Nov 23, 2010

देयर वाज ए दलित राजा

जंगल और शेर दोनों ही घटते जा रहे हैं मगर अब भी जंगल का राजा शेर को ही कहा जाता है । कोई एक-आध बचा है तो सर्कस में तमाशे दिखा रहा है या रणथम्भौर में मुकेश अम्बानी के स्वागत में परेड कर रहा है । वैसे ठीक भी है, जंगल में तो पोचर घूम रहे हैं खाल, दाँत, माँस छीलकर एक्सपोर्ट करने के लिए । नाम राजा मगर सरकारी गाड़ी, बंगला, नौकर - कुछ नहीं मिलते । जो बजट आता है उसे वन-अधिकारी खा जाते हैं । खुद ही शिकार करके लाना पड़ता है । यदि बीमार हो जाए तो अमरीका जाकर इलाज करवाना तो दूर की बात है, पट्टी बाँधने के लिए कोई साधारण पशु-कम्पाउंडर भी नहीं मिलता । कोई आदर्श सोसाइटी ही नहीं तो फ्लेट हथियाने की भी सुविधा नहीं । राजा होकर भी पड़े रहो किसी गुफा में । सब्जियों का राजा आलू को कहा जाता है मगर भाव चढ़ रहे हैं लहसुन और प्याज के । जिन्होंने अपने खजाने को दारू और रंडियों में नहीं लुटाया और महलों में होटल खोल कर बैठ गए वे ढाबा चलाकर रोटी खा रहे हैं । नहीं तो राजा लोग या तो एयर इण्डिया के दफ्तर के आगे साठ साल से सलाम की मुद्रा में खड़े हैं या किसी दफ्तर की चौकीदारी कर रहे हैं । कई बरसों पहले पढ़ने को मिला था कि बहादुरशाह ज़फर का वंशज चाँदनी चौक में कपड़ों पर इस्त्री करता है । लखनऊ के नवाब का वंशज ताँगा चलाता है । कहा भी है- 'सबै दिन जात न एक समाना' ।


पहले क्षत्रिय ही राजा हुआ करते थे । कभी कभी कोई राजा जायज़ संतान के बिना मर जाता था और भले आदमियों की चल जाती थी तो किसी भले ब्राह्मण को गद्दी पर बैठा दिया जाता था । ब्राह्मण से कभी राज सँभला है ? सो फिर किसी बाहुबली के पास चला जाता था । बाहुबली ही क्षत्रिय होता है । यदि जन्मना न भी हो तो वह अपनी ताकत के बल पर अपने को क्षत्रिय मनवा लेता था । भारत पर विदेशियों के हमले होने लगे और एक दिन उन्होंने इस देश पर अपना राज भी जमा लिया । ये या तो राज करते थे या सैनिक होते थे । सैनिक भी राजा ही होता है । उसे राजा के नाम पर लूटने की आजादी होती है । फिर आए अंग्रेज, जो भले ही इंग्लैण्ड में जेब ही काटते रहे हों मगर यहाँ आकर तो सभी अधिकारी बन जाते थे- अंग्रेज बहादुर । जो हिंदू राजा थे वे इनको राजा मान चुके थे और मनमाना टेक्स वसूल करके इन्हें पहुँचाते थे और बचे हुए पैसों से या तो दारू पीते थे या लड़कियाँ उठवाते थे । यही स्वर्णयुग कोई दो हज़ार साल तक चला ।

इतने लंबे काल में कोई दलित राजा नहीं हुआ । काशी में था एक डोम । आज वहाँ उसे डोम-राजा कहा जाता है । डोम शब्द उस समय का 'दलित' ही रहा होगा । एक बार उसने हरिश्चंद्र नाम के एक राजा को खरीद कर अपना साम्राज्य बढ़ाना चाहा । किसी राजा को खरीदने वाला वह पहला व्यक्ति था । यह डोम राजा बहुत उदार था । उसने सवर्ण हरिश्चंद्र को सीधे ही मणिकर्णिका घाट का सी.ई.ओ. बना दिया । तभी विष्णु नाम के एक बँधुआ-मजदूरी-विरोधी कार्यकर्त्ता ने हरिश्चंद्र को मुक्त करवा दिया और डोम राजा को मुआवजा भी नहीं दिया । इसके बाद किसी दलित के राजा बनने का वर्णन नहीं मिलता ।

इसके बाद देश में लोकतंत्र आ गया और फिर तो दलितों को भी बहुत सारे अधिकार मिल गए । कई मुख्यमंत्री बने, राज्यपाल बने, राष्ट्रपति भी बने मगर रहे दलित के दलित ही । पता नहीं यह कैसा दलितत्त्व है जो कोई भी पद पाकर खत्म नहीं होता । पहले तो किसी भी जाति का हो मगर राजा बनते ही क्षत्रिय बन जाता था । लोकतंत्र में दलित होने में राजा होने से भी ज्यादा फायदे हैं । ले-दे कर अब जाकर कहीं एक राजा दलित हुआ है । तो सबके पेट में दर्द होने लगा है । कहते हैं या तो राजा रहो या दलित रहो । दोनों नहीं हो सकते । क्योंकि तुमने 'कुछ' लोगों को 'कुछ' सस्ते में 'कुछ' बेच दिया है ।


अरे भाई, राजा है, उसका राज है, जो चाहे बेच दे । लोग तो, कोई खरीदने वाला हो तो लाल किले की नकली रजिस्ट्री अपने नाम बनवाए फिर रहे हैं । मुग़ल बादशाह ने अंग्रेजो को ज़मीन बेच दी कि नहीं बंगाल में ? और वहीं से फैलाते-फैलाते उन्होंने सारे हिंदुस्तान पर कब्ज़ा कर लिया । शिवाजी ने एक कवि से एक ही कविता बावन बार सुनी और उसे बावन गाँव दे दिए । क्यों भाई, किसे पूछा था ? कृष्ण ने दो मुट्ठी चावल के बदले तो अपने क्लास-फेलो सुदामा को दो लोकों का राज दे दिया । तब किसी ने नहीं पूछा कि इतना सस्ता सौदा क्यों कर लिया ? टेंडर क्यों नहीं निकलवाए ? वह दलित नहीं था इसलिए सवर्णों ने कोई विरोध नहीं किया । अब एक दलित राजा ने 'कुछ' बेच दिया तो पीछे ही पड़ गए ।

इन सदाचारियों से कोई पूछे कि भई, क्या बेच दिया ? तो सही ढंग से बता नहीं पा रहे हैं । सोना, चाँदी, घर, मकान, ज़मीन क्या बेच दिया ? कहते हैं कोई ‘२-जी’ स्पेक्ट्रम बेच दिया । पता नहीं, कोई खाने की चीज है या पहनने की ? एस.एम.एस तक तो करना आता नहीं और बात कर रहे हैं बड़ी-बड़ी टेकनोलोजी की । अरे, पहले भी तो बिना टेंडर के ही बेच दिया था- कुछ स्पेक्ट्रम-वेक्ट्रम जैसा कुछ । 'पहले आओ, पहले पाओ' के आधार पर । शास्त्रों में भी कहा गया है “जिस रास्ते से '(प्रमोद)महाजन' जाते हैं वही सही रास्ता है” सो यह राजा भी बेचारा उसी रास्ते पर ही तो चला है । अब किसे पता था कि सूचना निकलने से पहले ही खरीदने वाले कुर्सी के नीचे छुप कर बैठे थे ।

इससे पहले भी तो सरकारी कारखाने बिके हैं और सस्ते में । कांग्रेस के राज में सिंदरी का खाद कारखाना धूल के भाव बेच दिया गया और फिर एन.डी.ए. के राज में बाल्को का अल्यूमिनियम का कारखाना पाँच सौ करोड़ में बेच दिया जिसमें पाँच हज़ार करोड़ का तो भंगार ही बताया जाता है । कहते हैं कि यह स्पेक्ट्रम बहुत महँगा बिक सकता था । तो खरीद लेते । किसने मना किया था ? पहले भी तो कभी-कभी ऐसा होता था कि कि राजा के मरने के बाद अगले दिन जो भी महल के दरवाजे पर सुबह-सुबह सबसे पहले मिलता था उसे ही राजा बना दिया जाता था । सो स्पेक्ट्रम के मामले में ऐसा हो गया तो क्या आसमान टूट पड़ा ? एक दलित है, इतने रुपए कभी न देखे, न सुने सो हजारों करोड़ की बात आते ही बेच दिया । अपने हिसाब से तो ठीक ही बेचा था । अब बनिए से तो पार पाना न किसी दलित राजा के बस का है और न किसी सवर्ण राजा के । धंधा करना तो बनिया ही जानता है । तुम लोगों से ही धंधा होता तो क्यों तो सरकारी कारखाने बेचते और क्यों सरकारी कारखाने घाटे में चलते ?


इसका फोटो देखा है ? कितना मासूम और कमसिन लगता है । इसके बस का इतने रुपए ( १ लाख ७६ हजार करोड़ ) को खाना तो दूर, हिसाब करना भी मुश्किल है । यह कौन सा हार्वर्ड या ऑक्सफोर्ड में पढ़ा अर्थशास्त्री है । इतने रुपए तो किसी रिज़र्व बैंक के गवर्नर ने भले ही देखे हों, साधारण आदमी से तो इतनी बड़ी गिनती भी नहीं हो सकती । एक गरीब आदमी के एक बहुत बड़ी लाटरी निकल आई । लाटरी कम्पनी वालों ने सोचा- यदि इसे एक बार में ही इतने बड़े इनाम के बारे में बता दिया तो हो सकता है इसका हार्ट फेल हो जाएगा । सो एक मनोवैज्ञानिक को भेजा कि इसे ज़रा ढंग से बताना । मनोवैज्ञानिक ने उसे धीरे-धीरे बताना शुरु किया कि यदि तुम्हारे एक हजार की लाटरी लग जाए तो तुम क्या करोगे ? एक लाख की लाटरी लग जाए तो क्या करोगे ? वह भी बड़े मजे से बताता गया ? मगर परेशान ज़रूर हो रहा था । जब मनोवैज्ञानिक ने पूछा- यदि तुम्हारे एक करोड़ की लाटरी लग जाए तो क्या करोगे ? उसने चिढ़ कर कहा- आधा तुम्हें दे दूँगा । सुनते ही डाक्टर का हार्ट फेल हो गया ।

सब एक दलित के प्रति निष्करुण हो रहे हैं । यह तो भला हो करुणा के निधि का जिन्होंने अपनी करुणा के प्रताप से एक दलित को बचा लिया मगर कब तक ? जब सारा गाँव ही पीछे पड़ गया तो क्या किया जा सकता था । और तो और अम्मा, जिसे वात्सल्य की मूर्ति माना जाता है, नहीं पिघली और अंत में बाल-दिवस के उपलक्ष्य में एक राजा-बेटा की, एक राजा भैया की बलि लेकर ही मानीं । राजा एक लुप्त होती प्रजाति है और लुप्त होती प्रजातियों के बचाने के लिए वैसे भी सारी दुनिया में अभियान चल रहे हैं तो भारत में क्यों नहीं ? हमें विश्वास रखना चाहिए कि जल्दी ही कोई न कोई और ऐसा ही प्रतापी राजा भैया, राजा बेटा, राजा बाबू इस महान लोकतंत्र को प्राप्त होगा ।

१५-११-२०१०

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(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी । प्रकाशित या प्रकाशनाधीन । Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication. Jhootha Sach

2 comments:

  1. आपके इस लेख की जीतनी प्रशंसा की जाए कम है , आपकी बातों से कोई सहमत हो या न हो अलग बात है
    आपके व्यंग करने के तरीके से तो ज़रूर प्रभावित होगा
    dabirnews.blogspot.com

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  2. बहुत शानदार लेख.. बहुत से लोग वाकई आपसे सहमत नहीं होंगे.. सच्चाई झेलने का माद्दा हर किसी में नहीं होता..

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