Sep 6, 2010
सोनियाजी, बधाई दें या नहीं
सोनिया जी,
आप चौथी बार कांग्रेस की अध्यक्ष चुनी गईं । बरसात के बावज़ूद बहुत से लोग पार्टी दफ्तर पहुँचे, कुछ बधाई देने आप तक भी पहुँच गए । सुना है, बहुत से लोगों ने भोपाल में नाच-नाच कर अपनी कमर तुड़वा ली । अब खुशी तो खुशी है । खुशी और गम में आदमी को पता नहीं चलता । यह भी एक प्रकार का नशा है । बाद में कई दिन तक मालिश करवाता रहता है । हम शादी, चुनावों और होली के बाद लोगों के बैठे गले और रंग पुते चेहरों को देखते रहते हैं । भोपाल में खुशी से नाचते हुए लोगों की फोटो आज के अखबार में छपी है । अच्छा लगा । वैसे हमें पता है कि आपको ये नाटक अच्छे नहीं लगते । नाटकों में विश्वास न करने के कारण ही आपने प्रियंका बेबी की शादी में भी नरसिंह राव और नारायण दत्त तिवारी को भी नहीं बुलाया था । मगर लोग हैं कि तब भी १० जनपथ के बाहर मिठाई बाँट रहे थे । शुभकामनाएँ तो दिल का मामला है । प्रकट न करने पर भी सही स्थान पर पहुँच जाती हैं । जिनको अपनी शुभकामनाओं के शुभ होने में शंका होती है उन्हें, भले ही फूहड़ तरीके से ही सही, प्रकट करने की जरूरत पड़ती है । वरना जितना पैसा अखबारों में बधाई सन्देश छपवाने में खर्च करते हैं, उसे पार्टी को गुप्त दान दे दें । पर ऐसे लोग गुप्त दान में विश्वास नहीं करते । ये तो दान देते ही इसलिए हैं कि दस गुना वसूल किया जा सके ।
यह तो संसार है । संसरति इति संसारः – जो निरंतर चलता रहता है उसे ही संसार कहा गया है । पार्टी, पद, धन, उम्र, जीवन सब आगे चलते रहते हैं और उनकी जगह नए आते रहते हैं । कांग्रेस के अब तक देशी-विदेशी जाने कितने अध्यक्ष हो चुके हैं । आप से पहले भी बहुत से अध्यक्ष हुए हैं । हम तो कहते हैं कि अध्यक्ष कोई भी हो मगर उसमें अध्यक्ष जैसे गुण तो हों । अध्यक्ष का काम है चुपचाप तीक्ष्ण और सूक्ष्म दृष्टि रखना और सही समय पर सही राय देना । कुछ लोग ऐसे अध्यक्ष होते हैं कि उनमें अध्यक्ष वाली गरिमा और गंभीरता ही नहीं होती । हमारे एक मित्र हैं जिन्हें कई बार लोग कविगोष्ठी का अध्यक्ष बना देते हैं यह सोच कर कि ये चुपचाप बैठे रहेंगे मगर वे हैं कि बीच-बीच में कूद पड़ते हैं और अपनी कविता पेलने लग जाते हैं, नुक्ताचीनी करने लग जाते हैं । अब ऐसे अध्यक्ष सारा मजा खराब कर देते हैं और फिर खुसर-फुसर और गड़बड़ी होनी शुरू होने लग जाती हैं । अध्यक्ष में गंभीरता होनी चाहिए । अगर शादी में दूल्हा ही घोड़ी पर से उतर कर नाचने लग जाए तो शोभा बढ़ने से ज्यादा तमाशा खड़ा हो जाता है । आप में अध्यक्ष के सारे गुण हैं । इसलिए हमें तो फिलहाल आपसे बेहतर अध्यक्ष दिखाई नहीं देता । अब चाहे जिस को इसलिए अध्यक्ष बना दिया जाए कि किसी और को लगातार बारह साल हो गए हैं । बदलने का कोई आधार तो होना चाहिए । 'चेंज फार द सेक आफ चेंज ओनली' तो कोई बात नहीं हुई ।
पता नहीं, आपके ही अध्यक्ष बनने पर कुछ लोगों के पेट में क्यों दर्द होने लगा है । भई, जिसकी पार्टी है वे जानें, उनके कार्यकर्ता जानें । अपनी खुद की पार्टी के बारे में तो कुछ नहीं सोचते । जिनकी पार्टी में बौद्धिक के दौरान चलने वाले जूतों की आवाज़ बाहर गली तक में सुनाई दे रही है और मंथन का कीचड़ सड़कों पर फैल रहा है वे परिवारवाद और वंशवाद का आरोप लगा रहे हैं । अरे भई, पार्टी एक परिवार की तरह रहे तो अच्छा ही है । हम तो सारी वसुधा को परिवार मानते हैं तो फिर एक परिवार से क्या दुश्मनी है ? खुद का अध्यक्ष भी तो 'परिवार' ही तय करके भेजता है भले ही वह दिल्ली से डेढ़ हजार किलो मीटर दक्षिण में बैठा हो । इतनी दूर से भी उसी 'परिवार' का एजेंडा चलता है ।
अब जरा एक और पार्टी पर निगाह डालें तो उसका यह हाल है कि पार्टी भारत में और उनके 'दिवंगत देवपुरुष' मास्को और बीजिंग में कब्र में लेटे हैं । छोटी-मोटी पार्टियों के बारे में तो कहना ही क्या ? उनका तो हाल वैसा ही है जैसा कि किसी के बारे में कहा जाता है कि 'वे चलती-फिरती संस्था' हैं । एक ही आदमी की जेब में कार्यालय, लेटर हैड, सील, संविधान सब कुछ होता है । जब चाहे संविधान में संशोधन किया जा सकता है । किसी को पता ही नहीं चलता । लालूजी जेल जाने लगे तो बीवी को मुख्यमंत्री बना गए जैसे कि स्टेशन पर कोई पानी पीने जाए तो अपना थैला किसी को सँभला जाए । कौन पूछे ? घर का मामला है । इसी तरह मुलायम सिंह, मायावती, करुणानिधि, जय ललिता, शरद पवार, शिबू शोरेन, फारुक अब्दुल्ला, मुफ्ती मोहम्मद सईद, बंगारप्पा, देवेगौड़ा, नवीन पटनायक, ओम प्रकाश चौटाला, अजित सिंह, प्रकाश सिंह बादल, बाल ठाकरे, भजन लाल, उमा भारती, रामविलास पासवान, सुब्रमण्यम स्वामी हैं और इनसे भी पहले चन्द्रशेखर जी और केरल के उन्नी कृष्णन हुआ करते थे । अब इन पार्टियों का क्या राष्ट्रीय चरित्र माना जाए ।
यदि परिवारवाद की बात की जाए तो नेहरूजी के बाद इंदिराजी प्रधान मंत्री नहीं बनी थीं, लाल बहादुर शास्त्री जी बने थे । जब इंदिराजी प्रधान मंत्री बनी थी तब के. कामराज कांग्रेस-अध्यक्ष थे । मान लीजिए किसी पार्टी का अध्यक्ष लम्पट, लुच्चा और मवाली टाइप हो, तो जनता में क्या सन्देश जाएगा । मान लीजिए राजीवजी के दुःखद निधन के समय राहुल की उम्र पार्टी अध्यक्ष बनने की होती और उन्हें बना भी दिया जाता और वे अस्थि-विसर्जन की पूर्व संध्या पर व्हिस्की में हेरोइन मिलाकर पीने से बेहोश होकर अस्पताल में भर्ती हो जाते तो देश में पार्टी के बारे में क्या सन्देश जाता ?
जनता भले ही खुद कैसी भी हो मगर अपने नेता को चरित्रवान देखना चाहती है । अमरीका में यौन जीवन के बारे में जो अवधारणा है वह हम से बहुत भिन्न है और हम उसे अपने मान दंडों के अनुसार लम्पटता तक मान सकते हैं । उस अमरीका की आम जनता ने भी क्लिंटन के कर्मों को गर्हित ही माना । और यदि क्लिंटन को महा अभियोग के तहत गद्दी से हटा भी दिया जाता तो वहाँ की जनता को खुशी ही होती । राम को हम उनकी मर्यादा के लिए प्यार करते हैं । और राम ने भी खुद कष्ट उठा लिए मगर लोक-मर्यादा का सम्मान किया । आपने और आपके बच्चों ने राजीवजी की शालीनता की मर्यादा को पूरी तरह से निभाया है । इसलिए ही यहाँ की जनता के दिल में आप सब के लिए एक खास स्थान है । इससे क्या फर्क पड़ता है कि आप कितनी बार अध्यक्ष बनती हैं ।
बधाइयाँ तो आपको बहुत मिली होंगीं । अभी तक तो उनकी गिनती में भी कई दिन लगेंगे । हम तो आपसे यही कहना चाहते हैं कि यह देश बहुत विशाल है और बहुरंगी है । इसे समझना बहुत कठिन है । फिर भी सभी देशों की जनता एक जैसी ही होती है । वह उसी राजा से प्यार करती है जो सही अर्थों में न्यायप्रिय हो और सब को समान समझता हो । इस न्याय के मार्ग में बाधा तब आती है जब हम वोट बैंक के चक्कर में सभी को समान भाव से देखना भूल जाते हैं । बहुत से छोटी सोच के लोग सत्ता में बने रहने के लिए राजा को ऐसे ही तुष्टीकरण के नुस्खे सुझाने लग जाते हैं । ये नुस्खे न तो न्यायपूर्ण होते हैं और न ही किसी बीमारी का सही इलाज । ऐसे इलाजों से एक लक्षण दबता है तो दूसरा प्रकट होता है । देश की समस्याओं का सही और स्थायी इलाज ढूँढ़िए । दुःख-दर्द जाति और धर्म के नहीं होते, जीव के होते हैं ।
४-९-२०१०
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(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी । प्रकाशित या प्रकाशनाधीन ।Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication.Jhootha Sach
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