के नाम उनके सत्ता में रहते हुए लिखे थे |इन्हें उस समय पाठकों ने बहुत रूचि से पढ़ा था |
आप भी इन्हें बिना किसी पूर्वाग्रह और कुंठा के अटल की जी तरह विकुंठ भाव से ठहाके लगाते हुए पढ़ें |
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अटल जी : जिन्होंने कुर्सी को नीचे रखा, दिमाग में नहीं घुसने दिया
आज अब दुनिया में आलोचना, व्यंग्य और हास्य के लिए स्थान कम पड़ रहा है, खरी-खरी कहने वाले लिंचिंग और लफंगई के शिकार हो रहे हैं तब हास्य और व्यंग्य को सहज भाव से स्वीकार करने वाले अटल जी बहुत याद आ रहे हैं |स्वस्थ लोकतंत्र के लिए जन सेवकों का अटल जी जैसा सहज, सामान्य और बालसुलभ होना बहुत ज़रूरी है |
बात १४ अक्तूबर १९९५ की है |अटल जी के कविता संकलन 'मेरी इक्यावन कविताएँ' का श्री नरसिम्हा राव द्वारा विमोचन का समाचार |विमोचन में बोलते हुए राव साहब ने अटल जी को अपना गुरु बताया था |
मैं उन दिनों लगातार कुण्डलिया छंद लिख रहा था जो जनसत्ता, हिंदुस्तान, राष्ट्रीय सहारा, कादम्बिनी आदि में छप भी रहे थे |जैसे ही समाचार पढ़ा कई कुण्डलिया छंद अनायास ही बन गए जिनमें से कुछ इस प्रकार से थे-
शिष्य अटल जी के बने पछताएँगे आप
जो इनका चेला बना उसका पत्ता साफ़
उसका पत्ता साफ़, चंद्रशेखर बतलाएँ
पी.एम. की कुर्सी पर कितने दिन रह पाए
कह जोशी कविराय इरादा बदल दीजिए
इनके चेले शेखर जी से सीख लीजिए
सुनो अटल जी राव की मानो नहीं सलाह
चौथेपन में कैरियर क्यों कर रहे खराब
क्यों कर रहे खराब, इक्यावन पद्य सुनाएँ
सिर पर रखकर पैर सभी वोटर भग जाएँ
कह जोशी कविराय पड़े पछताना कल को
कर कविता बरतरफ सँभालो अपने दल को
चेले तो मिलते बहुत पर है एक सवाल
नहीं चाहिए 'गुरु' इन्हें चहिए 'गुरु घंटाल'
चहिए 'गुरुघंटाल' दलालों से मिलवाए
कुर्सी, कोठी, कार,कमीशन खूब दिलाए
कह जोशी कविराय शिष्य जब समझ जाएँगे
गुरु है फाका मस्त छोड़कर भग जाएँगे
'कैदी कवि अपहरण का' हम को आया ख्वाब
हम कितने बेचैन थे कह ना सकें जनाब
कह ना सकने जनाब, मित्र ने जब समझाया
'कवि का बाँका बाल नहीं कोई कर पाया
कह जोशी कविराय सभी कवि से डरते हैं
अल-फरान* क्या चीज राव भी गुरु कहते हैं |
(एक तत्कालीन अतिवादी संगठन )
राजनीति और काव्य का नहीं ज़रा भी मेल
जो राजा शायर बना, बिगड़ा उसका खेल
बिगड़ा उसका खेल, ज़फर को जेल हो गई
गया तख़्त औ' ताज शायरी फेल हो गई
कह जोशी कविराय एक पर ध्यान दीजिए
बना रहे हैं राव आपको समझ लीजिए
नेताजी कवि हो गए, बदल गए बदमाश
सूटकेस तज पढ़ रहे श्लेष और अनुप्रास
श्लेष और अनुप्रास, गोष्ठियां भी करते हैं
'वंस मोर, क्या खूब, बहुत सुन्दर' कहते हैं
कह जोशी कविराय कष्ट सहना पड़ता है
कवि से हो 'गर काम रसिक दिखना पड़ता है |
अटल जी ने १९ अक्तूबर १९९५ को उस पत्र का ज़वाब भी लिख दिया |इतनी सहजता, इतना ज़मीनी और जीवंत जीवन |लोकतंत्र में यही सहजता और विनम्रता सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है जो आज की राजनीति में समस्त विश्व में विरल होती जा रही है |नेता लोग अपने शिलापट्ट के लिए सिरफोड़ी करते दिखाई देते हैं, आत्मप्रशंसा और आत्ममुग्धता से ग्रस्त हैं |विश्व राजनीति में आ रहा यह टुच्चापन डराता है |
उनका पत्र इस प्रकार था-
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अटल बिहारी वाजपेयी, नेता प्रतिपक्ष, लोकसभा
१२/३
१९ अक्तूबर १९९५
प्रिय जोशी जी
आपका १४ अक्तूबर का पत्र तथा चुटकियाँ मिलीं |पढकर मज़ा आगया | आप चुटकियाँ लिखने पर ध्यान दें, प्रकाशन के लिए भेजें | हिंदी में शिष्ट हास्य की कमी है |
जहां तक राजा के शायर होने का सवाल है तो मैं राजा नहीं हूँ यह लोकतंत्र का ज़माना है |सेनेगल के राष्ट्रपति बहुत अच्छे कवि है |फिर कुल जमा ५१ कविताएँ लिखने वाला व्यक्ति कवि भी नहीं कहा जा सकता |
दीपावली की शुभकामनाओं के साथ,
आपका,
अटल बिहारी वाजपेयी
श्री रमेश जोशी
केन्द्रीय विद्यालय नं. १, दिल्ली कैंट
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इसके बाद सामयिक विषयों और घटनाओं पर दो कुण्डलिया संकलन आए | तीन संकलनों पर काम चल रहा है |उनसे कभी साक्षात् मिलना नहीं हुआ फिर भी उनसे एक नाता अनुभव होता है जिसके लिए कोई नाम नहीं सूझ रहा है |सहज और निस्वार्थ नाते बेनाम ही होते हैं |
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सहस्र चन्द्र-दर्शन
( अटल जी के अस्सी वर्ष के होने पर उनका जन्म दिन को 'सहस्र चन्द्र दर्शन' के रूप में मनाने की भव्य योजना )
आदरणीय अटल जी भाई साहब,
नमस्कार और जन्म दिन की बधाई | कहा गया है कि उसी रास्ते का अनुसरण करना चाहिए जो महाजनों ने दिखाया है | महाजनो येन गतः स पंथाः | पर आजकल महाजन वैसे नहीं रहे | पहले महाजन सेवा, सादगी,और संयम का मार्ग दिखाते थे पर आजकल क्लिंटन जैसे महाजन और ही कोई रास्ता दिखाते हैं | गाँधी जी के सचिव महादेव भाई के हिसाब में एक आने का फर्क आ गया तो गाँधी जी ने कहा कि यह रकम वे अपनी जेब से भरें | पर आजकल महाजन ठेका दिलवाने और यहाँ तक कि प्रश्न पूछने तक में पैसा खाते हैं | सांसद निधि को उन्होंने अपना मान कर अपनी एकात्मता का परिचय दिया है | फिर महाजन का अर्थ बदल कर व्यापारी हो गया | जो श्रम और चतुराई से धन कमाते थे पर उन्हें समाज में सेठ का दर्जा तभी मिलता था जब वे समाज सेवा के कामों में धन खर्च करते थे | पहले सारे औषधालय, मंदिर, तालाब, स्कूल, धर्मशालाएँ प्रायः सेठों के बनवाए हुए होते थे | पर आजकल तो वे बंद कमरों में बैठकर व्यक्तिगत हित के लिए राजनीति करते हैं | उनका काम अद्भुत नारे देना, कर्म की जगह विज्ञापन करना और श्रम की जगह बिल बनाना रह गया है |
पिछले चुनावों में ऐसे ही नीति निर्धारकों ने 'फील गुड़' और 'इण्डिया शाइनिंग' के नारे देकर आपका मजाक बनवा दिया और घुटने तुड़वा दिए | अब ऐसे लोग ही 'सहस्र-चन्द्र-दर्शन' का नाटक लाए हैं | कहते हैं दक्षिण में ऐसा चलता है | यदि उत्तरी ध्रुव में नाटक करने का कोई उदहारण मिलेगा तो ये उसका अनुसरण भी कर गुजरेंगे | पीने वालों को पीने का बहाना चाहिए | एक उत्सव तो सुना है षष्ठी पूर्ति अर्थात साठ बरस पूरे होने का होता है | उस दिन सरकारी कर्मचारी को माला पहनाकर, नाश्ता करवाकर, घर तक पहुँचा कर आते हैं और कह देते हैं कि अब पेंशन में गुजारा चलाना | एक उत्सव होता विवाह की पचासवीं वर्षगाँठ का | उस दिन बूढ़े-बुढ़िया को सजा-धजाकर फोटो खींचे जाते है और उनका तमाशा बनाया जाता है | पर यह चन्द्र-दर्शन तो आज ही सुन रहे हैं | वैसे अमावस्या और प्रतिपदा के अलावा अट्ठाईस दिन चन्द्र-दर्शन होता ही है | ईद का चाँद, दूज का चाँद, पूर्णिमा का चौथ का चाँद, चौदहवीं का चाँद भी सभी जानते ही हैं |
हमने भी बहुत से चाँद देखे हैं और तारे तो किसी भी महापुरुष से दुगुने देखे हैं | वैसे तो बड़े आदमी प्रायः ए.सी.बंगले में रहते हैं सो चाँद-तारे तो क्या देखते होंगे | ये तो हमीं हैं जो दिन में सूरज और रात में चाँद ही नहीं, दिन में भी तारे देखते हैं | भगवान और कुछ दे न दे पर गरीब का छप्पर तो यदा-कदा फाड़ ही देता है जिसमें से चाँद, तारे, सूरज, धूप, बरसात, पौष की ठंडी हवा और मावठ सभी निधड़क प्रवेश करते हैं |
ठीक है, महाजनों ने हिसाब लगाया है, भव्य आयोजन का प्लान बनाया है | आपको और उनको बधाइयाँ | वैसे व्यक्ति की उम्र चाँद, तारों, दिनों और वर्षों से नहीं नापी जाती, वह तो उसके कार्यों से नापी जाती है | इस दृष्टि से आपकी उम्र सार्थक गुजरी है | साधारण मंच से लेकर लाल किले से आपने भाषण और कविताएँ सुनाई और क्या चाहिए ? आप अस्सी के होने वाले हैं पर आपकी मुस्कान, चेहरे की लाली और जिंदादिली को देखते हुए आप हमें स्वयं से भी छोटे लगते हैं | पर लगने से क्या ? महापुरुषों और सरकारी कर्मचारियों की उम्र किसी से छिपी थोड़े ही रहती है |
आपके प्रधान मंत्रित्व काल में तो आपके जन्म दिन पर महाकवि सुरेन्द्र शर्मा ने एक कवि सम्मलेन का आयोजन करवाया पर अबकी बार ऐसा कोई आयोजन नहीं हो रहा है | शायद शर्मा जी मनमोहन जी और सोनिया जी में कविता तलाश रहे हैं | पर हमारे लिए तो हर हालत में आप हमारे अटल जी भाई साहब हैं | 'चन्द्र-दर्शन' की गिनती तो हमने नहीं की पर जन्म दिवस के उपलक्ष्य में एक बार पुनः बधाई |
२३-१२-२००५
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ज्यों की त्यों धर दीनी चदरिया
(अटल जी ने कहा- अब चुनाव नहीं लडूँगा, राजनीति से संन्यास ले लूँगा )
अटल जी भाई साब,
जय श्रीराम | इसी कालम में हमने आप से निवेदन किया था कि संन्यास ले लें | उस समय आपने हमारी बात नहीं मानी और आज अचानक संन्यास लेने की घोषणा कर दी | अब प्रमोद महाजन के 'सहस्र चन्द्र दर्शन कार्यक्रम' का क्या होगा ? वे तो अपनी पार्टी के शो मैन हैं, पाँच सितारा ईवेंट मनेजमेंट के पी.एच.डी. हैं |
कहा गया है कि साधारण व्यक्ति के जीवन के चार आश्रम होते हैं पर संन्यासी के जीवन में तो दो ही आश्रम होते हैं | संन्यासी ब्रह्मचर्य से सीधा संन्यास आश्रम में प्रवेश करता है | आजकल नेता उनसे भी महान होने लग गए हैं | उनके बच्चे राजनीति रूपी गृहस्थ आश्रम अर्थात 'काम' में ही जन्म लेते हैं और उसी में जीवन छोड़ते हैं | पशुओं का भी यही हाल है | आजकल टी.वी.व भोगवादी संस्कृति के कारण बच्चा दस साल की उम्र में ही जवान होने लग गया है और तमाम उम्र धर्म, अर्थ और मोक्षविहीन, केवल 'काम' में ही जीवन बिताता है | आप शाखा के ब्रह्मचर्य आश्रम से सीधे ही राजनीति के गृहस्थाश्रम में आ गए | अस्सी बरस के होने पर भी वानप्रस्थ तक का नाम नहीं लिया, सन्यास की कौन कहे | पर देर आयद, दुरुस्त आयद | आपने संन्यास का फैसला ले ही लिया |
यह सन्यास क्या वास्तव में ही सन्यास है या कुछ और ? यह तो समय ही बताएगा | यह राजनीति वास्तव में ऐसा कंबल है जिसे पहले महात्मा जी पकड़ते हैं फिर जब कंबल डुबोने लगता है और महात्मा जी उसे छोड़ना चाहते हैं तब कंबल उन्हें नहीं छोड़ता | हो सकता है अगले चुनाव में लोगों को आपकी ज़रूरत पड़े | और पाँच टाँग वाली अजूबा गाय की तरह आपको रथ में बिठा कर घुमाने लग जाएँ |
आपने कहा कि आप चुनाव नहीं लड़ेंगे पर क्या चुनाव नहीं लड़ने मात्र से ही राजनीति से संन्यास हो गया ? विकल्प खुले रखने से संकल्प नहीं होता | संकल्प के लिए सारे विकल्प छोड़ने पड़ते हैं | कुछ लोग पान छोड़ने के चक्कर में सारे दिन में पाव भर इलायची, सुपारी या खैनी चबाने लगते हैं | अंडा तो अंडा है, क्या शाकाहारी और क्या मांसाहारी | शाकाहार तो वह जो खेत में पैदा होता है | मुर्गी के पेट से निकलने वाला तो अंडा ही होता है | गाँधी जी ने एक बार देखा कि गाय का दूध निकालने वाले गाय पर कुछ इस तरह का दबाव बनाते हैं कि जिससे बेचारी परेशान होकर सारा दूध उतारने के लिए विवश हो जाती है जैसे कि आजकल इंजेक्शन लगा कर भैंसों का दूध निकला जाता है | इसे हिंसा मानकर उन्होंने बकरी का दूध पीना शुरू कर दिया | आज की उपभोक्ता संस्कृति में तो छोटे-छोटे बच्चों का मांस और माताओं का दूध भी बेचा जाता है | छिः, हम भी क्या वीभत्स विषय लेकर बैठ गए |
कुछ लोग जब बूढ़े हो जाते हैं तो अपने बच्चों के थ्रू राजनीति करने लग जाते हैं या बच्चों को अपने राजनितिक संपर्कों का लाभ पहुँचाने लग जाते हैं जैसे कि सरकारी अधिकारी अपनी बीवी के नाम से जीवन बीमा का धंधा करने लग जाते हैं | सेठजी जब ज्यादा बूढ़े हो जाते हैं तो दुकान पर बैठे कर माला जपते रहते हैं मगर माला जपते हुए भी सारा ध्यान भगवान में होने की बजाय दुकान में ही होता है |
एक गहने बनने वाला था | बूढ़ा हो गया था | उसने जीवन भर सभी के गहनों में समान भाव से खोट मिलाने का अपना धर्म ईमानदारी से निभाया | एक बार उसकी बेटी गहने बनवाने के लिए आई | बूढ़ा भी वहीं बैठा था | सबके सामने यह भी नहीं कह सकता था कि इसमें भी खोट मिलाना है और चुप भी नहीं रह सकता था सो बड़बड़ाने लगा- भगवान के घर में तो सभी बराबर | सुयोग्य पुत्र समझ गया और उसने अपने खोट मिलाने के धर्म का निर्वाह किया | सो जब तक दुकान में बैठे हैं तब तक दुकानदारी नहीं छूटने वाली | बाबाजी की सारी माया कमंडल में ही घुसी रहती है |
सो यदि संन्यास लेना ही है तो इस कमंडल को भी छोड़ दीजिए और बिना बताए दिल्ली से गायब हो जाइए | राजनीति का जो होगा सो हो जाएगा | यह तो चलती रहती है | लोग आते हैं और जाते रहते हैं और जिस तरह से राजनीति का पतन लोगों के अनुमान से भी सहस्र गुना तेजी से होने लगा है उसे अपनी तीव्र गति से चलने दें | नंगों के इस हम्माम की नंगई को अपनी संपूर्णता को प्राप्त हो ही जाने दें | इस नंगई की चरम सीमा से ही शालीनता निकलेगी | शिव इसी के लिए विनाश करते हैं कि नया सृजन हो |
हाँ, इतना दुःख अवश्य रहेगा कि अब आप जैसे पाक-साफ़ आदमी राजनीति में देखने को शायद ही मिलें | तो इस विकल्प के पतले से धागे को भी तोड़ ही दें | यह नहीं कि उपवास तो करूँगा मगर शाम को दुगुना मिष्ठान्न और फल खा लूँगा | मास्टरी से रिटायर होकर कोचिंग सेंटर चलाने का, सिनेमा हाल में जाना छोड़कर घर पर सारे दिन टी.वी. पर फिल्म देखने का क्या अर्थ है ? देह-विक्रय छोड़कर कुटनी बन जाना भी वैसा ही गर्हित काम है |
हमारा तो कहना है कि संन्यास लेना है तो पूरा ही लें | हाँ, आपको एक बात के लिए दाद देते हैं कि आपने राजनीति को भी एक भारतीय पतिव्रता की तरह निभाया | शरद पवार, संगमा, अजितसिंह की तरह नहीं कि बार-बार पीहर-ससुराल का चक्कर चलता रहे | सन्यास के निर्विकल्प जीवन के लिए शुभकामनाएँ |
अंत में एक पंक्ति-
दास कबीर जतन ते ओढ़ी ज्यों की त्यों धर दीनी चदरिया |
पुनश्च:
वैसे तो संन्यासी का कोई ठिकाना नहीं होता फिर भी आशा है कि यदि कभी सीकर की तरफ आएँ तो हम मंडी के पास दुर्गादास कोलोनी में रहते हैं | दर्शन की आशा रखते हैं क्योंकि हम आपके पुराने फैन हैं |
३०-१२-२००५
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श्री अटल देवाय नमः
( ग्वालियर के एक वकील विजय सिंह चौहान ने अटल जी का मंदिर बनवाने की घोषणा की )
हे देवतुल्य, आदरणीय अटल प्रभु,
बहुत-बहुत प्रणाम । आपको पता ही होगा कि ग्वालियर के एक वकील श्री विजय सिंह चौहान ने आपके मन्दिर का शिलान्यास करवा दिया है । यदि आप अगली बार प्रधान मंत्री बन गए तो मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा भी हो जायेगी । यदि सब कुछ ठीक-ठाक चलता रहा तो भजन, पूजन, कीर्तन और चमत्कार भी शुरू हो जायेंगे । मेला, जात -जडूले , सवामणी, जागरण भी होने लग जायेंगे । आप के नाम से गंडे-ताबीज और झाड़-फूँक भी शुरू हो जायेंगे । भले ही आप कुँवारे हैं किंतु आपके आशीर्वाद से कुँवारों के ब्याह होने लग जायेंगे और बाँझों को पुत्र रत्नों की प्राप्ति भी होने लग जायेगी । आपके भजनों के केसेट बिकने लग जायेंगे, प्रसाद की दुकानें खुल जायेंगी ।
यदि ख़ुदा न खास्ता आप दुबारा प्रधानमंत्री न बने तो यह ग्वालियर वाला भक्त किसी और भगवान की तलाश में जुट जायेगा । कलियुगी भक्त में इतना धैर्य नहीं होता- तू न सही और सही । वैसे जीते जी तो मन्दिर केवल नाचने-गाने वालों के ही बने हैं । नेताओं को यह सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ है । जैसे आपने प्रधानमंत्री बनने का सपना नहीं देखा था वैसे ही किसी प्रधानमंत्री ने अपने जीवन काल में स्वयं के भगवान बनने का सपना भी नहीं देखा होगा । जैसे आपका सपना साकार हुआ वैसे ही इस लेख को पढ़ने वालों के भी सभी सपने साकार हों ।
यदि परम्परा चल निकले तो भारत में पाँच लाख गाँव हैं । कितने राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री, राज्यपाल, पञ्च, सरपंच हुए होंगे और होंगे ! यदि सबके मन्दिर बन जाएँ, मंदिरों से जुड़े उद्योगों का विकास हो, मंदिरों की सुरक्षा व्यवस्था हो तो सोचिये कितने लोगों को रोज़गार मिलेगा ! तब हम भारत ही क्या सारे संसार की बेरोजगारी समाप्त करने में सफल हो जायेंगे । हो सकता है कुछ काम 'आउट सोर्स' करना पड़े । ऐसा होगा तब होगा पर हम अपनी दूर-दृष्टि की दाद ज़रूर देना चाहते हैं ।
फिलहाल उस मन्दिर और उसमें आपकी प्रतिमा को लेकर हम कुछ अधिक ही उत्साहित और कल्पनाशील हो रहे हैं । विचारों की भीड़ उमडी पड़ रही है । लगता है एक लेख से क्या काम चलेगा । कोई महाकाव्य ही लिखना पड़ेगा । फिर भी कुछ जानने की इच्छा है कि उस मन्दिर में आपकी मूर्ति किस मुद्रा में होगी ? बाल-ब्रह्मचारी की तरह वीरासन में , सावधान की मुद्रा में मातृ वंदना करते हुए या लोकहित चिंतन की मुद्रा में ? पद्मासन तो अब संभव नहीं है सो सावधान की मुद्रा में 'वी' का चिह्न बनाते हुए ही ठीक रहेगी ।
मूर्ति का वेश क्या होगा- अपना शाखा वाला गणवेश खाकी हाफ-पेंट, काली टोपी और बगल में दंड या धोती-कुर्ता और जैकेट या जोधपुरी सूट या पेंट-टी शर्ट ? भाव क्या होगा मूर्ति के चेहरे पर- भाषण वाला, कविता वाला, बाल सुलभ खिलखिलाहट वाला या वेंकैय्या नायडू के हाथ से लड्डू खाते हुए 'आनंद भाव' वाला ? वैसे हमें आपका भाषण के बीच में एक उत्सुक विराम देने वाला भाव सर्वाधिक पसंद है जैसे कि पाकीजा के गाने में -'बोले छमाछम पायल निगोडी 'और फिर एक लंबे विराम के बाद..'निगोड़ी' और फिर द्रुत ।
इसके बाद प्रश्न उठता है कि उस मूर्ति में आप किस उम्र के होंगे ? जवानी, प्रौढावस्था या वृद्धावस्था वाले । कुछ कवि अपनी अस्सी वर्ष की उम्र में छपने वाली कविता के साथ तीस वर्ष वाली फ़ोटो छपवाना चाहते हैं । पता नहीं, किसको धोखा देना चाहते हैं । किसी महिला पाठिका को या यम दूतों को । वैसे आपकी तो किसी भी उम्र की मूर्ति अच्छी ही लगेगी क्योंकि आपके चेहरे से हमेशा एक नूर टपकता रहता है । आपके सिर पर भी अभी तक पूरे बाल हैं । यह ब्रह्मचर्य का कमाल है । हमारी तो चाँद निकल आई है ।
अब प्रसाद की बात करें । प्रसाद लड्डू का लगेगा या झींगा मछली का ? यदि लड्डू का लगेगा तो उसके साथ भंग की ठंडाई ठीक रहेगी । पर यदि झींगा मछली का प्रसाद हो तो उसके साथ व्हिस्की का मेल है । सभी तरह के भक्त आते हैं इसलिए जनहित को ध्यान में रख कर दोनों ही प्रकारों के प्रसादों की व्यवस्था होनी चाहिए । जैसे देवताओं को प्रसन्न करने के लिए उनके प्रिय मंत्र होते हैं वैसे ही आपको प्रसन्न करने के लिए आपकी कविताओं के कुछ अंश छाँटें या हम जैसे तुक्कड़ों के भजन भी चलेंगे ?
उस मन्दिर में आपके अवतरण-दिवस पर होने वाले कार्यक्रमों के बारे में भी हम अपनी राय व्यक्त करना चाहेंगे । वहाँ जन्म दिन पर प्रतिवर्ष एक कविसम्मेलन होना चाहिए जिसमें भारत के प्रत्येक कवि को ओटोमेटिक निमंत्रण होना चाहिए । किसी भी कवि से वहाँ जाते-आते रेल, वायुयान, बस किसी में भी किराया न माँगा जाए । वहाँ उसके रहने, खाने की पूरी व्यवस्था मुफ़्त हो । उस सम्मलेन में पठित सभी कविताओं का एक संकलन छपे जिसे खरीदना प्रत्येक पुस्तकालय के लिए अनिवार्य हो । इसी तरह आपकी कविताओं की संगीतबद्ध प्रस्तुति और उस पर नृत्य के भी अखिल भारतीय कार्यक्रम हों जिनकी वीडियो फ़िल्म बने और उसे हर सिनेमा घर में मुफ़्त दिखाया जाए । यदि किसी कार्यक्रम से लोगों मनोरंजन हो तो उस पर लगे मनोरंजन टेक्स की उस राशि को प्रधानमंत्री कोष में जमा करा दिया जाए ।
और अंत में एक बात अपने स्वार्थ की । हमें उस मन्दिर में पुजारी रखवा दिया जाए क्योंकि पेंशन से काम नहीं चल रहा है । वैसे सुना है कि इस बार जीतने के बाद आप पेंशनभोगियों का महँगाई भत्ता बंद करने वाले है । प्रभु, ऐसा न करें । हम वादा करते हैं कि पुजारी का आधा वेतन प्रधानमंत्री राहत कोष या पार्टी फंड में, जैसा भी आप कहेंगे, देते रहेंगे ।
१४-१-२००४
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