Jan 18, 2013

बहुभाषिता और बहु सांस्कृतिकता के लाभ

बहुभाषिता और बहुसांस्कृतिकता के लाभ

बचपन में ही यदि हम एक से ज़्यादा भाषाएँ बोलना सीख लेते हैं तो इसका फ़ायदा हमारे दिमाग को बुढ़ापे में मिलता है । यही कारण है कि भारतीय इतने बुद्धिमान होते हैं । यहाँ के अधिकांश लोग एक से अधिक भाषाएँ जानते हैं । इनमें अंग्रेजी या हिंदी के अलावा अपनी क्षेत्रीय भाषाएँ शामिल हैं ।

सारी ज़िंदगी दो से अधिक भाषाएँ बोलने से हमारा दिमाग ज़ल्दी बूढ़ा नहीं होता । यूनिवर्सिटी ऑफ केंटकी के न्यूरो साइंटिस्ट ब्रायन गोल्ड का कहना है कि दो या दो से अधिक भाषाएँ जानने वाले ‘मल्टीस्किल्ड’ होते हैं । जब भी अपने से वरिष्ठ लोगों से कोई काम मिलता है तो एकभाषी लोगों की तुलना में द्विभाषी या त्रिभाषी लोग जल्दी प्रतिक्रिया प्रकट करते हैं । लगातार सक्रिय होते रहने से दिमाग जवान बना रहता है । शोधकर्त्ताओं ने ८० लोगों के दिमाग में ऑक्सीजन प्रवाह के नमूने देखने के लिए एमआरआई मशीन में रखा । उनसे कुछ आकार और रंग दिखाकर प्रश्न पूछे गए । शोधकर्त्ताओं ने पाया कि अधिक उम्र के उन लोगों का, जो दो या दो से अधिक भाषाएँ जानते हैं, दिमाग एक भाषा जानने वालों की तुलना में अधिक सक्रिय था । उनके प्री फ्रंटल कार्टेक्स और इंटीरियर सिंगुलर कार्टेक्स में अधिक हलचल थी । यूनीवर्सिटी ऑफ केलीफोर्निया के वैज्ञानिकों का भी कहना है कि हम कम उम्र में दिमाग को जितना कुशल बनाएँगे उतना ही वह अधिक उम्र में भी सक्रिय बना रहेगा ।

लोग तत्काल होने वाले आर्थिक, शारीरिक लाभ को ही देखते हैं जब कि बहुत से कामों के अन्य अप्रत्यक्ष लाभ भी होते हैं जो प्रत्यक्ष लाभों से कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण होते हैं जैसे कि मितव्ययिता से केवल खुद के धन की बचत ही नहीं होती बल्कि इस धरती का विनाश भी विलंबित होगा, समाज में भेदभाव कम होगा जिससे आपसी ईर्ष्या-द्वेष कम होंगे और अपव्यय-जनित विलासिता से होने वाले शारीरिक कष्ट भी कम होंगे, भावी संतानें सही रास्ते पर चलकर संस्कारी बनेंगी । इसी तरह बहुभाषिकता का केवल यह दिमागी और शारीरिक लाभ ही नहीं है बल्कि कई भाषाएँ जाने वालों को विभिन्न देशों, भाषाओं, समाजों और संस्कृति वाले लोगों से संवाद करने, उनके निकट आने का अवसर मिलता है जो अंततः व्यक्ति को सहिष्णु, उदार और वैचारिक बनाता है ।

भारत एक बहुभाषी और बहुसांस्कृतिक देश है और यही विशेषता उसे दुनिया में एक विशिष्ट और उदार राष्ट्र बनती है ।

भारत में दुनिया के लगभग सभी धर्मों और संस्कृतियों के लोग निवास करते हैं और उन्हें सभी प्रकार के नागरिक अधिकार प्राप्त हैं । दुनिया के ऐसे धर्मावलंबी भी भारत आए जिन्हें उनके मूल देश के नए धर्म ने अपना देश छोड़ने के लिए मज़बूर किया जैसे कि इस्लाम अपनाने के बाद ईरान से भागकर आए अग्निपूजक पारसी । ये लोग आज भी भारत में पूर्ण गरिमा के साथ साधिकार भारत में रह रहे हैं । यहाँ तक कि भारत का एक पुराना औद्योगिक घराना 'टाटा' इन्हीं पारसी लोगों का है । इसके अतिरिक्त ईसा के मात्र ५० वर्ष बाद ही एक ईसाई धर्म प्रचारक भारत आए और यहीं बस गए और पूरी स्वतंत्रता से धर्म प्रचार भी किया । इसी तरह आक्रमणकारी बन कर आए इस्लाम को मानने वाले कई कबीलों को भी भारत ने अपना लिया और आज वे पाकिस्तान, अफगानिस्तान, ईराक से भी अधिक शान और सुरक्षा से यहाँ रह रहे हैं । बहुत से यहूदी भी अरब देशों से पीड़ित होकर यहाँ आए और केरल में बसे हुए हैं ।

आज के तथाकथित ‘विश्व-गाँव’ में भी धर्म, जाति और नस्ल के नाम पर लोग भेदभाव झेल रहे हैं वहीं भारत सबके लिए सुरक्षित माना जाता है । आज अल्पसंख्यकों के कल्याण या राष्ट्रीय अस्मिता के नाम पर ओछी राजनीति, एक अच्छे-भले सद्भावपूर्ण वातावरण को समाप्त करने की कूटनीति कर रही है फिर भी वह सद्भाव कायम है तो इसके पीछे भारत का प्राचीन आध्यात्मिक चिंतन रहा है जो 'वसुधैव कुटुम्बकं' और बहु-वैचारिकता और सत्य को विविधरूपा मानकर सबका सम्मान करता है । हालाँकि ऐसी भेदकारी कूटनीतियों के कारण लोगों का चिंतन दुष्प्रभावित हो रहा है फिर भी यह कितना बड़ा सच है कि तथाकथित अल्पसंख्यक आज देश के सर्वोच्च पदों पर स्थापित हैं ।

इस देश में भाषाओं, धर्मों और विचारों के भेद के बावज़ूद समन्वय की एक सांस्कृतिक अंतर्धारा सदैव प्रवाहित होती रही है । लोग इसी समन्वय को अपनाकर विभिन्न भाषाएँ सीखते रहे हैं । विद्वान और धार्मिक लोग इसी समन्वय की आराधना के लिए लंबी-लंबी वैचारिक यात्रा करते रहे हैं । यहाँ की सामान्य जनता ने भी विभिन्न धर्मों और संप्रदायों के लोगों को अपनाया और पूरा सम्मान दिया । अजमेर के गरीबनवाज़ और दिल्ली के निजामुद्दीन औलिया कट्टर मुसलमानों से ज्यादा हिंदुओं में आदृत हैं । फारसी, उर्दू के विद्वान हिंदुओं में मुसलमानों से कम नहीं है । आज भी भारत के बहुत से लोग एक से अधिक भाषाएँ जानते हैं । दुनिया में भारतीयों ने ही अपने देश के इतिहास, भूगोल और संस्कृति के अलावा दुनिया के अधिकतर देशों के बारे में सर्वाधिक पढ़ा है । यही ज्ञान उन्हें उदार बनाता है ।

योरप, अमरीका और इस्लामी देशों में दुनिया के अन्य देशों, समाजों, धर्मों के बारे में या तो पढ़ाया नहीं जाता या फिर उचित सम्मान से साथ नहीं पढ़ाया जाता । ज्ञान का यह एकांगी रूप किसी भी समाज को कूपमंडूक बनाता है और फिर ओछी और भेदपूर्ण राजनीति उसे सरलता से कट्टरता के रास्ते पर ले जा सकती है । विदेशों में रहने वाले भारतीय अपने वहाँ के मीडिया और राजनीति के इस रूप से भलीभाँति परिचित हैं ।

मुसलमानों, अंग्रेज, फ़्रांसिसी, पुर्तगाली आक्रमणकारियों के आते रहने के बाद भी इस देश का यह चरित्र बना रहा लेकिन जब लार्ड मैकाले ने अंग्रेजी को नौकरी की भाषा से बढ़ कर उच्चता का प्रतीक बना दिया तब से हमारा अंग्रेजी सीखने-सिखाने का उद्देश्य ही बदल गया । आज जब हम अपने ही समान-भाषी भारतीयों के सामने अंग्रेजी झाड़ते है तो वह संवाद की भाषा न होकर अहंकार की भाषा हो जाती है और वह हमारे बीच में खाई बढ़ाती हैं । इसी लिए देखा जाता है कि नेता लोग जनता का दिल जीतने के लिए उसकी भाषा में एक दो शब्द ही सही, पर बोलते ज़रूर हैं । ओबामा जी ने भी मनमोहन जी के स्वागत में 'स्वागत' शब्द इसी उद्देश्य से कहा था । विदेशों से भारत आने वाले जिन विद्वानों ने यहाँ की भाषा को अपनाया उन्हें भारत ने अपने दिल में बसा लिया । लेकिन भारत के बड़े से बड़े अंग्रेजी के विद्वान को लेकर ब्रिटेन या किसी अन्य अंग्रेजी भाषी देश के मन में ऐसा कोई अपनेपन का भाव नहीं आता क्योंकि वे समझते हैं कि या तो भारतीयों के पास कोई विकसित भाषा नहीं है या फिर इनमें अपनी भाषा को लेकर हीन भावना है । दोनों ही स्थितियाँ शर्मनाक हैं । अन्य देशों के नेता जब भारत आते हैं तो वे जानबूझकर अपनी भाषा में बोलते हैं जब कि सब अंग्रेजी जानते होते हैं । पता नहीं हमारे नेताओं को ऐसा करने में क्यों शर्म अनुभव होती है ।

ये बातें बहुभाषिता से सीधे जुड़ी नहीं दिखाई देतीं और न ही इस आलेख में यह हमारा विचारणीय विषय है । बहुभाषी, बहुसंस्कृति वाला और अध्यात्मिक देश होने के कारण हमारी शिक्षा में भी बहुत से देशों की संस्कृति, इतिहास,भूगोल पढाए जाते रहे हैं । इसी कारण हम जल्दी से कट्टर नहीं हो सकते । जब कि अन्य देशों में ऐसा नहीं । आज जब हमारी वर्तमान पीढ़ी ने पेट के लिए अंग्रेजी पढ़ना शुरु किया है तो उन्हें अपना दिमागी बोझ हल्का करने के लिए अपनी भारतीय भाषाओं से पीछा छुड़ाना ही फायदेमंद लगता है । माता पिता भी सोचते हैं कि बच्चा किसी भी तरह, संस्कृति, सभ्यता सब कुछ भूलकर दो रोटी कमाने लायक बन जाए लेकिन यह भी उनका भ्रम है क्योंकि नौकरी भाषा से नहीं कोई उपयोगी काम जानने से मिलती हैं । इसी कारण अंग्रेजी के पीछे भागते हुए बच्चे न तो हिंदी भाषा ढंग से सीखते हैं और न ही इस कारण से अंग्रेजी ढंग से सीख पाते हैं । भाषा का अपना एक अनुशासन होता है । यही कारण है कि ऐसे अंग्रेजी पढ़े, पाँच हजार रुपए महिने पर किसी तथाकथित देशी-विदेशी कंपनी के सेल्स एक्जीक्यूटिव बने गली-गली सामान बेचते फिरते हैं । जब कि कोई भी हाथ का काम जानने वाला चार-पाच सौ रुपए रोज से कम में नहीं मिलता ।

अपने समाज की भाषा से कटने और उसे हीन समझने के कारण ऐसे अधकचरे अंग्रेज किसी भी देन के नहीं रहते । ये किसी भी देश में जाएँगे तो इन्हें वहाँ के लोग काले-गोरे और गैर-हिंदू अपना नहीं मान सकते । यदि ऐसा होता तो सैंकडों वर्षों से युगांडा में रहने वाले भारतीयों को एक झटके में निष्काषित नहीं कर दिया जाता या द्वितीय विश्व युद्ध के समय लाखों जापानियों को अमरीका में नज़रबंद नहीं कर दिया जाता । जब कि वे बेचारे सैंकडों वर्षों से अमरीका में रह रहे थे और जापान से कोई रिश्ता नहीं रह गया था । इसलिए इसे स्वीकार करने में कोई शर्म नहीं होनी चाहिए कि हम भारतीय हैं, हमारी एक संस्कृति है, सभी भारतीयों की कोई न कोई समृद्ध भाषा है और उसी से हमें संस्कार और पहचान मिलेगी । यदि हम उन्हें छोड़ देंगे तो हम कहीं के नहीं रहेंगे और हमारी कोई पहचान नहीं रहेगी ।

इसके लिए हम यहूदियों, विशेषकर अमरीका में बसे यहूदियों के उदहारण ले सकते हैं । वे अपनी संस्कृति, भाषा और धर्म की पहचान को कायम रखते हैं और उसे मिटाने वाली किसी भी कोशिश का डट कर विरोध करते हैं । अपनी अक्ल के कारण उनका अमरीका की अर्थव्यवस्था में महत्त्वपूर्ण स्थान है । उसी की वजह से वे कोई दो हजार वर्ष पहले छूट चुके अपने वतन को विश्व के मानचित्र पर पुनः स्थापित कर सके । उसी दृढता और आस्था के बल पर उन्होंने अपनी मृत मानी जा चुकी भाषा को पुनर्जीवित करके दिखा दिया ।

हम अपनी भाषा के अतिरिक्त और भी कई भाषाएँ सीख सकते हैं तो फिर क्यों हम अपनी भाषा और संस्कृति को भुलाकर दुनिया में अपनी पहचान मिटाना चाहते हैं ? अपनी भाषा, संस्कृति और पहचान को भुलाए बिना भी दुनिया में सब तरह के लोग सब प्रकार के विकास कर रहे हैं । उन्हें किसी तरह का कोई भय और शर्म नहीं है तो फिर हम किस भय से अपनी पहचान को मिटाने पर तुले हैं । अपनी पहचान और पहचान के प्रति लापरवाह होने के कारण ही हमें वह सम्मान और स्थान नहीं मिल पाता जिसके हम सब तरह से अधिकारी हैं ।

यदि किसी भी कुंठा में आकर हम अपनी पहचान के प्रति प्रमाद करते रहे तो फिर उसे हासिल करना कठिन हो जाएगा । हो सकता है कि तब तक वह विलुप्त ही हो चुकी हो । हम सदैव से बहुभाषी, बहुसांस्कृतिक, बहुवैचारिक और सत्य को विविधरूपा मानने वाले रहे हैं । हम कट्टर हो ही नहीं सकते । पर कट्टर न होने का यह अर्थ भी तो नहीं कि हमारी कोई पहचान ही न हो । पालतू पशु की कोई पहचान नहीं होती लेकिन स्वतंत्रचेता मनुष्य और एक जिंदा समाज की तो पहचान होती ही है ।

सोचें, हमारी क्या पहचान है ?

०९-०१-२०१३

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(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी । प्रकाशित या प्रकाशनाधीन । Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication. Jhootha Sach

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