Sep 2, 2010
तोताराम और इंदिरा नूई की मनाही
३१ अगस्त २०१०, महिने का आखिरी दिन ।
वैसे तो जो बाजार भाव होगा वह देना पड़ेगा और तनख्वाह भी जितनी है वही रहने वाली है । हम कोई सांसद तो हैं नहीं कि एक ही झटके में तनख्वाह तिगुनी करवा लें । यहाँ तो तनख्वाह तिगुनी होने में दस-पन्द्रह साल लग जाते थे और तब तक चीजों के भाव चार गुने हो जाते थे । जितना दूध नौकरी के शुरू में रोजाना लिया करते थे उतना ही रिटायरमेंट वाले दिन लेते थे । अब चूँकि पेंशन मिलती है और सीनियर सिटीजन भी हो गए हैं सो कोलोस्ट्राल के बहाने दूध आधा कर दिया है । वैसे हिसाब लगाने से कोई फायदा नहीं, फिर भी आदत के मुताबिक बैठ ही गए महीने के आखिरी दिन, हिसाब लगाने । जैसे कि मास्टरी के दिनों में महीने भर की फीस और हाजरी का हिसाब लगाया करते थे । तभी तोताराम आ गया ।
आते ही उसने कहा- मास्टर, अब मुझे लगता है कि हमें घर छोड़ना पड़ेगा । हम आश्चर्यचकित । बोले- क्यों भाई, क्या नन्दीग्राम की तरह यहाँ टाटा कोई नैनो का कारखाना लगा रहा है या कहीं हमारा घर-गाँव हरसूद या टिहरी की तरह नर्मदा या गंगा पर बनने वाले बाँध की डूब में तो नहीं आ गया ?
तोताराम खीज गया, कहने लगा- जब बोलेगा, कुछ न कुछ अशुभ । अरे, ऐसी बात नहीं है । बात यह है कि रतन टाटा अब सन्यास लेने के मूड में हैं । इसलिए वे अपने उत्तराधिकारी की तलाश में हैं । पेप्सीको की सी.ई.ओ. इंदिरा नूई ने तो यह जिम्मेदारी सँभालने में रुचि नहीं दिखाई है । अब लगता है हमें ही यह जिम्मेदारी सँभालनी पड़ेगी और उस हालत में मुम्बई या कहीं और जाना ही पड़ेगा । हमें हँसी आ गई । फिर भी तोताराम की सपने देखने की क्षमता से इंकार नहीं कर सके । हमने कहा- पर नूई जी ने मना क्यों कर दिया ? बहुत बड़ा पद है । स्वीकार कर लेना चाहिए ।
तोताराम कहने लगा- क्या ख़ाक बड़ा पद है । कहाँ तो दुनिया को पानी पिलाकर पैसा बनाना और कहाँ लौह-लक्कड़ में सर देना । टाटा का काम बड़ा मेहनत वाला है । पेप्सी में क्या है, पानी में कुछ रसायन और कीटनाशक मिलाए, बोतल बंद की और भेज दिया दुनिया के बाजारों में । आज नहीं तो छः महीने बाद बिकेगा । यह कोई दूध या सब्जी का धंधा थोड़े ही है कि शाम तक नहीं बिका तो बेकार । देखा नहीं, सब्जी वाले बेचारे शाम को धूल के भाव बेच कर जाते हैं । पेप्सी में कौन से कीड़े लगते हैं, रसायन जो मिले हैं । लोहे में तो फिर भी जंग लगने का डर रहता है और नैनो का तो हाल यह है कि खड़े-खड़े ही गाड़ी में आग लग जाती है । और फायदा भी बहुत कम होता है । ठंडे पेयों में तो लागत एक रुपया और कीमत रखो ग्यारह रुपया । एक हजार प्रतिशत प्रोफिट । और फिर कहीं आना-जाना नहीं । बड़े से बड़े अभिनेता और अभिनेत्रियाँ आएँगे और नाच-नाच कर सब बेच देंगे । और जो चाहो वह तो इन ठंडे पेयों से ही तो हो सकता है ना - 'जो चाहो हो जाए एंज्वाय कोकाकोला' -नए युग का कल्पवृक्ष हैं ये ठंडे पेय । और फिर इंदिरा नूई जी पेप्सीको के द्वारा इस देश की अधिक सेवा कर सकती हैं । इस देश में क्रिकेट, कामनवेल्थ खेल, राजनीति, अर्थव्यवस्था, पड़ोस से तरह-तरह के जोर के झटके लगते रहते हैं जिन्हें झेलने की शक्ति हमें पेप्सी से ही तो मिलती है- ‘जोर का झटका धीरे से’ लगता है ।
हमने कहा- तोताराम, तू मुक्त और उपभोक्तावादी अर्थशास्त्र को हमसे ज्यादा समझता है । हमें तो अब कहीं नहीं जाना । यदि तुझे टाटा जी मदद करनी है तो तू चला जा ।
तोताराम को बुलावे का इंतज़ार है ।
३१-८-२०१०
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(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी । प्रकाशित या प्रकाशनाधीन ।Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication.Jhootha Sach
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