दाह संस्कार के बाद भी बात तब तक पूरी नहीं होती जब तक कि मृतक की अस्थियाँ गंगा में विसर्जित नहीं कर दी जाएँ । इसी तरह पूजा के बाद गणेश या दुर्गा की मूर्तियाँ भी किसी नदी या तालाब में विसर्जित की जाती हैं । पी.टी. परेड भी विसर्जन के बाद ही विधिपूर्वक समाप्त होती हैं । हमारे लिए ऐसा कोई मौका नहीं था । हम तो लंका में भारतीय टीम की न्यूजीलैंड और लंका से शर्मनाक हार के बाद क्रिकेट से पीछा छुड़ाने के लिए विसर्जन की सोच रहे थे । वैसे क्रिकेट के बारे में चिंता करने की जिम्मेदारी तो भारतीय संसद की होती है जिसने पिछली बार वेस्ट इंडीज में भारतीय टीम की हार के बाद संसद के कुएँ में ही डूब कर मरने की सोच ली थी । यह तो शुक्र था कि कुएँ में पानी ही नहीं था । पानी तो पूरी संसद की ही आँखों में नहीं है, कुएँ का ही क्या रोना रोएँ । अबकी बार तो बेचारे गरीब सांसद अपनी दिहाड़ी बढ़वाने में ही दिन-रात एक किए हुए थे । क्रिकेट का तो ख्याल ही नहीं रहा ।
अब क्रिकेट के लिए रोने वाला कोई नहीं था तो यह जिम्मेदारी हम पर ही आ पड़ी । हमारे पास न तो ड्रेस थी और न ही विकेट, पैड, बैट - किसका विसर्जन करते । किसी तरह ढूँढ़-ढाँढ़ करके हमें पोते-पोतियों का प्लास्टिक का एक बैट मिला उसी को प्रतीकात्मक रूप से क्रिकेट-विसर्जन के लिए लेकर घर से बाहर निकले मगर बरसात बहुत तेज थी सो सड़क के पास के बरसाती नाले में ही उस बैट को फेंक कर घर पर आकर स्नान किया और शुद्ध हुए ।
शुद्ध होकर बैठे ही थे कि तोताराम आ गया । उसके हाथ में वही बैट था । बोला- पता नहीं, किसने बच्चों का यह बैट बाहर फेंक दिया । लगता है अपना ही है । इसे अंदर रख ।
हमने कहा- तोताराम, अब इस बैट को हम घर में नहीं रखेंगे क्योंकि हमने इसका भारतीय क्रिकेट के प्रतीक रूप में विसर्जन कर दिया है । तोताराम को बर्दाश्त नहीं हुआ । कहने लगा- ज़रा-ज़रा सी बातों पर इतने बड़े और कड़े फैसले नहीं लिए जाते । अरे, खेल में हार-जीत तो होती ही रहती है । अभी भी सचिन का सर्वाधिक रन बनाने और सबसे अधिक मैच खेलने का रिकार्ड हमारे पास ही है । हमारे क्रिकेट बोर्ड के पास सबसे ज्यादा धन है । पिछले दिनों ही धोनी को दो सौ दस करोड़ का विज्ञापन का कांट्रेक्ट मिला है । बता, दुनिया के किस क्रिकेटर का ऐसा शानदार रिकार्ड है । आदमी प्राण छोड़ दे, देश छोड़ दे, घर-बार छोड़ दे, नौकरी छोड़ दे मगर धर्म नहीं छोड़ता । क्रिकेट हमारे देश का धर्म है । भले ही इनिंग से हारें, वन डे में दो सौ रनों से हारें, आठ-दस विकेट से हारें मगर अपने क्रिकेट-धर्म को नहीं छोड़ेंगे । तेरे जैसे मनहूसों के चक्कर में ललित मोदी और शरद पवार की क्रिकेट के लिए की गई तपस्या और बलिदानों को व्यर्थ नहीं जाने देंगे ।
हमने कहा - इन रिकार्डों का क्या चाटें ? ये सब अपने लिए खेलते हैं । इन्हें टीम और देश से कोई मतलब नहीं है । टीम तो १९८३ में थी उन नए-नए, सीधे-सादे छोरों की जो बिना अनाप-शनाप पैसों और प्रोत्साहन के ही वर्ल्ड कप ले आए । और एक ये हैं कि विज्ञापन करने और पबों में जूते खाने से फुर्सत नहीं है । इनके भरोसे चलने वाली क्रिकेट का तो विसर्जन ही ठीक है ।
तोताराम ने कहा- याद रख, धर्म की जड़ सदा हरी रहती है । तू लाख विसर्जन कर दे पर क्रिकेट का यह बिरवा कभी नहीं मुरझा सकता । स्फिंक्स की तरह फिर अपनी राख से उठ खड़ा होगा । महाभारत में भीष्म की शर-शैय्या और द्रोण व कर्ण के मरने के बाद जब शल्य को कौरवों का सेनापति बनाया गया तब संजय ने धृतराष्ट्र से कहा है- ‘आशा बलवती राजन्’ । लंका में न्यूजीलैंड के खिलाफ अस्सी रन बनाए तो क्या, श्री लंका के खिलाफ उसमें तीस रन की वृद्धि हुई कि नहीं ? इसी तरह चलते रहे तो दस मैचों के बाद वन डे में फिर अढ़ाई सौ से ऊपर चले जाएँगे । मार्केट का ट्रेंड देखकर शेयरों के भाव बढ़ते हैं और ट्रेंड सुधार की तरफ है इसलिए चिंता की बात नहीं है ।
हमने कहा- तेरा आशावाद संजय जैसा है और उस पर विश्वास कोई धृतराष्ट्र ही कर सकता है और यह सब जानते हैं कि धृतराष्ट्र अंधा था ।
खुद को फँसते देख तोताराम पलटी खा गया, कहने लगा- कोई बात नहीं चाय तो पिला । हमने कहा- किस खुशी में ? तो कहने लगा खुशी का क्या है- गरज ये है कि पीने की नागा न हुई न हुई जीत तो क्या हार के गम में पी ली ।
२३-८-२०१० पोस्ट पसंद आई तो मित्र बनिए (क्लिक करें)(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी । प्रकाशित या प्रकाशनाधीन ।Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication.Jhootha Sach
लालू जी,
जय विज्ञान । वैसे तो यह नारा, नेहरू जी और शास्त्री जी के नारों 'आराम है हराम' और 'जय जवान, जय किसान' की तर्ज पर अटल जी ने दिया था मगर अधिक लोकप्रिय नहीं हो सका क्योंकि उन्होंने कविताएँ अधिक सुनाई, कोई वैज्ञानिक काम नहीं किया । कहने को कहा जा सकता है कि उन्होंने परमाणु परीक्षण करवाया पर वह बम तो कांग्रेस के समय में बन गया था । अटल जी ने तो केवन माचिस दिखाई थी । पर आप बहुत प्रेक्टिकल व्यक्ति हैं । बम भी खुद ही बनाएँगे और माचिस भी खुद ही लगाएँगे । इसलिए हमें विश्वास है कि विज्ञान की उन्नति अवश्य होगी । हमें तो उन्नति से मतलब है, इससे क्या कि नारा किसने दिया ।
लोग कह सकते हैं कि आप तो कला वर्ग के विद्यार्थी रहे हैं, विज्ञान के बारे में क्या जानें ? वे यह भूल जाते हैं कि विज्ञान वर्ग में कोई विज्ञान नहीं है । जितने भी विज्ञान है सारे कला वर्ग में ही हैं जैसे राजनीति विज्ञान, गृह विज्ञान, भाषा विज्ञान आदि । विज्ञान में कोई भी विज्ञान नहीं है, हैं तो क्या- फिजिक्स, केमेस्ट्री, बायोलोजी आदि । वैसे भी आपकी रुचियों का विस्तार घास से आकाश तक है तो विज्ञान कैसे छूट जाएगा । अभी छः अगस्त को आपने कहा कि हमारे यहाँ नई दवाओं में शोध कार्य नहीं हो रहे हैं और गोमूत्र और स्वमूत्र का पेटेंट होना चाहिए ।
इस संबंध में हम आपको बताना चाहते हैं कि निराशा जैसी कोई बात नहीं है । दवा ही क्या और भी बहुत से क्षेत्र हैं जिनमें बड़े-बड़े आविष्कार हुए हैं । कई आविष्कारों में तो आपका भी महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है मगर आप भूल गए । आपका तो सिद्धांत है कि 'नेकी कर दरिया में डाल' । इसलिए आपकी जानकारी के लिए विगत दो दशकों में और विशेष रूप से बिहार में हुए अनुसंधानों से आपको अवगत कराना चाहते हैं ।
बिहार के पशु पालन विभाग के डाक्टरों ने एक भूख बढ़ाने वाली दवा का आविष्कार किया जिसके कारण एक मुर्गी एक दिन में आठ सौ रुपए का खाना खाने लगी । वैसे साधारण मुर्गी सारे दिन में रुपए-आठ आने का अनाज खाती होगी मगर दवा का प्रभाव ही कुछ ऐसा था । हमारे कई मित्र पूछते हैं कि आठ सौ रुपए में तो उस ज़माने में आठ किलो घी या तीन किलो बादाम आ जाते थे । क्या एक मुर्गी इतना खा सकती ? क्या तुम तीन किलो बादाम एक दिन में खा सकते हो ? उन अज्ञानियों को दवा की शक्ति का पता नहीं । मगर पेटेंट देने वाले विदेशी लोगों ने बदमशी की और बिहार की इस उपलब्धि को नज़रअंदाज कर दिया । जब कि उसका सारा रिकार्ड अभी भी फाइलों में मौजूद है । आप चाहें तो पेटेंट के लिए आगे बढ़ा सकते हैं ।
इसी तरह से उन्हीं दिनों में एक और उपलब्धि हासिल की गई थी कि एक स्कूटर चालक अपने स्कूटर पर चार भैंसों को पीछे बैठाकर हरियाणा से पटना तक ले गया । स्कूटर की क्षमता वृद्धि के लिए उस चालक को कोई भी पुरस्कार नहीं मिला और न ही उन भैंसों को बी.बी.ए. (बैचलर आफ बिजनेस मैनेजमेंट नहीं, भैंस बेलेंसिंग अवार्ड) दिया गया । आज तक ऐसा चमत्कार कहीं नहीं हुआ मगर बात मान्यता की है । बिना पेटेंट के ये उपलब्धियाँ भी इतिहास के गर्भ में समा जाएँगी ।
आप चाहें तो अब नीतीश जी कार्यकाल में भी कई नई उपलब्धियाँ हासिल हुईं हैं, जिन्हें कि पेटेंट की दरकार है । हमें विश्वास है कि आप पार्टी पोलिटिक्स से ऊपर उठ कर उन उपलब्धियों को भी मान्यता दिलवाएँगे । पहली उपलब्धि है नालंदा के एक प्राथमिक स्वास्थ्य की जिसमें एक महिला ने दो महीने में चार बार डिलीवरी हुई । भले ही दुनिया के सारे डाक्टर अपना माथा फोड़ें पर यह भी सच है । महिला का फोटो, डाक्टर का इलाज, कैशियर का रजिस्टर सब मौजूद हैं । क्या ये सब झूठ हो सकते हैं ? इस तकनीक का भी पेटेंट होना चाहिए । बहुत सी महिलाएँ हैं जिन्हें डाक्टरों की हजार कोशिशों के बावजूद एक भी बच्चा नहीं होता । बहुत से देश हैं जिनकी जनसंख्या घटती जा रही है । वे तो इस तकनीक को लपक कर लेंगे । देश मालामाल हो जाएगा पर पहले इसका पेटेंट तो हो । जल्दी की जानी चाहिए । पिछली बार कोसी नदी में आई बाढ़ के समय वक्त की नजाकत को देखते हुए राहत सामग्री पहुँचाने के लिए कुछ साहसी लोगों ने एक ऐसी तकनीक लगाईं कि एक स्कूटर पर ही ९२५० किलो राहत सामग्री लाद कर ले गए । कुछ लोग इसमें भी भ्रष्टाचार देखते हैं जब कि उस स्कूटर ड्राइवर और सम्बंधित अधिकारियों की, पीड़ित लोगो को राहत पहुँचाने की, ललक नहीं देखते । भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो वालों की हठधर्मिता और दादागीरी के चलते कहीं यह तकनीक दब न जाए उससे पहले ही पता किया जाना चाहिए कि स्कूटर की इतनी क्षमता बढ़ाने की वह तकनीक क्या थी । और फिर उसका पेटेंट करवा लिया जाना चाहिए ।
आपने अनुसन्धान करने और पेटेंट करवाने के संदर्भ में ही स्वमूत्र और गोमूत्र के पेटेंट की भी बात कही थी किन्तु वह एक महत्वपूर्ण और विस्तृत विषय है उसके बारे में भी हम आपसे चर्चा करना चाहेंगे मगर अभी नहीं । वह अगले पत्र में । तब तक आप इन पेटेंटों के बारे में कार्यवाही शुरू कर दें ।
लालू जी,
बधाई हो । भले ही आपकी पार्टी के राष्ट्रीय दर्जे पर संकट के बादल मँडरा रहे हों और लालटेन भक्-भक् कर रही हो । ना बिहार में और न ही दिल्ली में कोई पद । बधाई जैसा कुछ नहीं हो सकता । फिर भी आप प्रधान मंत्री बन गए, भले ही नाटक में ही सही । नाटक का भी एक मजा है । नाटक करते-करते भी आदमी खुद को वही समझने लगता है जिसका पार्ट वह लंबे समय से करता आ रहा है । हमारे एक मित्र हमेशा रामलीला में हनुमान का पार्ट किया करते थे तो लोग उन्हें हनुमान जी ही कहने लगे । एक सज्जन रावण का पार्ट किया करते थे सो उनका नाम भी रावण ही पड़ गया । एक आदमी नाटक में पागल का पार्ट किया करता था सो वास्तव में ही पागल हो गया । नाटक का भी महत्व होता है । यदि व्यक्ति सरल हो तो उल्टा नाम जपते-जपते भी वाल्मीकि हो जाता है । जब राम का खर-दूषण से युद्ध हुआ तो राम तो अकेले थे और राक्षस हजारों । सो राम ने माया रची तो राक्षस एक दूसरे में ही राम देखने लगे और आपस में राम-राम चिल्लाते हुए लड़ कर मर गए । उनके इस प्रकार राम-राम कहते लड़ मरने से भी उन्हें स्वर्ग प्राप्त हो गया ।
जब छोटे बच्चे स्कूल में पढ़ते हैं तो घर पर आकर मास्टर की एक्टिंग करते हैं । भले ही उनसे पढ़ने वाला कोई विद्यार्थी सामने न हो । वे सामने पड़ी घर की छोटी-मोटी चीजों को ही विद्यार्थी मान कर उन्हें डाँट-पीट और पढ़ा कर अपनी मास्टर बनने की कुंठा को पूरा करते हैं । बड़े होने पर जब कभी मास्टर जी क्लास से बाहर होते हैं तो कुछ साहसी बच्चे उनकी कुर्सी पर बैठ कर मास्टर बनने की इच्छा पूरी कर लेते हैं । सो कुछ समय संसद स्थगित होने पर आप भी प्रधान मंत्री बन ही गए । इस दौरान आप मनमोहन जी की कुर्सी पर जाकर बैठे या नहीं ? पहले भी आपने एक इंटरव्यू में कहा था कि आप प्रधान मंत्री बनना चाहते हैं पर अभी ऐसी क्या जल्दी है । तब आप रेल मंत्री थे और लोग आपको मनेजमेंट गुरु मानकर विदेशी कालेजों में भी बुलाने लग गए थे सो आप सोचते थे कि आपमें प्रधान मंत्री बनने की सभी विशेषताएँ हैं और कभी न कभी आप प्रधान मंत्री जरूर बनेंगे ।
पर अब वह आशावाद नहीं रहा । बिहार में नीतीश कुमार जम गए । पासवान से भी किसी प्रकार की मदद की आशा नहीं क्योंकि एक तो उनकी पार्टी ही लोकसभा में साफ़ हो गई । किसी तरह आपकी कृपा से फिर राज्य सभा में आए हैं । इतने दिन पहले वाले मकान का एक लाख रुपया किराया देना पड़ रहा था । अब उससे पीछा छूटा और उछल-कूद कर किसी तरह कैमरे में भी घुस ही जाते हैं । यदि फिर कभी दो-चार सीटें उन्हें मिल भी गईं तो वे खुद ही प्रधान मंत्री बनने के सपने देखने लग जाएँगे । पुरानी जनता पार्टी भी इसीलिए टूटी कि उसमें सभी प्रधान मंत्री बनना चाहते थे । काँग्रेस के अलावा सभी पार्टियों में आज भी वही हाल है । ‘जूतियों में दाल बँटती’ रहती है । और वे कभी कांग्रेस नहीं बन पातीं । कांग्रेस में भले ही मन ही मन कई प्रधान मंत्री बनना चाहते हैं पर सब अपनी औकात जानते हुए प्रकट में अनुशासित सिपाही बने रहते हैं और काम चलता रहता है ।
तो नाटक में ही सही आप प्रधान मंत्री बन ही गए । यदि व्यक्ति की कोई विकट इच्छा अधूरी रह जाती है तो उसकी मोक्ष नहीं होती और मर कर भी उसकी आत्मा भटकती रहती है और वह फिर सपने में लोगों को परेशान करती है । वैसे आपकी तो अभी उम्र ही क्या है ? और स्वास्थ्य भी बढ़िया है । आपने एक बार कहा भी था कि असली शेर तो आप ही हैं । आपके जैसी लाली किसी के भी चेहरे पर नहीं है । ठीक है, पर जीवन का क्या भरोसा । तभी कवियों ने कहा है कि 'काल करे सो आज कर ' । आपने प्रधान मंत्री की कुर्सी पर बैठ कर फोटो खिंचवाया या नहीं ? जब नाटक करने ही लगे थे तो हम तो कहते हैं कि आपको शपथ भी ग्रहण कर लेनी चाहिए थी । पहले तो आपको कई बार विदेश भी जाने का मौका मिला था पर अब आप भले ही किसी भी पद पर पहुँच जाएँ पर लोग आपको अपने यहाँ बुलाने में झिझकेंगे । क्या पता, आप वहाँ की संसद में जाएँ और मौका देख कर वहाँ के राष्ट्रपति की कुर्सी पर ही जा बैठें । खैर, कोई बात नहीं । लोग कुछ भी कहें एक बार तो झूठी-मूठी ही सही आत्मा तो शांत हुई । अब कोई भी प्रधान मंत्री शांति से अपनी कुर्सी पर बैठ सकेगा ।
पिछली बार जब बी.जे.पी. हार गई थी तो अडवाणी ने भी अपनी आत्मा की शांति के लिए एक छाया मंत्रीमंडल बनाया था । उन्होंने तो आपके प्रधान मंत्री बनने पर कोई ऐतराज नहीं किया ना ? वैसे एक छाया मंत्रीमंडल हमने और हमारे मित्र तोताराम ने भी बनाया था पर उसका कोई समाचार अखबारों में तो छपा नहीं सो हम तो कोई ऐतराज कर नहीं सकते । कैसे भी बने, पर बने तो सही प्रधान मंत्री । कई दिनों से वैसे भी कोई मज़ा ही नहीं आ रहा था अखबारों में ।
घोटाले, भ्रष्टाचार की खबरें भी कोई खबरें होती हैं ? यह तो रोजाना का किस्सा है । किसी भैंस के चरने, ब्याने और दूध देने की खबरें भी कोई खबरें हैं ? यदि किसी दिन भैंस चारा खाए और फिर भी दूध न दे तो भी खबर नहीं बनती । हाँ, भैंस चारा भी खाए और दूध भी न दे बल्कि मालिक का ही दूध निकाल ले तो कुछ खबर बनती है । यदि संसद अपनी तनख्वाह एकमत से बढ़ा लेते है तो क्या खबर हुई । खबर तो तब हो जब कोई सांसद कहे कि हम तो सेवक हैं हमें इतनी अधिक तनख्वाह नहीं चाहिए । बीस तीस हजार ही बहुत है । पर ऐसी खबर कभी नहीं आने की अब । पहले राजेन्द्र प्रसाद जी ने अपनी तनख्वाह दस हजार से घटा कर तीन हजार कर ली थी पर वह जमाना और था । अब तो नेताओं को अपने कर्मों पर तो विशवास ही नहीं, वे तो सोचते हैं कि जितनी ज्यादा तनख्वाह उतनी ही इज्ज़त । वास्तव में वे नहीं जानते कि आज भी लोग ज्यादा पैसे वाले की ईमानदारी पर शक करते हैं ।
बहुत बातें हो गईं । पत्र भी लंबा होता जा रहा है । आप तो एक किस्सा सुनिए । एक किसान था । काफी उम्र होने पर भी उसकी शादी नहीं हुई । अच्छा स्वस्थ और भारी भरमक शरीर था । शादी नहीं हुई पर मौत तो अटल है सो आ ही गई कुँवारे को ही । लोग उसे श्मशान ले जाने लगे । श्मशान दूर था । वजन के कारण कंधा देने वाले थक गए । तभी सामने एक टीला आ गया तो एक कंधा देने वाले ने लंबी साँस लेते हुए कहा- टीला आ गया । तभी मुर्दा अर्थी पर ही उठ बैठा और पूछने लगा- क्या कहा, टीका आ गया ? कंधा देने वाले ने कहा- नहीं टीका नहीं, टीला आ गया । मुर्दे ने निराश होकर कहा- टीका नहीं आया ? खैर, कोई बात नहीं । और फिर मर गया ।
ऐसे ही एक मियाँ जी का किस्सा है । वे भी बूढ़े हो गए मगर शादी नहीं हुई । एक दिन वे थके हुए अपनी टूटी हुई चारपाई पर बैठे ऊँघ रहे थे कि पड़ोस के एक बच्चे ने आकर जोर से आवाज लगाई- मियाँ जी, बगल वाले की मुर्गी आपके गेहूँ चुग रही है । मियाँ जी ने आँखें बंद किए हुए ही कहा- कोई बात नहीं । चुगने दे । गेंहूँ का क्या है । अरे इस बहाने घर में कोई जनाना पैर तो पड़ा ।
सो आप प्रधान मंत्री बने तो, नाटक में ही सही । और आदमी के भाग्य और देश के दुर्भाग्य का क्या पता है कुछ भी हो सकता है । जब देवेगौड़ा, इन्दरकुमार गुजराल, चंद्रशेखर, चरणसिंह प्रधान मंत्री बन सकते है तो आप क्यों नहीं । चलो उस दिन से पहले फिलहाल यही सही । अंग्रेजी में कहें तो- 'सम थिंग इज बेटर देन नथिंग' ।
२१-८-२०१० पोस्ट पसंद आई तो मित्र बनिए (क्लिक करें) (c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी । प्रकाशित या प्रकाशनाधीन ।Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication.Jhootha Sach
मनमोहन जी, सत् श्री अकाल । बधाई हो । आप सोच रहे होंगे कि हम किस बात की बधाई दे रहे हैं जब कि इस समय तो आफतें ही आफतें चल रही हैं । कश्मीर में दुनिया भर के पैकेज देने के बाद भी लोग हैं कि मान ही नहीं रहे हैं । पहले कश्मीरी पंडितों को निकाल बाहर कर दिया और अब सिक्खों को कश्मीर से निकालने की धमकियाँ दे रहे हैं । कल को कहेंगे कि सारे हिंदू भारत छोड़कर चलें जाएँ । अब यह तो नहीं हो सकता कि देश की सारी जी.डी.पी. ही इन्हें दे दें और तब भी ये नहीं मानें । उधर अमरीका कह रहा है कि वार्ता करो और इधर ये अलगाववादी हैं कि वार्ता करने जाओ तो बड़ी असभ्यता से मना कर देते हैं । बड़ी आफत में जान है । इधर दिल्ली में राष्ट्र मंडल खेलों का तमाशा । टाइम नजदीक आ रहा है और तैयारी कुछ नहीं । भाई लोगों ने काम की बजाय बिल बनाने, ठेके देने, कमीशन खाने में ही सारा समय निकाल दिया । आदत के मुताबिक ३१ मार्च रात १२ बजे तक का टाइम समझ लिया जो कि बिल पास करने की डेड लाइन है । माल भले ही आए या नहीं । अब खेल वाले बिल देखेंगे या खेलने की जगह चाहेंगे । स्टेडियमों में पानी टपक रहा है । कहीं ऐसा तो नहीं है कि उन्होंने टेनिस की जगह स्विमिंग पूल बनाने का विचार कर लिया हो । इधर संसद में लालू छाया मंत्रीमंडल की तर्ज पर प्रधान मंत्री बन बैठे हैं । सांसद तनख्वाह के मामले में अम्बानी से तुलना करने लग गए हैं ।
जब राजनीति में आ ही गए हैं तो इन सब खुराफातों और दुष्टों से जूझना भी पड़ेगा ही । बच कर विदेश यात्रा पर भी कितना जाया जा सकता है । जरदारी बाढ़ से बच कर ब्रिटेन चले गए मगर कितने दिन । आखिर आना ही पड़ा । सो आप इन बातों की चिंता ना करें और हमारे बधाई देने के कारण को पढ़ें और आनंदित हों । बाराती को, लड़की वाले की चिंता न करके, जब तक टाँगों में जान है भंगड़ा पाते रहना चाहिए ।
सो भाई जान, बधाई के दो कारण हैं- पहला यह कि आपको खुशवंत सिंह जी ने सबसे अच्छा प्रधान मंत्री मान लिया है और दूसरा वाशिंगटन की पत्रिका ने आपको 'दुनिया के लीडरों का चहेता लीडर' का खिताब दिया है । मतलब कि राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय दोनों मान्यताएँ एक दिन के आगे-पीछे । १८ अगस्त को खुशवंत जी वाली और १९ को वाशिंगटन वाली । हमें अखबार से एक दिन बाद मिली हैं, प्रेस वालों को एक दिन पहले और आपको हो सकता है उससे भी पहले मिल गई हों । पर आप इतने संकोची हैं कि किसी को बताया भी नहीं वरना लोग तो जरा सी बात को भी आपने खर्चे से अखबारों में छपवाते हैं । एक सज्जन अपने खर्चे से सिंगापुर घूमने गए और वहाँ से आने पर अपने ही खर्चे से समाचार छपवा दिया कि 'अमुक जी का सिंगापुर घूम कर भारत आने पर हार्दिक स्वागत' । खैर, अब हमारी तरफ से बधाई स्वीकार करें ।
पहले खुशवंत सिंह जी वाली बात- उन्होंने अपने कालम में लिखा है कि १९९९ में जब मनमोहन सिंह जी ने दक्षिण दिल्ली से लोकसभा का चुनाव लड़ा तो उनके दामाद मुझसे दो लाख रुपए उधार ले गए थे जो चुनाव हार जाने के दो-चार दिन बाद ही मनमोहनजी ने खुद जाकर वापिस कर दिए । लेन-देन नकद हुआ था । मतलब कि कोई सबूत नहीं । ऐसे तो हम भी जैन डायरी वाले सज्जन की तरह कह सकते हैं कि हमने भी राव साहब को सरकार बचाने के लिए खर्च किए गए चार करोड़ उधार दिए थे मगर तब चिदंबरम जी हमारा गला पकड़ लेते कि इतने रुपए कहाँ से आए ? और इतनी आमदनी थी तो टेक्स क्यों नहीं दिया ? पर खुशवंत सिंह जी की बात और है वे जो कुछ भी लिख देते हैं वह छप ही जाता है क्योंकि इलस्ट्रेटेड वीकली के ज़माने के संपर्क हैं । उनके पास एक-दो लाख रुपए ऐसे ही पड़े रहना कोई बड़ी बात नहीं ।
हम तो दोनों को ही महान मानते हैं । उन्होंने माँगते ही दे दिए और आपने जल्दी ही वापिस कर दिए । हमें लगता है कि आपको अंदाज हो गया था कि जीतना मुश्किल है सो आपने फालतू पैसा खर्च नहीं किया । वैसे हम तो कहते हैं कि चुनाव क्या आदमी को फ़ार्म भरने का भी पैसा खर्च नहीं करना चाहिए । आदमी चुनाव जीतने के लिए जितना पैसा खर्च करेगा, चुनाव जीतने के बाद जल्दी से जल्दी उस पैसे को वसूल करना चाहेगा । चुनाव में ज्यादा पैसा खर्च करने वाले ही ज्यादा भ्रष्टाचार करते हैं । इसीलिए आपने बिना खर्च का राज्य सभा वाला रास्ता अपनाया । हमें तो लगता है कि आपने चुनाव लड़ने के लिए पार्टी से मिला पैसा भी खर्च नहीं किया होगा और वापस लौटा दिया होगा ।
खुशवंत सिंह ने तो केवल लिखा और पढ़ा है पर हम तो उस समय आपके चुनाव क्षेत्र में थे- सदर बाज़ार दिल्ली केंट में । आप सदर बाजार वाले गुरुद्वारे में मत्था टेकने के लिए आए थे और उसके बाद पालम एयर पोर्ट की तरफ जाने वाली सड़क पर ट्रक में खड़े होकर जा रहे थे । आपके पीछे छः-सात लोग और खड़े थे । हमें लगा कि आप चुनाव तो नहीं जीतेंगे पर हम आपकी सादगी पर जरूर फ़िदा हो गए । वह ट्रक भी हमें लगता है कि बिना पैसे का होगा जो किसी काम से इधर आया होगा और उसने आपको लिफ्ट दे देगी होगी । भले ही आप चुनाव न जीतें हों पर आपका अपने चुनाव का विश्लेषण बिलकुल ठीक था । अच्छा है बिना बात पैसा खर्च नहीं किया वरना फिर कैसे लौटाते ।
नहीं खर्च किया तो तत्काल लौटा दिया और ईमानदार व्यक्ति का खिताब पा लिया । यदि खर्च कर देते तो लौटाने में कुछ टाइम तो लग ही जाता । तब हो सकता है कि यह ख़िताब न मिलता । मगर खुशवंत जी ने इस बात को इतना बड़ा कैसे मान लिया ? लगता है कि उनके नेताओं के बारे में विचार अच्छे नहीं है । या तो पहले भी कोई नेता उनसे पैसे ले गया होगा और लौटाए नहीं होंगे । क्या किसी नेता की ईमानदारी केवल दो लाख रुपए के बराबर ही है ? आप पर तो उन्हें विश्वास रहा होगा तभी दे दिए बिना किसी लिखा-पढ़ी के । वरना बिना कोई चीज गिरवी रखे कौन देता है । देगा तो चार गवाह और बनाएगा । चाणक्य नीति में भी कहा गया है कि किसी को दो पैसे भी दो तो किसी न किसी बहाने चार लोगों के सामने दो और लौटने वाले के लिए भी कहा गया है कि चार लोगों के सामने लौटाओ । पर यहाँ तो दोनों तरफ विश्वास था सो किसी तरह की लिखा-पढ़ी की जरूरत नहीं पड़ी । पर जब इतना ही विश्वास था तो अब किस लिए उस गड़े मुर्दे को उखाड़ रहे हैं ? आपकी ईमानदारी या अपनी दरियादिली दिखाने के लिए ?
खुशवंत सिंह जी की इस महानता और दरियादिली के संदर्भ में एक किस्सा याद आ गया । पहले देश में बहुत गरीबी हुआ करती थी । है तो अब भी मगर दिल्ली में बैठ कर या सेंसेक्स का चश्मा लगाने के बाद दिखाई नहीं देती । सो उन दिनों लोगों के पास छोटी-मोटी चीजें भी नहीं हुआ करती थीं और उन्हें माँग कर काम चला लिया जाता था । इसे बुरा भी नहीं माना जाता था । शादी में भी बाराती तो क्या दूल्हे तक के लिए लोग कपड़े माँग कर काम चला लिया करते थे । सो ऐसे ही युग में एक ठाकुर साहब थे । कहने को ठाकुर मगर मूँछों के अलावा और कोई बड़ी संपत्ति नहीं थी । एक बार ससुराल में कोई शादी थी । सर्दी का मौसम और ठाकुर साहब के पास कम्बल भी नहीं । उनके एक पड़ोसी मित्र नाई के पास कम्बल था । था तो पुराना ही, किसी जजमान का दिया हुआ, मगर था तो । सो ठाकुर साहब ने नाई को बारात में चलने का निमंत्रण दिया, कम्बल उधार देने की शर्त पर ।
ठाकुर साहब अपने एक मरियल से टट्टू पर सवार होकर, कम्बल कंधे पर रख कर ससुराल चले । नाई ठाकुर के साथ पैदल चला । कारण दो थे- एक तो टट्टू में इतना दम नहीं था कि दो का बोझा उठा लेता । दूसरा नाई ठाकुर साहब के साथ कैसे बैठ सकता था । रस्ते में मिलने वाले लोग पूछ ही लिया करते थे कि कौन हैं, किस गाँव के हैं, कहाँ जा रहे हैं ? आजकल की तरह नहीं कि पूछ लिया तो प्राइवेसी का हनन हो गया । आज कल तो आतंकवादियों तक के मानवाधिकार हो गए भले ही वे मानव की श्रेणी में नहीं आते हों । सो लोग पूछते- कहाँ से आ रहे हैं, कहाँ जा रहे हैं । ठाकुर साहब रुतबे के मारे सो जवाब देता नाई । कहता- भैया, फलाँ गाँव जा रहे हैं, ठाकुर साहब साहब के साले की शादी है । यह टट्टू ठाकुर साहब का है और इन्होंने जो कम्बल अपने कंधे पर रख रखा है वह हमारा है । साहब, साहब करते हुए भी अंत में ठाकुर साहब की इज्जत का कचरा कर देता । ठाकुर साहब अपने ससुराल में अपनी ऐसी इज्ज़त अफ़जाई नहीं चाहते थे सो कंबल वापिस देकर नाई को विदा कर दिया ।
सो आपकी ईमानदारी की चर्चा करते हुए भी खुशवंत सिंह जी ने आपकी अध्यापकी, रिजर्व बैंक की गवर्नरी, वर्ल्ड बैंक की साहबी और प्रधान मंत्रित्व की, मात्र दो लाख रुपए और वे भी दस-बीस दिन के लिए उधार देकर, मिट्टी कर दी । उन्हें पता नहीं कि रिजर्व बैंक में करोड़ों-अरबों रुपए ऐसे ही जमीन पर पड़े पैरों में रुळते रहते हैं । सो इसे कहते हैं ‘नादाँ की दोस्ती, जी का जंजाल’ । हमें तो लगता है कि आपके दामाद साहब ने रुपए आपको बताए बिना ही उधार ले लिए होंगे कि चुनाव में इतना खर्चा तो एक पञ्च का ही हो जाता है । वरना यदि वे आपसे पूछ लेते तो आप कभी भी उधार नहीं लेते । कुछ अपवादों की बात हम नहीं करते, पर अधिकतर मास्टर अपनी चादर जितने ही पैर फैलाते हैं । हमारे पिताजी कहा करते थे कि किसी से कभी उधार मत लेना और यदि कभी ऐसी मजबूरी आ भी जाए तो जितना जल्दी हो सके चुका देना, नहीं तो अगले जन्म में कोल्हू का बैल बन कर चुकाने पड़ेंगे ।
आपके ख्याल भी कर्ज के बारे में हमारे पिताजी जैसे ही हैं । अच्छी बात है । मगर यह क्या बात है कि जब आप वित्त मंत्री बन गए तो घाटे का बजट बनाने लगे । एक पल के लिए भी नहीं सोचा कि यह घाटा कैसे पूरा होगा । हमने तो बी.ए. तक ही अर्थशास्त्र पढ़ा था और पास भी राम-राम करके हुए थे सो आगे नहीं पढ़ा । और प्रेक्टिकल में तो कभी अर्थशास्त्र को नहीं आजमाया । सारी तनख्वाह लाकर पत्नी को दे दिया करते थे, वह जाने और उसका अर्थशास्त्र जाने । हमें तो राजस्थान के पहले मुख्यमंत्री और वित्त मंत्री हीरालाल शास्त्री की याद है । उन्होंने जब बजट बनाया तो घाटा तो दूर बचत ही दिखाई । क्या पता अब मुक्त अर्थव्यवस्था और वैश्वीकरण के कारण यह नियम बन गया हो कि प्रत्येक देश को घाटे का ही बजट बनाना पड़ेगा ।
बधाई की दूसरी बात कि वाशिंगटन की एक मैगजीन 'न्यूज़ वीक' के अनुसार आप नेताओं के चहेते नेता हैं । बुश साहब भी आपको बहुत मानते थे । ओबामा जी ने तो आपको 'गुरु' कह कर संबोधित किया था । उनका कहना है कि जब आप बोलते हैं तो दुनिया सुनती है । और इसी चक्कर में हजारों करोड़ का परमाणु समझौता कर लिया । जब टोनी ब्लेयर भारत आए थे तो उन्होंने कहा था कि वे बार-बार भारत आना पसंद करेंगे । और चार हजार करोड़ का बिजनेस कर गए । अब नए ब्रिटिश प्रधान मंत्री आए । पाकिस्तान को चेतावनी देकर आप को खुश कर दिया और साढ़े तीन हजार करोड़ का सौदा कर गए और उसके बाद जाते ही जरदारी जी को भोज खिलाने लग गए । उसके बाद जरदारी जी ने कहा कि गलतफहमियाँ दूर हो गईं हैं । वाह, क्या सादगी है । मगर चीन किसी का सामान खरीदने की बजाय अपना सामान उसे भिड़ाने की फिराक में रहता है । पकिस्तान के किसी नेता से कोई मिलेगा तो वह सहायता माँगने लग जायेगा । और मजे की बात यह कि जब हिसाब माँगों तो केवल बिल थमा देता है सो भी दस प्रतिशत काट कर । मजबूरी की बात और है पर वास्तव में ऐसे नेताओं को कौन पसंद करेगा ।
आपकी बात और है । बिक्री भी करवाते हैं, बोलते भी धीरे-धीरे हैं और मीठा । जब भी बुलाओ नाश्ते भर के लिए अमरीका भी चले जाते हैं । कभी खाना भी खिलाएँगे ओबामा जी तो मात्र बैंगन के भुरते और दो चपाती में ही आपका काम चल जाता है । दूसरे तो पूरा मुर्गा खाते हैं, एक बोतल दारू पी जाते हैं और कर्जा ऊपर से माँगते हैं । और अगर आते समय कोई चम्मच-छुरी न उठा लें तो गनीमत । सो उनके मुकाबले आप से अच्छा नेता और कौन होगा । पर हम तो कहते हैं कि इन लोगों का चहेता बनने की बजाय देश को दो पैसे की कमाई करवाने की सोचिए भले ही ये नेता आपको कितने ही नंबर दें । अच्छा अर्थशास्त्र वही है जिससे दो पैसे बचें । नेताओं के प्यारे बनने से बड़ी बात है अपने आम लोगों का प्यारा बनना । वैसे इन देशों ने महात्मा गाँधी जी को नंगा फकीर और इंदिरा जी को बूढ़ी चुड़ैल कहा था क्योंकि उन्होंने इन्हें दो पैसे की बिक्री करवाने की बजाय आत्मनिर्भर बनने का झंडा उठाया था ।
फिर भी सम्मान तो सम्मान ही है । वैसे राणा जी ने मीरा को कृष्ण के चरणामृत के नाम से ही जहर भेजा था । यह तो मीरा थी जो बच गई पर सब तो मीरा नहीं होते ।
चलिए पत्र खत्म करने से पहले एक छोटी सी कहानी सुनाते हैं । एक कौआ था । कई दिन तक कुछ खाने को नहीं मिला । बहुत भूखा था । एक दिन सवेरे-सवेरे सौभाग्य से रोटी का एक टुकड़ा मिल गया । जल्दी-जल्दी उड़ कर पेड़ पर जा बैठा और जैसे ही खाने लगा एक लोमड़ी वहाँ आ गई । न तो वह भूखी थी और न ही उसके पास खाने की कमी थी पर सारे जंगल का खाना वह अपने पास भरकर रखना चाहती थी । सो इस लोभ के कारण हर समय कुछ न कुछ जुगत भिड़ाती रहती । इस कारण वह बहुत चालक हो गई थी । उसने कौए को रोटी लिए देखा तो उसकी रोटी झटकने की सोची । उसने बड़े प्यार से कहा- हे महान गायक कौए जी, क्या हाल चाल है ? लगता है खाने की बड़ी जल्दी है । पर यह समय तो राग विहाग का है । और इस जंगल में आपसे अच्छा विहाग गाने वाला कौन है । वैसे भी आजकल पश्चिमी संगीत के प्रभाव के कारण शास्त्रीय संगीत लुप्तप्राय सा होता जा रहा है । अच्छे शास्त्रीय संगीत के गाने और सुनने वाले तो बस इक्के-दुक्के ही बचे हैं । कई दिनों से सम्पूर्ण राग विहग सुना ही नहीं । क्या आप कृपा करके मेरे कानों की प्यास बुझाने के लिए कुछ गुनगुना देंगे ?
कौए के लिए यह नया, रोमांचकारी और अंदर तक गदगद कर देने वाला अनुभव था । अब तक कौए को अपने गाने के लिए कभी प्रशंसा तो दूर की बात है, केवल दुत्कार ही मिली थी । हालाँकि कौआ भी कम चालाक नहीं होता पर प्रशंसा ऐसी ग्रीस होती है जो अच्छे-अच्छों को भी रपटा देती है । सो कौआ भी रपट गया और आलाप लेने के लिए जैसे ही चोंच खोली..... । अब आगे की कहानी तो सब जानते ही हैं । हमीं सुना कर क्या करेंगे । आप भी कहेंगे कि हम यह बच्चों की मामूली सी कहानी क्यों सुना रहे हैं । इसे तो सब जानते हैं । बस, इसी भ्रम में लोग मार खा जाते हैं । जानते तो सब हैं पर गुन कर समय पर काम लेना विरले लोगों का काम है । ऐसे विरले ही चाणक्य या गाँधी बनते हैं ।
१५ अगस्त की छुट्टी के कारण १६ अगस्त को अखबार नहीं आया था । अखबार में भले ही पढ़ने, मनन करने और अनुसरण करने लायक कुछ भी नहीं हो फिर भी एक नशा है- खैनी खाने जैसा । पेट में पौष्टिक या अपौष्टिक कुछ न पहुँचे मगर चबाने और वक्तव्य, समीक्षा और विश्लेषण जैसा थूकते रहने का भी एक आनंद है । सो जैसे ही १७ अगस्त को अखबार आया हम उसे उधेड़ने लगे । भिड़ते ही खबर पर नज़र पड़ी- 'उमर अब्दुल्ला पर जूता फेंका' ।
जब से बुश पर जूता फेंका गया है तब से बेचारे जूते की तो आफत आ गई है । एक मिनट का भी समय नहीं दिया जा रहा है । बुश से निबटे तो अडवाणी, फिर चिदंबरम, जरदारी और अब उमर अब्दुल्ला । और भी न जाने कितने ज्ञात-अज्ञात होंगे जिन पर फेंका गया होगा । पात्र-अपात्र का कोई ध्यान नहीं । जूता भले ही पाँच हजार का हो मगर जोश में आकर दो टके के आदमी पर भी फेंक देंगे । अरे भाई, कुछ तो ख्याल करते जूते के स्टेंडर्ड का । उमर की खबर के आसपास ही उनके पिताजी का वक्तव्य भी छपा था कि अब उमर बुश की केटेगरी के नेता बन गए । वाकई में कितना सरल है बुश बनना ।
पता नहीं, यह बुश का अवमूल्यन था या अमरीका के राष्ट्रपति के पद का या फिर जूते का मगर खबर हमारा पीछा नहीं छोड़ रही थी । हम तो अखबार में सिर गड़ाए थे कि घर की बाउंड्री के ऊपर से होता हुआ प्रक्षेपात्र जैसा कुछ हमारे चरणों के पास आकर गिरा । जैसे महाभारत के युद्ध के शुरू में अर्जुन की तरफ से पहला बाण भीष्म के चरणों के पास आ गिरा था । देखा कि जूता था नया, भले ही कीमती नहीं था और उसके साथ एक चिट सी भी लगी थी- अध्यक्ष, बी.बी.सी. की ओर से ।
हम बी.बी.सी. नवंबर १९६२ से सुनते आ रहे हैं जब भारत पर चीनी आक्रमण हुआ था । तब हमने किस्तों पर तीन सौ रुपए का रेडियो लिया था । हमने बी.बी.सी. को कई खत भी लिखे थे पर उन्होंने हमें कोई महत्त्व नहीं दिया । और आज हमारे ६९वें जन्म दिन के पूर्व-प्रभात उनका यह उपहार और वह भी स्वयं अध्यक्ष की ओर से । जूते को लेकर परेशान और बी.बी.सी. की ओर से मिलने वाली मान्यता से प्रसन्न भी थे ।
बाहर निकल कर देखा तो तोताराम हाथ जोड़े खड़ा था । हमारे पूछे बिना ही बोला- भ्राता श्री, निशाना ठीक लगा ना ? मेरा लक्ष्य आपका सिर नहीं, चरण ही थे । जूता नया है, पुराना जूता फेंक कर आपका अपमान थोड़े ही करता । यह तो सूचना पहुँचाने का अत्याधुनिक तरीका है । पहले पत्र या सन्देश मेघ, पवन के द्वारा भेजे जाते थे फिर यह काम कबूतर से लिया जाने लगा और जो कबूतर का खर्चा नहीं उठा सकता था वह ऐसे ही कंकड में लपेट कर पत्र महबूबा की छत पर फेंक दिया करता था । यह संवाद की लेटेस्ट तकनीक है ।
हमने पूछा - पर वह बी.बी.सी. का अध्यक्ष कहाँ है ? बोला- आपका यह अनुज ही है बी.बी.सी. का अध्यक्ष, 'बुश बनाओ कंपनी' का सी.ई.ओ. । आज तक आपकी व्यंग्य प्रतिभा को किसी ने रिकग्नाइज नहीं किया तो मैंने सोचा कि दो सौ रुपए का ही तो खर्चा है क्यों न आज आपके ६९वें जन्म-दिन पर आपको भी बुश के समक्ष बना दिया जाए । और उसने दूसरा जूता भी हमारे चरणों के पास रख दिया, बोला- यह आपके जन्म-दिन पर छोटे भाई की तरफ से एक छोटा सा तोहफा ।
हमने हँसते हुए कहा- तोताराम, यह तो तेरे पास रिवाल्वर नहीं था नहीं तो तू आज हमें महात्मा गाँधी भी बना सकता था ।
जयपाल रेड्डी जी, नमस्कार । आप कांग्रेस, जनता पार्टी, तेलगू देशम पार्टी में रहे और अब पुनः कांग्रेस में है । आप सभी पार्टियों के प्रवक्ता रहे हैं और प्रवक्ता की बोलने की मज़बूरी होती है जैसे कि सुप्रीम कोर्ट वकील, कांग्रेस प्रवक्ता, बेचारे अभिषेक मनु सिंघवी की । भले ही हड़बड़ाहट में कुछ भी मुँह से निकल जाए । सो आप को भी कलमाड़ी और मणिशंकर अय्यर के विवाद में बोलना ही पड़ा । वैसे आप बोले बहुत समझदारी से । कोई भी नाराज़ नहीं और बात का कोई मतलब भी नहीं । मणिशंकर अय्यर ने भी बिना बात ही उछालकर पत्थर अपने सर ले लिया । हो सकता है कि चुप रहते तो कहीं न कहीं जुगाड़ भिड़ भी जाता पर अब तो कोई भविष्य नज़र नहीं आता ।
आपने कहा- 'आयोजन सफल रहेगा । यह हमारी संस्कृति है कि हम हर काम आखिरी क्षणों में करते हैं चाहे वह परिवार में शादी हो या कुछ और' । इस बयान में चतुराई है । आप कहीं भी नहीं फँस सकते । मगर आपने भारतीय संस्कृति के हवाले से जो बात कही है उससे हम सहमत नहीं हैं । आपके अनुसार भारतीय संस्कृति 'आग लगने पर कुआँ खोदने' की है, कि भारतीय संस्कृति दूरदर्शी नहीं है ।
हो सकता है कि आप आज की और विशेष रूप से राजनीति की संस्कृति की बात कर रहे थे मगर भारत की शाश्वत संस्कृति कभी भी अंतिम क्षण का इंतज़ार करने की नहीं रही । आखिरी क्षण में काम करने को टालना या टरकाना कहते हैं । वह राजनीति में हो सकता है, आफिसों की, बाबुओं की आदत में हो सकता है । सामान्य रूप से आज भी आदमी पानी से पहले पाळ बाँधने की कोशिश करता है । किसी को बेटी हो जाती है तो माँ उसी दिन से दहेज जोड़ने लग जाती है । बरसात से पहले ही गाँवों में तालाबों, बावड़ियों और छतों की सफाई करने लग जाते थे । किसान आज भी बरसात से पहले खेत को जोत कर तैयार कर लेता है । अगले साल के लिए समझदार किसान पहले से ही बीज छाँट कर रख लेता है, वह किसी कारगिल या मोसेंटो कंपनी के अमरीका से बीज भेजने का इंतज़ार नहीं करता । पुराने लोग तो अपने अंतिम संस्कार का सामान भी पहले ही तैयार करके रख लेते थे । डोंगरे जी महाराज कहा करते थे कि अपनी मौत को सँवारो और आज लोग हैं कि देह को ही चुपड़ने में जीवन बिता देते हैं और फिर ऊपर जाकर भगवान से मुँह छुपाना पड़ता है । इसलिए भारतीय संस्कृति की आड़ में आज की काम को टरकाने की प्रवृत्ति का पक्ष मत लीजिए ।
हाँ, आज की संस्कृति क्या, विकृति कहें तो ज्यादा ठीक है, ज़रूर टरकाने की है । इसी टरकाने की संस्कृति का परिणाम हैं नक्सलवाद, पाकिस्तान और बंगलादेश से होने वाली घुसपैठ, कश्मीर समस्या, जातिवाद आदि । आजतक न तो हम भाषा की समस्या सुलझा सके और न ही शिक्षा के मामले में कोई नीति बना सके । आज इसी कारण से हमारा कोई राष्ट्रीय चरित्र विकसित नहीं हो सका । भारत क्या है यह आज कोई भी नहीं समझा सका । ऐसे कोई देश नहीं बनता । टरकाने और अंतिम समय का इंतज़ार करने की मनोवृत्ति ने इस देश को एक भीड़ बना कर रख दिया है ।
जहाँ जाइए, अंतिम समय का इंतज़ार किया जा रहा है । बिल पास करने वाला अधिकारी ३१ मार्च को रात बारह बजे तक कमीशन का इंतज़ार करता है और यदि कमीशन पहले ही आ गया हो तो सामान आने का इंतज़ार किए बिना ही बिल पास कर दिया जाता है । कोई नेता आने वाला होता है तो उसी दिन सवेरे सफाई की जाती है । जहाँ सफाई नहीं हो पाती वहाँ कूड़े के आगे कनाते तान दी जाती हैं । सीकर में हमारे घर के पास ही कृषि मंडी है । वहीं मुख्यमंत्री का हेलीकोप्टर उतरता है । पिछले चुनावों में जब सोनिया गाँधी सीकर आईं थीं तब उनका हेलीकोप्टर भी यहीं उतरा था । मंडी के आधे भाग में बहुत स्थायी गंदगी है सो उसका एक तय उपाय है- उस दिशा में कनातें तान देना । कोई भी उस कूड़े को ठिकाने लगाने की नहीं सोचता है । इसे सफाई नहीं कहते मगर यह आपकी इस अंतिम क्षण में काम करने की सोचने की संस्कृति के कारण है । गद्दे के नीचे गन्दगी दबा कर कब तक सफाई का नाटक चलेगा । पोल तो खुलनी ही है । मेकअप से कब तक काम चलेगा ?
आखिरी क्षण में काम करनेवाले को फिर हड़बड़ी करनी पड़ती है और ज़ल्दी का काम तो शैतान का होता है । पहले तो हम यही सोचा करते थे कि ज़ल्दी करने वाले का अपना काम बिगड़ सकता है पर इसमें शैतानी कहाँ से आ गई । मगर एक बार की घटना से हमारी मान्यता बदल गई ।
कोई पच्चीसेक साल पुरानी बात है- हम कलकत्ता से दिल्ली आ रहे थे । रास्ते में इलाहबाद में एक सज्जन डिब्बे में चढ़े और एस.कुमार के सूट के कपड़े दिखाने लगे । यात्रियों से उसका मूल्य लगाने को कहा । लोगों ने मज़ाक-मज़ाक में कम से कम मूल्य लगाया । किसी ने कहा - बीस रुपया । उसने सब को कपड़ा दिखाया । कपड़ा अच्छा था । सबको लगा कि बीस रुपए में तो नहीं ही देगा । जैसे ही कानपुर आने को हुआ उसने सबसे बीस-बीस रुपए इकट्ठे कर लिए और जैसे ही गाड़ी रुकी सब को एक-एक पीस देकर उतरकर चलता बना । सब खुश कि अच्छा सौदा कर लिया । लोगों ने खोलकर देखा तो पाया कि माल कुछ और ही है जो बीस रुपए का भी नहीं है । और ब्रांड भी एस.कुमार की जगह किसी 'सुकुमार' का था । पर अब क्या हो सकता था । तब से जो काम में देर करता है तो हमें उस धोखेबाज़ की याद आ जाती है । सो आप भी समझ लें कि पहले टाइम खराब करके जो अंत में ज़ल्दी करता है वह शैतान है और वह अपना नहीं, आपका काम बिगाड़ने वाला है ।
हम न तो मणिशंकर का पक्ष ले रहे हैं और न ही अकेले कलमाड़ी की आलोचना कर रहे हैं । हम तो यह कहना चाहते हैं कि चीन ने बहुत बरसों तक ओलम्पिक खेलों में भाग नहीं लिया मगर जब भाग लिया तो पूरी तैयारी से लिया और चमत्कार कर दिखाया । पिछले ओलम्पिक खेलों का आयोजन किया, ठसके से किया और सबसे ज्यादा मेडल भी लिए । इसलिए अंतिम क्षण का इंतज़ार करके जैसे तैसे काम को निबटाने की बजाय पूरी तैयारी से बढ़िया काम कीजिए और पक्का काम कीजिए । न तो हथेली पर सरसों जमती है और न आकाश में फूल खिलते हैं ।
भारतीय संस्कृति न तो टरकाने की संस्कृति है और न ही विकल्पों के चक्कर में पड़ती है । यह तो संकल्पों की संस्कृति है । संकल्प कीजिए और लग जाइए और फिर देखिए कमाल । हम यह सब केवल आपसे नहीं कह रहे हैं । यह इस पूरे देश के लिए है । यह तो सामने पड़ गए सो आपको लिख दिया ।
वैसे शादी में हड़बड़ाहट रहती ही है । और जहाँ तक कुछ पैसे इधर-उधर होने की बात है तो सब चलता है । शादी में सौ की जगह दो सौ बाराती भी आ सकते हैं और दस बीस फालतू लोग भी जीम जाते हैं । कुछ बर्तन-भाँडे भी चोरी हो जाते हैं सो चिंता की कोई बात नहीं । वैसे हम मेज़बान हैं और जिमाने वाले भी हमारे ही लोग हैं । जीमने वाले अगर बादाम या काजू की बर्फी जेब में डालकर ले जाएँ तो बात समझ में आ सकती है मगर जिमाने वाले ही यदि परात की परात पार कर दें तो भद्द पिटने की पूरी संभावना रहती है । पर जब ब्याह माँड ही दिया है तो फेरे भी हो जायेंगे और बारात भी विदा हो जायेगी ।
हाँ, यदि कहीं वास्तव में ही कुछ कमी और बदमाशियाँ मिल रही हैं तो भविष्य में सावधान रहिएगा । आगे से छाछ फूँक कर पीजियेगा ।
कहीं दुबारा भी यही न हो ? अगर आगे फिर से ऐसा नहीं होगा तो भी यह देश शुक्र मनाएगा ।
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मणिशंकर जी, नमस्कार । आपने राष्ट्रमंडल खेलों की नाकामयाबी के लिए शुभकामना क्या प्रकट कर दी कि लोग आपको राष्ट्र-विरोधी तक कहने लगे । यह तो शुक्र मनाइए कि देशद्रोही नहीं कहा । पता है, देशद्रोह की सजा क्या है ? फाँसी । आप कोई अफजल तो हैं नहीं कि बात आगे खिसकती जाएगी ।
वैसे जहाँ तक शुभकामनाओं की बात है तो हम भी ऐसी ही शुभकामनाएँ किया करते हैं । किसी का काम बिगड़ते देखने का मज़ा ही कुछ और है । बालकनी में बैठकर लोगों को सड़क पर भीगते हुए देखना अच्छा लगता है । टी.वी में तो डूबने और भूकंप के दृश्य भी आनंद देते हैं । सो जब भारत की क्रिकेट टीम वर्ल्ड कप में आठवें स्थान पर आई थी तो हमें भी अच्छा लगा सोचा- चलो, अब तो शर्म के मारे ही खेलना छोड़ देंगे या बी.सी.सी.आइ. ही इन्हें नाकारा मान कर बाहर कर देगी मगर ऐसा कुछ नहीं हुआ । हमारी इच्छा पूरी नहीं हुई । कुछ वर्षों बाद ट्वंटी-ट्वंटी का वर्ल्ड कप जीत लाए । और फिर से वही बीमारी चालू । अब लंका में पहला टेस्ट दस विकट से हार गए और दूसरे टेस्ट में भी जब लंका ने पहली पारी में ६४२ रन बना लिए तो हमें लगा कि बुरी तरह से हार जाएँगे मगर तमाशा देखिए कि अबकी बार लंका वालों ने इन्हें भी सात सौ से ज्यादा रन बना लेने दिए । यह सब संयोग नहीं है । हमें तो लगता है कि यह इस धंधे में लगे हुए सभी लोगों की मिलीभगत है । सबकी दुकान चलती रहनी चाहिए ।
कोई पूछने वाला हो पवार साहब से कि खेती छोड़ कर क्रिकेट में क्या कर रहे हैं ? अब कहते हैं कि काम का बोझ ज्यादा है इसे कम किया जाए जिससे कि वे क्रिकेट जैसे जीवनोपयोगी राष्ट्रीय महत्व के काम में ज्यादा समय दे सकें । उनसे कौन सी बोलिंग या फील्डिंग हो सकती है अब, पर क्रिकेट का पीछा नहीं छोड़ेंगे क्योंकि इसमें पैसा ही पैसा है । ललित मोदी को अपने बाप दादाओं के पुश्तैनी काम, उद्योग धंधों, से ज्यादा फायदा क्रिकेट में दीखता है । और फिल्म वाले भी चले आए इस फायदे के धंधे में । किसी नेता को राष्ट्रीय क्रिकेट में कोई बड़ा पद नहीं मिलता तो राज्य के क्रिकेट बोर्ड में ही घुस जाता है । अरुण जेटली से अपनी पार्टी तो सँभलती नहीं है पर क्रिकेट में ज़रूर टाँग अड़ाएँगे । अब अस्सी से ऊपर की विद्या, स्टोक्स हाकी संघ का चुनाव लड़ रही हैं । क्यों भई, कुछ खिलाड़ियों के लिए भी छोड़ोगे कि नहीं ।
आपका कहना ठीक है कि राष्ट्रमंडल खेलों के आयोजन में खर्च किये जा रहे पैसे से खिलाड़ियों को प्रशिक्षण दिया जा सकता था । आपको पैसे खर्च होने से ऐतराज नहीं है, ऐतराज है तो इसके खर्च किए जाने के तरीके से है । बस, यहीं हम आपसे सहमत नहीं हैं । हम तो कहते हैं कि यह खिलाड़ी का मनोरंजन या शौक उसका अपना निजी मामला है । जिसको खेलना है खेले और जिसको देखना है देखे । ऐसे कामों में सरकार को कोई मंत्रालय बनाने की क्या ज़रूरत है । मगर बंधु, जहाँ पैसा है वहाँ नेता पहुँच ही जाएगा । जैसे गुड़ के पास चीटियाँ । कोई मंत्रालय नहीं मिलेगा तो किसी गौशाला का चन्दा ही खायेगा मगर खाएगा ज़रूर । आपने भी तो जब मंत्री थे तो इन खेलों का विरोध नहीं किया । अब असफलता की कामना कर रहे हैं ।
आजकल जो भी काम हो रहा है वह जनता की भलाई के लिए नहीं वरन कमीशन खाने के लिए हो रहा है । यदि सड़कें बनवाए बिना ही पैसा कमीशन खाया जा सकता तो वैसा भी कर लिया जाता मगर इतना झूठ चल नहीं सकता इसलिए सड़कें बनवाई जाती हैं और पूरा पैसा लगाने के बाद भी फिर इतनी ज़ल्दी टूट जाती हैं । इसलिए कि सब इसमें खाते हैं । यदि सच और ईमानदारी होती तो सत्येन्द्र दुबे की चिट्ठी पर कार्यवाही की जाती और उसे इस तरह ठेकेदारों से मरने के लिए नहीं छोड़ दिया जाता । और अब पकड़ कर सजा भी दी गई तो दो साधारण लोगों को । कोई पूछे कि इन लोगों को दुबे से क्या परेशानी थी ? परेशानी थी तो बड़े ठेकेदारों को । उनका तो कहीं नाम ही नहीं है जिन्होंने सुपारी देकर दुबे को मरवाया था ।
वैसे आपने कामना की है कि बरसात इन खेलों को बिगाड़ दे तो क्या बरसात आपके हाथ में है ? जहाँ तक बरसात की बात है तो राजस्थान में कहावत है- 'मेऊ तो बरस्या भला, होणी हो सो होय' अर्थात बरसात हर हालत में अच्छी ही होती है हालाँकि अंग्रेजी में रेनी डे को अच्छा नहीं कहा गया है जैसे कि 'सेव फॉर रेनी डे' । बरसात मतलब कि संकट का समय । पर अपने यहाँ तो सोचते हैं कि यदि ज्यादा बरसात से फसल कम भी होगी तो कोई बात नहीं, कम से कम बरसात से जानवरों के लिए घास तो हो जाएगी ।
क्या आप सोचते हैं कि बरसात से यदि ये खेल असफल हो गए तो फिर कभी ऐसे आयोजन करवाए ही नहीं जायेंगे तो आपकी भूल है । सफल हों या असफल, आयोजन तो होंगे ही । यदि खर्चा नहीं किया जाएगा तो बाँटनवारे को रंग कैसे लगेगा । वैसे हमारी व्यक्तिगत राय पूछें तो हम तो सभी तरह के खर्चीले आयोजनों के खिलाफ हैं फिर भले ही वह किसी परियोजना का शिलान्यास या उद्घाटन ही क्यों न हो । अगर खाली जगह है तो उसमें खेती करवाओ । आपने भी मान लिया है कि अब इस समय और नहीं बोलेंगे । अब तो १५ अक्टूबर को जब खेल खत्म हो जाएँगे तभी मुँह खोलेंगे ।
वैसे इस देश में पैंतीस हज़ार करोड़ रुपए कोई खास मायने नहीं रखते । इतने रुपए के तो यह देश गुटके खाकर थूक देता है; बीड़ी, सिगरेट फूँक कर धुँआ में उड़ा देता है । आपको पता है, इससे ज्यादा का तो अनाज गोदामों में सड़ जाता है और किसी की जिम्मेदारी तय नहीं होती ।
जहाँ तक आपकी शुभकामना की बात है तो उसमें फिर भी कुछ उद्देश्य नज़र आता है । हम जो क्रिकेट टीम के हारने की कामना किया करते थे, हो सकता है कि उसमें भी कपिल के स्थान पर हमारे खुद के वर्ल्ड कप न ला पाने की कुंठा रही हो । इसलिए एक सच्चा शुभचिंतक बनने के लिए हम आपको एक सज्जन का उदाहरण देते हैं जिन्हें हमने खुद देखा है और उनकी शुभचिन्तना के सच्चे किस्से जानते हैं । उनकी शुभचिन्तना का क्षेत्र था शादी-विवाह के रिश्ते । यदि कोई सज्जन उन्हें शादी के लिए आए रिश्ते की बातचीत के समय बुला लेता था तो ठीक था, ज्यादा टाँग नहीं अड़ाते थे मगर किसी ने नहीं बुलाया या उनकी अनुपस्थिति का लाभ उठाकर रिश्ता तय कर लिया तो वे अपनी जेब से पैसा खर्च करके लडके/लड़की वाले के घर जाते थे और किसी न किसी बहाने उससे मिल ही लेते थे और मंथरा की तरह शक का बीज डालकर चले आते थे । इसके बाद भाग्य की बात या संबंधित लोगों की समझदारी की । पर वे ऐसे अवसरों पर अपना कर्म करने से कभी भी चूके नहीं । वैसे लोगों का कहना है कि इसी व्यस्तता के कारण वे अपने खुद के बेटे के लिए कोई रिश्ता नहीं ढूँढ सके ।
हमने क्रिकेट के लिए बहुत शुभकामनाएँ की हैं और कभी- कभी उनका प्रभाव भी हुआ है मगर हमने इनके बारे में कभी किसी को बताया नहीं । रामचरितमानस में कहा है कि युक्ति, मन्त्र, योग और तप का प्रभाव तभी होता है जब इन्हें छुपा कर किया जाए पर आपने तो अभी किया कुछ नहीं और अपने इरादों का ढिंढोरा पहले से ही पीट दिया । वैसे हम जानते हैं कि आपके पास बरसात को कंट्रोल करने की कोई विधि नहीं है फिर भी अब अगर राष्ट्रमंडल खेलों के समय बरसात ने काम बिगाड़ दिया तो कलमाड़ी जी आपकी ‘बाइ नेम’ शिकायत करेंगे और आपके पास सफाई देने के लिए कुछ भी नहीं होगा । इसलिए १५ अक्टूबर तक ही क्या, हो सके तो इस मामले पर पूरी तरह से चुप लगा जाइए जैसे कि भोपाल गैस मामले और अफजल मामले में सरकार ने चुप लगा रखी है । हम तो कहते हैं कि अब गुपचुप रूप से राष्ट्रमंडल खेलों में बरसात न हो इसके लिए यज्ञ करवाइए जिससे आपके लिए आगे और कोई चक्कर नहीं पड़े ।
(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी । प्रकाशित या प्रकाशनाधीन । Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication. Jhootha Sach
कलमाड़ी जी, आपने पायलट की रूप में भारतीय वायुसेना में सेवा की । भारत पाक युद्ध में १९७१ में भाग लिया । आपके पिताजी भी फ्रीडम फाइटर रहे और आप भी । हम भी जीवन भर दो रोटी के लिए फाइट करते रहे । आपने रेल मंत्रालय भी सँभाला मगर तब जब रेल मंत्रालय घाटे में चलता था और ज़्यादातर रेलें बैलगाड़ी की चाल से चलती थीं । आज तो रेल मंत्रालय का यह हाल है कि सब मंत्री रेल के लिए मरे जा रहे हैं । ममता दीदी को यदि रेल मंत्रालय नहीं दिया जाता तो शायद सरकार ही गिरा देतीं । रेलें आज कल लाखों करोड़ का विभाग है और फिर हर साल लाखों समर्थकों को एडजेस्ट कर सकने का अवसर भी ।
अपने से आधी उम्र के छोकरों को कमाई वाले विभागों का मंत्री बना दिया गया है । और तपे-तपाये लोगों को काम भी दिया तो क्या, खेल खिलाने वाला । यह काम तो कोई भी कर सकता था । स्कूलों में हो नहीं रहे हैं क्या खेल ? क्या है इसमें- किसी पेड़ के नीचे बैठकर थोड़ी-थोड़ी देर पर सीटी बजाते रहो और बच्चे खेलते रहेंगे । अब किसी को पदक लाना होगा तो भिवानी में किसी अखाड़े में मिट्टी खूँदता रहेगा या अपनी निजी शूटिंग रेंज में चलाता रहेगा पिस्टल । इसमें किसी को क्या करना है ।
पर ये जो खेल आपको करवाने का काम दिया गया है वह जरा टेढ़ा है । खेलने का ही नहीं, खिलाड़ियों के खाने और ऐय्याशी का भी इंतज़ाम करो । सुना है कि इन खिलाड़ियों की खेल क्षमता बढ़ाने के लिए इधर-उधर से सेक्स वर्कर भी लाई जा रही हैं । कंडोम उगलने वाली मशीनें लगाई गई हैं । पता नहीं कब, किस अनुशासित खिलाड़ी या अधिकारी को इस खेल उपकरण की ज़रूरत पड़ जाए और उपलब्ध न होने पर देश की प्रबंधन क्षमता का कचरा हो जाए । और ऊपर से इन सब की वी.आई.पी. सुरक्षा का भी इंतज़ाम करो तिस पर स्टेडियमों का निर्माण भी करवाओ । और फिर यह बरसात । और सबसे ऊपर अपने मणि शंकर जी की शुभकामनाएँ । आदमी को एक कमरा बनवाने में पसीना आ जाता है, यहाँ तो इतना निर्माण करवाना है । इन सबके बावज़ूद पुछल्ला यह भी कि विदेशी खिलाड़ियों और अधिकारियों को यहाँ की गरीबी नज़र नहीं आनी चाहिए इसलिए भिखारियों और झुग्गी-झोंपडी वालों को भी कहीं न कहीं ले जाकर पटको ।
खेल अपने ज़माने में भी होते थे । मास्टर जी बीस-तीस बच्चों को बस में भर कर जिला मुख्यालय ले जाते थे और स्कूल के किसी कमरे में सबको ठहरा दिया जाता था । सभी बच्चे मिलकर खाना बना लेते थे । दिशा-मैदान के लिए स्कूल के पास ही किसी सूने स्थान पर निबट लेते थे । किसी कुएँ या तालाब में नहा लेते थे और यदि सर्दी के दिन हुए तो नहाए बिना भी काम चला लिया जाता था । यदि कभी टीम जीत जाती थी तो मास्टर जी हनुमान जी का प्रसाद लगा कर सब को एक-एक लड्डू बाँट देते थे । सच, कितना मज़ा और रोमांच था उन खेलों में । अब तो इन खिलाड़ियों का कुछ पता नहीं लगता कि कब नशे की दवा ले लें या कब किसी पब में जाकर नशे में पिट या पीट कर आ जाएँ या कब कोई कोच किसी महिला खिलाड़ी का स्टेटमेंट ले ले । ज़माना कितना बदल गया है । अब खेल न तो आनंद के लिए रह गए हैं और न ही प्रेम बढ़ाने के लिए । अब तो पत्रकार इन्हें एक युद्ध या महाभारत के रूप में प्रस्तुत करते हैं और व्यापारी कमाई करने का एक मौका समझते हैं भले ही लड़कियाँ ही सप्लाई करनी पड़ें ।
ले दे कर आप एक तो काम करवा रहे हैं उसमें भी अपने वाले ही समस्या बन रहे हैं । राजस्थानी में एक कहावत है- 'काणती को तो काजळ ही गाँव नै कोनी सुहावै' । कह रहे हैं यदि खेल कामयाब रहे तो उन्हें खुशी नहीं होगी । ठीक है, खुशी नहीं होगी, कोई बात नहीं मगर यार, असफलता की कामना तो मत करो । और अब ये मीडिया वाले शोशा छोड़ रहे हैं कि निर्माण कार्यों में करोड़ों का घोटाला हुआ है । भाई, जब हज़ारों करोड़ का खेला है तो अब किस-किस को रोका जा सकता है । ओबामा द्वारा मनमोहन सिंह जी दिए गए भोज में क्या बिना बुलाए मेहमान सलाही दंपत्ति नहीं घुस आए थे क्या ? इतने बड़े काम में अगर कोई कुछ बोरी सीमेंट उठा ले जाए या सीमेंट में रेता ज्यादा मिला दे तो आप क्या कर सकते हैं । एक आदमी और इतना सारा काम । कहाँ-कहाँ सँभाले कोई । दाढ़ी बनाने तक की तो फुर्सत नहीं मिल रही है आपको और लोग हैं कि मीन-मेख निकालने से ही बाज नहीं आते । अरे भाई, यह तो सारे देश की इज्ज़त का सवाल है । अगर टाँग ही खींचनी है तो बाद में खींच लेना । एक बार काम तो निबट जाने दो । हम कोई भाग कर थोड़े ही जा रहे हैं कहीं । और फिर ट्रांसपोर्टेशन में अस्सी प्रतिशत तक खर्च हो जाने की तो राष्ट्रीय परम्परा है । रही बात कहीं निर्माण कार्य के ढह जाने या टाइलों के उखड़ जाने की, तो आदमी के हाथ में तो निर्माण करवाना ही है अब वह कितने दिन चलेगा यह तो ऊपर वाला ही जानता है । अरे, फेरों में ही दूल्हा या दुल्हन मर जाए तो पंडित को फाँसी दे दोगे क्या ?
आप तो अपना काम जारी रखिए । भगवान सब भली करेगा । पहले कई बूढ़ी औरतें टोटका करके शादी से पहले आँधी और बरसात को बाँध दिया करती थीं । और बहुत बार ऐसा होता था कि शादी सही सलामत निबट जाती थी । सो यदि आपको विश्वास हो तो कोई ऐसी सयानी बुढ़िया ढूँढें । अंधविश्वास की चर्चा से घबराइए मत । जर्मनी वाले ओक्टोपस पर सारी दुनिया ने विश्वास किया तो हम अपने तंत्र-मन्त्र को बढ़ावा क्यों न दें । और फिर जब नाचने-गाने वालों पर करोड़ों खर्च किया जा रहा है तो फिर इस टोटके पर कुछ लाख खर्च करने में ही क्या बुराई है ।
और बरसात क्या मणिशंकर जी के हाथ में है ? और यदि ऐसा है तो उन्हें जल संसाधन मंत्रालय दिलवा देते हैं । जहाँ जितनी बरसात की ज़रूरत हो उतनी करवा दें बरसात । न सूखे का झंझट और न ही बाढ़ का डर । हाँ, इससे एक समस्या आ सकती है कि फिर बाढ़ सहायता और सूखा राहत के सहारे जिन्दा रहने वाले जन सेवकों का क्या होगा ?
खैर, आप तो हनुमान जी का ग्यारह हज़ार रुपए का प्रसाद बोल कर काम चालू रखिए और हाँ, रोज ग्यारह ब्राह्मणों से सुन्दर कांड और संकटमोचन का अखंड पाठ करवाना भी चालू रखियेया । और यह भी कि यह सारा अनुष्ठान गुप्त रखा जाए नहीं तो धर्मनिरपेक्षता वाले कुचरनी करने लग जायेंगे ।
अब मणिशंकर जी ने कहा है कि वे १५ अक्टूबर के बाद मुँह खोलेंगे । खोलते रहें मुँह । बाद में लीक पीटने से क्या होता है । किस का क्या बिगड़ गया जो आपका कुछ होगा ।
इसके बाद आप तो ओलम्पिक की सोचिए । मुख्य बात तो आयोजन और खेल भावना है । जहाँ तक खेलों के स्तर और मेडलों की बात है तो वही मुर्गे की डेढ़ टाँग ही रहने वाली है चाहे आयोजक मणि शंकर जी को ही क्यों न बना दिया जाए । तो फिर आप में ही क्या काँटे लगे हुए हैं ।
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