Apr 9, 2022

फॉर्म और यूनीफॉर्म


फॉर्म और यूनीफॉर्म  


हम आज़ादी से पहले के विद्यार्थी हैं जब सभी बच्चे स्कूल नहीं जा पाते थे . यूनीफॉर्म, स्कूल बैग, टिफिन, शूज़ एंड सॉक्स, टाई और स्कूल-बस जैसे शब्द हमारे शब्दकोश में नहीं थे. दो-चार बार मोहल्ले में लगने वाली शाखा में भी गए लेकिन वहाँ भी कोई निश्चित वेशभूषा नहीं हुआ करती थी. होती भी होगी तो किसी विशेष अवसर के लिए. हमें पता नहीं क्योंकि हम इतना अधिक और लम्बे समय तक शाखा से जुड़े नहीं रहे. बहुत बाद में पता चला कि वे अपनी ड्रेस को 'गणवेश' कहते हैं. 

जहां तक स्कूल की बात है तो हम पांचवीं क्लास तक पट्टे वाली चड्डी, कमीज और गाँव के मोची द्वारा बनाई गई चमरौधे की जूतियाँ पहनकर स्कूल जाते थे. छठी क्लास में आये तो खाकी रंग का निक्कर मिला. शाखा में भी गणवेश में निक्कर ही हुआ करता था लेकिन वे उसे हाफ पेंट कहते थे. उसकी बनावट और डिजाइन पुलिस के सिपाही के निक्कर जैसी होती थी. शायद पुलिस या सेना जैसा अनुशासन शाखा के स्वयंसेवकों से अभिप्रेत था. वे लाठियां, लेजियम और तलवार उसी जोश से सीखते थे जिस जोश से सैनिक बंदूक चलाना सीखते हैं. हमें छठी क्लास में पहली बार प्राप्त हुए निक्कर के खाकी होने का अनुशासनात्मक कारण नहीं था. यह रंग तो इसलिए चुना गया था कि गन्दा कम दिखता था. गन्दा होना इतना मायने नहीं रखता था जितना गन्दा दिखना.

ये बातें उस समय की हैं जब संविधान नया-नया लागू हुआ था. १९२० में जब प्रथम विश्व युद्ध में सैनिकों की ज़रूरत बढ़ी तो एन सी सी जैसा कुछ शुरू किया गया जिससे सेना के लिए नर्सरी तैयार की जा सके. स्वतंत्रता के बाद बच्चों में अनुशासन पैदा करने के लिए १९५० में नवीं कक्षा से एन सी सी शुरु की गई. इसके बाद १९५२ में इसकी जूनियर विंग के रूप में ए सी सी शुरु की गई. हम उसके प्रारंभिक बैच वालों में थे. परेड वाले दिन खाकी निक्कर और सफ़ेद कमीज़ पहननी होती थी. सब बच्चों के एक जैसे कपड़े, जूते. तब पता चला कि इसे ड्रेस कहते हैं. वही हिंदी में शाखा वाला 'गणवेश'.अब जब सभी निजी स्कूलों में तीन साल के बच्चों को जो अपनी बहती नाक तक को नहीं संभाल सकते, फुल पेंट पहना दी जाती है. अंग्रेजों के ज़माने की पुलिस भी निक्कर से फुल पेंट पर आ गई है तो फिर हमारे शाखा वाले साथी ९० साल बाद निक्कर से फुल पेंट में आ गए तो क्या आश्चर्य ! 

पुलिस और सेना वाले अपने 'गणवेश' को यूनीफॉर्म कहते हैं. 

जब हमने तोताराम को बताया कि अंग्रेजों के ज़माने की यूनीफ़ॉर्म १९६२ में बदली. उसके बाद १९७१ में कुछ परिवर्तन हुए, इसके बाद १९९० में ऐसा हुआ. सुना है कि अब फिर कोम्बैट यूनीफ़ॉर्म में परिवर्तन होने वाला है तो बोला- यह तो २०१४ में जब देश वास्तव में आज़ाद हुआ तभी हो जाना चाहिए था. सात साल तक गुलामी की यूनीफ़ॉर्म को ढोने का क्या तुक था ? 

हमने कहा- लेकिन यूनीफ़ॉर्म का एक पहचान के अतिरिक्त क्या कार्यक्षमता से भी कोई संबंध होता है ?

बोला- क्यों नहीं. सफ़ेद यूनीफ़ॉर्म में शांति, अहिंसा और संधि की भावना पैदा होती है. केसरिया रंग की यूनीफ़ॉर्म में मरने मारने का मन होता है. यदि कोई और न मिले तो आदमी अपना सिर फोड़ने पर ही उतारू हो जाता है. हरे रंग की यूनीफ़ॉर्म में व्यक्ति के देशद्रोही बन जाने की पूरी-पूरी संभावना बन जाती है. बिना मूंछ वाली दाढ़ी गद्दारी और उठी हुई मूंछें देशभक्ति का प्रतीक होती हैं.

हमने कहा- लेकिन जब हमारे देश में ही अब जब तीसरी चौथी बार यूनीफोर्म बदल रही है तो लोग अपने ही पुराने  'वार हीरोज' को कैसे पहचानेंगे ?

बोला- इसीलिए तो इस बार के गणतंत्र दिवस पर देश की अब तक की सभी यूनीफोर्मों में दस्ते मार्च करेंगे जिससे जनता अपने सैनिकों को पहचान सकेगी. 

हमने कहा- लेकिन तोताराम, यूनी का मतलब होता है सबके समान. फिर इसे यूनी ड्रेस क्यों नहीं कहते ?

बोला- किसी भी तरह के कपड़े ड्रेस ही होते हैं लेकिन उन्हें पहनकर आदमी 'फॉर्म' में नहीं आता. लेकिन जब कोई पुलिस की वर्दी पहनता है तो 'फॉर्म' में आने लगता है. जैसे कुरता पायजामा और माइक सामने होते ही जिसमें भी  नेतागीरी के कीटाणु होते हैं उसका 'मन की बात' करने का मन करने लगता है.  ऐसे ही फौजी की वर्दी पहनने पर कमांड देने और किधर भी गोली चलाने का मन करता है. 

हमने कहा- यह तो सच है. हमारे एक मित्र थे जो प्राध्यापकी छोड़कर पुलिस में अफसर बन गए. बहुत शालीन और  तहजीब याफ्ता. एक बार जब हम उनसे मिलने गए तो वे अपने किसी मातहत को संसदीय भाषा में लताड़ रहे थे. उस मातहत के जाने के बाद हमने उससे पूछा- यह क्या तमाशा है ? तो बोले- क्या बताऊँ यार, वर्दी पहनते ही 'फॉर्म' में आ जाता हूँ.

बोला- जैसे कोई सामान्य आदमी 'माननीय' बनते ही 'फॉर्म' में आ जाता है और 'संसदीय भाषा' बोलने लगता है जिसमें किसान का अर्थ 'खालिस्तानी' होता है, मानवाधिकारवादी का अर्थ 'अन्दोलनजीवी' होता है. 



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(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी । प्रकाशित या प्रकाशनाधीन । Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication. Jhootha Sach

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